tag:blogger.com,1999:blog-44130516850218101072024-03-13T01:29:52.697-07:00भड़ासदिल और दिमाग में अटकी बातों को निकाल दीजिये मन हल्का हो जाएगाआर्यावर्त डेस्कhttp://www.blogger.com/profile/13966455816318490615noreply@blogger.comBlogger3287125tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-33410655960913932752023-12-18T18:12:00.000-08:002023-12-18T18:12:29.361-08:00रूसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ने बताई अंग्रेजी लूट की कहानी<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/russian-film-on-exploitation-of-british-rule/">रूसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ने बताई अंग्रेजी लूट की कहानी</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-49848676834816837952023-12-18T08:32:00.001-08:002023-12-18T08:32:30.725-08:00धर्म, परम्परा और विधान<div class="separator"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjlcXa4Hv9XjqL4YlteuwrpEGZWRRs6v6RqyFqoYfOUDxLVJAtzRgS2Lz5q4IfXCF8DRDAIwSzsuD3FAOgV-z77r0wJAWPLn2k2eTTguhcnazHx6rlAWL6s5f8nsXeRdcSMs7jImAkicWaKL9ZRafI980BQhLkeOQcIh4brQ57ZWBNWhKxDogZNArSKnvk" imageanchor="1"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjlcXa4Hv9XjqL4YlteuwrpEGZWRRs6v6RqyFqoYfOUDxLVJAtzRgS2Lz5q4IfXCF8DRDAIwSzsuD3FAOgV-z77r0wJAWPLn2k2eTTguhcnazHx6rlAWL6s5f8nsXeRdcSMs7jImAkicWaKL9ZRafI980BQhLkeOQcIh4brQ57ZWBNWhKxDogZNArSKnvk" width="400"></a></div><div>धर्म, परम्परा और विधान</div><div><br></div><div>कोई भी देवी देवता बलि नहीं मांगते। सब जीव जंतु उनकी ही तो संतान है। ऐसे में क्या कोई माँ-बाप अपने ही बच्चों की बलि मांगेगा? </div><div>हमारे वेदों-ग्रंथों में भी बलि निषेध है-</div><div><br></div><div>मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।- ऋग्वेद 1/114/8</div><div>अर्थात- हमारी गायों और घोड़ों को मत मार</div><div><br></div><div>इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।</div><div>त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।। – यजु. 13/50</div><div><br></div><div>अर्थात- उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार</div><div>' वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। अगर मांसाहारी हैं तो वेशक खायें लेकिन धर्म की आड़ लेकर नहीं। वैसे भी विज्ञान की नज़र से भी देखें तो मानव शरीर माँस खाने-पचाने के योग्य बना ही नहीं है। न तो मांस के लायक दांत है और न पचाने लायक आँत। </div><div>सभी वेद-पुराण को उठाकर पढ़ लें, सभी देवी-देवताओं ने उन दानवों का वध किया जो जगत के लिए आतंक बने हुए थे। किसी निर्दोष या सदमार्गी राक्षस को नहीं मारा उल्टे उन्हें अपनी शरणागति प्रदान की। सर्वाधिक बलि लोग माँ काली या दुर्गा देवी के समक्ष देते हैं लेकिन ध्यान दें कि उन्होंने महिसासुर और अन्य दैत्यों का वध जगत कल्याण हेतु किया उसका भक्षण नहीं किया। किसी निर्दोष निरीह पशु को बलि नहीं ली। दरअसल कुछ लोगों ने यह अपनी अहम और जिह्वा के स्वादपुर्ति के लिए बलि देना शुरू किया। महिसासुर जैसे ताकतवर व्यक्ति से तो लड़ नहीं सकते तो बेचारे निर्दोष, बेजुबान पशुओं की बलि देकर उसका मांस भक्षण करने लगे। उससे उनका अहम भी शांत होता है और जिह्वा की स्वादपुर्ति भी हो जाती है। शास्त्रों में बलि का अभिप्राय अपने भीतर के दुर्गुणों जैसे क्रोध, काम, लोभ, अंहकार, मोह, ईर्ष्या इत्यादि की बलि देने की बात कही गयी है। इस्लाम मे भी कुर्बानी का अभिप्राय अपनी सबसे प्यारी वस्तु की क़ुरबानी देना है ताकि लोभ-मोह खत्म हो सके। इस्लाम में तो एक ही ख़ुदा का विश्वास है जिसकी सब संतान है तो क्या अल्लाह अपने ही सन्तान की क़ुरबानी माँगेगा? </div><div>किसी भी पर्व-त्यौहार पूजा-पाठ में बाजार घूमकर देख लीजिए। लोग स्वयं के लिए तो सबसे बढ़िया और मंहगा सामान खरीदते हैं लेकिन पूजा दुकान में घी-धूप दीप या फिर पंडित जी के लिए दान की सामग्री "पूजा का है, दान करना है" बोलकर सबसे घटिया सस्ता सामान लेकर आते हैं। यहाँ तक अक्षत, घी, धूप, यज्ञोपवीत जैसी मामूली पूजा सामग्री भी खुद के लिए बढ़िया और ईश्वर को समर्पित करने के लिय घटिया सस्ता खरीदने की आदत है। ईश्वर को समर्पित करने की सामग्री हविष्य नैवेद्य कहलाती है यानी जिसे आप स्वयं खा सकते हैं वही सामग्री ईश्वर को चढ़ाना चाहिए। जिसे आप स्वयं धारण कर सकें वही वस्त्र का दान करना चाहिए लेकिन नहीं लोग कपड़े की दुकान पर जाकर कहेंगे कि -"पंडीत जी को दान करना है सस्ता वाला दिखाइए" जिस घी को आप नहीं खा सकते उससे पूजा करना निष्फल ही है। जिस वस्त्र को आप पहन नहीं सकते उसका दान निरर्थक है। शादी-व्याह, पर्व-त्यौहार के आडंबर में आप लाखों रुपये पानी की तरह बहा देंगे लेकिन जब बात पूजा सामग्री और दान की आती है तो लोगों की दरिद्रता बाहर निकल आती है। अरे! ईश्वर को नही चाहिए निरीह पशुओं की बलि, सस्ती घटिया पूजा सामग्री, वह स्वयं जगतपिता है उसे किस बात की कमी है? उन्हें तो 56 भोग भी नहीं चाहिए। मनुष्य अपनी जिह्वा स्वाद पूर्ति के लिए 56 भोग की व्यवस्था करता है उसमें कोई कमी नहीं करता लेकिन जो ईश्वर को चढ़ना है, जो पुजारी को दान करना है वह सबसे निकृष्ट सामग्री लाएगा। बलि की ही बात हो रही है तो बाजार में जाकर प्रत्यक्ष उदाहरण देख सकते हैं। लोग बढ़िया, स्वस्थ, मोटे पशुओं को खरीदना चाहते हैं ताकि अधिक से अधिक मांस निकले। उसमे ईश्वर या अल्लाह को बलि देने की भावना नहीं रहती। जैसे बलि या भोग में बेहतर गुणवत्ता देखते हैं उसी तरह चढ़ावा और दान की गुणवत्तापूर्ण सामग्री की खरीद करो लेकिन नहीं वहां तो जेब टटोलने लगेंगे। होटल में अपने अहम पूर्ति हेतु बेटर को टिप या बारात के डांस में पांच-पांच सौ के नोट हवा में उड़ाएंगे लेकिन जब मन्दिर में दान करने की बात आएगी तो जेब मे चवन्नी ढूंढेंगे। अरे! नहीं चाहिए ईश्वर को तुम्हारी चवन्नी-अठन्नी की औकात! ईश्वर तो श्रद्धा के भूखे होते, भगवान विष्णु सिर्फ एक तुलसी दल से प्रसन्न हो जाते है, बाबा भोलेनाथ तो बेलपत्र और धतूरे में ही खुश हो जाते हैं। ईश्वर ने दानपुण्य की व्यवस्था इसलिए बनाई है कि उनकी सेवा में दिनरात जुड़े परिवारों का भरणपोषण हो सके। जिस तीर्थ स्थल पर ईश्वर का वास है वहाँ की अर्थव्यवस्था और लोगों की रोजी रोटी चलती रहे। मन्दिरो से सिर्फ पंडित का पेट नहीं भरता वल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले हर व्यक्ति की रोजी-रोटी का जुगाड़ होता है। देश के अधिकांश शहर में रोजगार का मुख्य साधन मंदिर और पूजा है। यकीन न हो तो तीर्थ स्थल घूमकर देख लें। काशी, मथुरा, वृन्दावन, बरसाना, गोकुल, अयोध्या, पूरी, भुवनेश्वर, हरिद्वार, ऋषिकेश, देवघर, विंध्याचल, वैष्णो देवी, उज्जैन, रामेश्वरम, चारधाम, सभी शक्तिपीठ, सभी ज्योतिर्लिंग, जहाँ जाइये वहां की रोजी रोटी का मुख्य आधार मन्दिर ही है। जिसमें हर जाति, हर धर्म और हर वर्ग के लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इतने रोजगार कोई भी सरकार नहीं दे सकती, जितना सिर्फ हमारे देवी-देवताओं ने दे रखा है। हमारी सनातन संस्कृति को विदेशी भी अपनाने लगे हैं। इसी तरह हमारे हर पर्व त्यौहार में हिंदुओं से अधिक अन्य धर्म के लोगों को रोजगार मिलता है। हमारी सनातन संस्कृति सदैव जग कल्याण की बात करती है। </div><div>दरअसल लोग परम्परा के नाम पर अपनी सारी अहमपूर्ति कर लेते हैं जबकि परंपरा मनुष्यों के द्वारा समय-समय अपनी सुविधानुसार बनाई गई है। विधि और परंपरा में फर्क समझने की आवश्यकता है। विधि विधान ईश्वर द्वारा निर्धारितजबकि परंपरा मनुष्य निर्मित है। ईश्वर जीवन देता है न की बलि लेता है। याद कीजिये कृष्ण का गोबरधन प्रसङ्ग। इंद्र को पशुओं की बलि देने की परंपरा दी जिसका कृष्ण ने विरोध करते हुए कहा कि परंपरा को समयानुसार बदलना जरूरी होता है। जो जीवन की बलि ले वह पूजनीय नहीं जो जीवन प्रदान करे उसकी पूजा होनी चाहिए। उन्होंने इंद्र से बेहतर गोबर्धन पर्वत की पूजा करने को कहा कि यह पर्वत हम सबको भोजन, पानी प्रदान करता है। कृष्ण का सबने बहुत विरोध किया लेकिन जब इंद्र का अहम चूर हुआ तो गोबरधन पर्वत की पूजा शुरू हो गईं। सनातन धर्म मे तो कण-कण में ईश्वर के वास् की आस्था है</div><div>जीव जंतु तो छोड़िए नदी, पहाड़, पेड़-पौधे तक की पूजा का विधान है। सनातन में सबके संरक्षण की बात की जाती है। ईश्वर कभी भी कोई गलत कार्य करने को नहीं कहते। ईश्वर के मनुष्य अवतार ने भी धैर्य, संयम और धर्म का पालन ही किया राम हो या कृष्ण, किसी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो लोगों को धर्म के पथ से विचलित करे। उन्होंने हमेशा धर्म का ही पालन किया। जो गलत परम्परा थी उसे बदलने का प्रवास किया। आजकल लोग भगवान भोलेनाथ को गांजा और भांग पीते दिखाते हैं। उनके नाम पर नशापान करते हैं लेकिन उन्हें कौन समझाए कि भोलेनाथ ने कभी नशापान नहीं किया। समुद्रमंथन में जब कालकूट विष निकला तो प्रलय की स्थिति आ गयी तब महादेव ने जग कल्याण हेतु विषपान किया था। अगर आप भी सच्चे शिवभक्त हो तो गांजा-भांग की जगह थोड़ी ज़हर पीकर देख लो लेकिन सदाशिव की क्षवि बदनाम मत करो। विषपान के बाद जब मां दुर्गा ने विष को कंठ तक रोक लिया तो शंकर नीलकंठ हो गए। विष की ऊष्मा को दूर करने के लिए शिव को भी 20 वर्षों तक ऋषिकेश में कठिन साधना करनी पड़ी थी। विष के प्रभाव को कम करने के लिए धतूरे का सेवन किया क्योंकि धतूरा ठंडक प्रदान करती है।भांग भी औषधि रूप में विष तत्वों का नाश करता है। इसलिए शिव को भांग और धतूरा चढ़ाया जाता है। शिव जग कल्याण हेतु विषपान किया था कोई शौक से नशापान नहीं। कई जगह लोग शराब का भोग लगाते है जबकि देवी माँ ने कभी मद्यपान नहीं किया। यह कुछ लोगों के द्वारा अपनी लालसा पूर्ण करने का बहाना मात्र है। परंपरा कोई शास्त्रोक्त विधान नहीं वल्कि मनुष्य निर्मित है। एक उदाहरण के तौर पर देखें तो किसी के घर शादी हो रही थी मंडप के आसपास एक कुत्ता बहुत परेशान कर रहा था तो घरवाले मंडप के एक खूंटे में उसे बांध दिया। उसे दख नई पीढ़ी ने समझा कि शायद कुत्ते बांधने की परंपरा है, अब उस परिवार में हर शादी के मंडप में कुत्ते को बांधना परम्परा बन गयी। लोग अपनी पुरखों की परंपरा बदलने से डरते हैं कि पता नहीं कुछ अपशकुन न हो जाय। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। ईश्वर कभी भी किसी का बुरा सोचते नहीं। वे तो सदा जगत का कल्याण करते हैं। लोग कृष्ण के आधे-अधूरे उपरी आवरण को देखकर स्वयं को कृष्ण कन्हैया कह सारी गलतियां करने लगता है। कृष्ण को छलिया, चोर, नटखट, रास रचैया कहकर लोग कृष्ण बनने का पर्याय करते हैं। कृष्ण के रासलीला को लोगों ने गलत अर्थ में परिभाषित कर दिया है। राधा और कृष्ण के प्रेम का उदाहरण देकर लोग न जाने क्या क्या कर लेते हैं। हक़ीक़त यही है कि ऐसे लीगों ने कृष्ण को पढ़ा और समझा ही नहीं। कृष्ण ने जो भी किया वह जग कल्याण और सबको जीवन का पाठ पढ़ाने हेतु किया। उनका जीवन इतना सरल नहीं। इसपर कभी अलग से चर्चा करूँगा। लब्बोलुआब यही की परम्परा के नाम पर अनैतिकता को बढ़ावा न दें। समय के अनुसार जैसे हर चीज बदलती है उसी प्रकार कुरीतियों, गलत परंपरा और कुप्रथाओं को बंद करने की जरूरत है। जब कोई परम्परा या वचन जग कल्याण में बाधक बन तो उसका त्याग कर देना चाहिए। वरना महाभारत एक बड़ा उदाहरण है कि भीष्म की प्रतिज्ञा और सिंहासन के प्रति वचनबद्धता ही उनके धर्म पालन बाधक बनी। उनके सामने द्रौपदी का चीर हरण होता रहा कुछ नहीं कर पाए। युधिष्ठिर का अति धर्मपालन ही दुख का कारण बना। परम्परा के नामपर द्यूत खेलने बैठा और अपनी पत्नी तक को दांव में हार गया। अपनी अति धर्मपरायणता के कारण सबको वनवास झेलना पड़ा। कृष्ण चाहते तो पलभर में सबकुक बदल सकते थे लेकिन उन्होंने पांडवों को उसके कर्म की सजा भोगने के लिए तबतक अकेला छोड़े रखा जबतक की उन्हें अपनी गलती का अहसास नहीं हुआ। कर्ण बहुत वीर और दानी था लेकिन उसने अपने स्वार्थपूर्ण मित्रता के पालन के लिए दुर्योधन जैसे अधर्मी का साथ दिया। जिसका दण्ड उसे मिला। इसी तरह गुरु द्रोण का भी वचनबद्धता के।कारण कौरवों के साथ नाश हुआ। महाभारत ने श्रीकृष्ण ने यही संदेश दिया कि अहंकार, गलत परंपरा और रुढ़िवादी सोच नाश का कारण बनती है। समय के साथ सबको बदलना पड़ता है अन्यथा आपका अंत होना निश्चित है।</div><div>पंकज प्रियम</div>पंकज प्रियमhttp://www.blogger.com/profile/04382565066454841529noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-31204924517520360872023-12-13T18:31:00.000-08:002023-12-13T18:31:44.510-08:00बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भटट ने योजनाओं के लाभार्थियों को सम्मानित किया<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/bjp-state-president-honours-beneficiaries-of-welfare-schemes/">बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भटट ने योजनाओं के लाभार्थियों को सम्मानित किया</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-77125971299315109002023-12-13T18:21:00.000-08:002023-12-13T18:21:12.516-08:00भातिसीपु वल के जवानों ने छात्र छात्राओं के साथ रैली निकाल कर स्वच्छता के प्रति जागरूक किया<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/itbp-jawans-took-out-rally-for-sanitation-awareness/">भातिसीपु वल के जवानों ने छात्र छात्राओं के साथ रैली निकाल कर स्वच्छता के प्रति जागरूक किया</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-18678611504976604132023-11-30T03:47:00.000-08:002023-11-30T03:47:17.537-08:00पिंडर पर लकड़ी का पुल बनाते समय नदी में गिरने से पूर्व फ़ौजी की मौत ; 2013 की आपदा की यादें फिर हुयीं ताजा<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/ex-serviceman-killed-while-making-wooden-bridge-over-pindar/">पिंडर पर लकड़ी का पुल बनाते समय नदी में गिरने से पूर्व फ़ौजी की मौत ; 2013 की आपदा की यादें फिर हुयीं ताजा</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-41028706088019704192023-11-30T01:35:00.000-08:002023-11-30T01:35:32.202-08:00राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी ( NDA) के 145वें कोर्स की पासिंग आउट परेड की समीक्षा की<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/president-of-india-reviews-passing-out-parade-of-145th-course-of-national-defence-academy/">राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी ( NDA) के 145वें कोर्स की पासिंग आउट परेड की समीक्षा की</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-41978423314980978452023-11-30T01:34:00.000-08:002023-11-30T01:34:40.826-08:00राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी ( NDA) के 145वें कोर्स की पासिंग आउट परेड की समीक्षा की<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/president-of-india-reviews-passing-out-parade-of-145th-course-of-national-defence-academy/">राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी ( NDA) के 145वें कोर्स की पासिंग आउट परेड की समीक्षा की</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-63363117321131245132023-11-29T22:26:00.000-08:002023-11-29T22:26:46.290-08:00यहां से पीछे की तरफ देखना.....<p> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; text-align: justify;">जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं तो एक भारतीय औसतन जितनी ज़िंदगी जीता है उससे काफी ज़्यादा जी चुका हूं. कितना रोचक और रोमांचक है यहां तक पहुंच कर पहुंचकर अपनी जीवन यात्रा के प्रारम्भ की कल्पना करना</span><span style="font-family: Mangal, serif; text-align: justify;">, <span lang="HI">उसके बारे में सोचना और अपनी स्मृति को खींच-खांचकर जहां तक वह पहुंच सकती</span> <span lang="HI">हो वहां तक ले जाना!</span> <span lang="HI">मुझे हरिवंश राय बच्चन का एक गीत बहुत पसंद है –</span> “<i><span lang="HI">जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं....</span>”</i> <span lang="HI">गीत पसंद क्यों है</span>, <span lang="HI">नहीं बता सकता. मेरा अपना जीवन तो कोई ख़ास आपाधापी वाला नहीं रहा कि यह सोचने का वक़्त ही नहीं मिला हो कि</span> “<i><span lang="HI">जो किया</span>, <span lang="HI">कहा</span>, <span lang="HI">माना उसमें क्या बुरा भला!</span>”</i> <span lang="HI">जब मेरे जैसी ज़िंदगी जीने वाले लोग अपने संघर्षों की बात करके सहानुभूति बटोरने का उपक्रम करते हैं</span> <span lang="HI">तो मुझे आश्चर्य भी होता है</span>, <span lang="HI">हंसी भी आती है. सच तो यह है कि हम लोगों ने</span>, <span lang="HI">मुझ जैसे लोगों ने कोई संघर्ष किया ही नहीं. जो कुछ हमारी ज़िंदगी में रहा</span>, <span lang="HI">उसे संघर्ष कहना</span> ‘<span lang="HI">संघर्ष</span>’ <span lang="HI">का अपमान करना होगा. बेशक हम लोग मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए</span>, <span lang="HI">बेशक हमारी ज़िंदगी में इफ़रात नहीं थी लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हमें पत्थर तोड़ने पड़े हों या दो-चार दिन भूखे रहना पड़ा हो.</span> </span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">वैसे मुझे अपनी ही बात करनी चाहिए</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">अपने जैसों की नहीं. किन्हीं दो लोगों की ज़िंदगी यकसां नहीं होती है. इसलिए मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं औरों की ज़िंदगी के बारे में यह कहूं कि उसमें संघर्ष था या नहीं था. मैं केवल और केवल अपनी बात कर रहा हूं. आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि ज़्यादा से ज़्यादा कितना पीछे देख सकता हूं तो ख़ुद मुझे बहुत आश्चर्य होता है. इसलिए आश्चर्य होता है कि मेरे पास अपने बचपन की कोई स्मृति है ही नहीं. पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश करता हूं तो कुछ भी नज़र नहीं आता है. क्या सभी के साथ ऐसा होता है</span>? <span lang="HI">आप भी सोच कर देखें कि उम्र के छह सात दशक जी लेने के बाद आप कितना पीछे तक देख सकते हैं! जब मैं अपने अतीत को विश्लेषित करके इस बात के लिए कोई तर्क जुटाने का प्रयास करता हूं तो मुझे एक ही बात समझ में आती</span> <span lang="HI">है और वह यह कि मेरे बचपन की कोई स्मृति ऐसी नहीं है जो बहुत सुखद हो</span>, <span lang="HI">या जो बहुत कड़वी और त्रासद हो. इसलिए मुझे कुछ भी याद नहीं है.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">मेरे पिता उस सोच वाली पीढ़ी के थे जिसका अपने बच्चों से कोई संवाद नहीं होता था. वे मात्र पिता होते थे</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">जिनसे डरा जा सकता है. मैं भी डरता था. पिता से ही नहीं</span>, <span lang="HI">मां से भी. घर में और तो कोई था ही नहीं. माता और पिता की उम्र में बहुत अंतर</span>, <span lang="HI">और मैं उनकी आखिरी संतान. वैसे भी वह ज़माना बच्चों और मां-बाप के बीच दोस्ती और संवाद</span> <span lang="HI">का नहीं था. पिता बीमार रहने लगे थे. शायद</span> <span lang="HI">दमा था उन्हें. घर की अर्थ व्यवस्था डगमगाने लगी थी. तब तक विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवा लेने का चलन शुरु नहीं हुआ था</span>, <span lang="HI">या शायद हम उस वर्ग के नहीं थे जो ये सेवाएं लिया करते हैं. मुझे इतना ही याद है कि मेरे पिताजी का इलाज़ या तो हमारे उसी मोहल्ले के माजी की बावड़ी के सामने स्थित</span> <span lang="HI">गणपत लाल जी कम्पाउण्डर के दवाखाने से होता था या फिर थोड़ा आगे घंटाघर के पास स्थित डॉ करतार सिंह के शफाखाने से. करतार सिंह सम्भवत: आरएमपी</span> (RMP) <span lang="HI">थे. मुझे प्राय: इनके यहां दवा लेने भेजा जाता था. कभी कभार ज़रूरत पड़ने पर इनमें से किसी को घर भी बुलाया जाता था और तब मेरी ड्यूटी होती थी</span> ‘<span lang="HI">डॉक्टर साहब</span>’ <span lang="HI">के बैग को उठाकर लाने की. डॉक्टर साहब का बैग करीब-करीब वैसा होता था जैसा बाद में वैनिटी बॉक्स होने लगा. अब तो वह भी फैशन से बाहर हो चुका है.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">पिता जी के</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;"> <span lang="HI">मन में मुझे लेकर खूब सारे सपने थे. यह कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तब हमारी दुकान का भी खूब विस्तार हो जाएगा और मैं उसे सम्हालूंगा. मज़े की बात यह कि उन सपनों में</span>, <span lang="HI">जो मेरे आठ-दस बरस का होने तक देखे जाते थे</span>, <span lang="HI">मेरी पत्नी भी होती थी</span>, <span lang="HI">जो उस दुकान की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती थी. इसके बाद तो पिताजी की बीमारी बढ़ती गई और सपने देखने की स्थितियां नहीं रहीं.</span> <span lang="HI">मुझे यह बात याद है कि हमारी दुकान पर ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स भी बेची जाती थी. वह </span>78 <span lang="HI">आरपीएम रिकॉर्ड्स का ज़माना था. ईपी</span>, <span lang="HI">एलपी वगैरह तब तक चलन में नहीं आई थी. कैसेट्स का ज़माना तो तब सोच से भी बाहर था.</span> <span lang="HI">और मेरे माता-पिता बड़े गर्व से इस बात का ज़िक्र आने जाने वालों के सामने किया करते थे कि उनका बेटा</span>, <span lang="HI">अर्थात मैं इतना प्रबुद्ध है कि</span> <span lang="HI">वह बिना पढ़ना आए भी महज़ लेबल देखकर मनचाही रिकॉर्ड खोज कर ला सकता है. पिताजी मुझे कभी-कभार रेल्वे स्टेशन पार्सल लेने भी भेजा करते थे. रेल्वे स्टेशन हमारे घर से कोई चारेक किलोमीटर दूर था और मैं किराये की साइकिल लेकर वहां जाता था. तब तक उदयपुर सिटी</span> <span lang="HI">रेल्वे स्टेशन नहीं बना था और उदयपुर में केवल एक रेल्वे स्टेशन था जिसे अब राणा प्रताप नगर नाम से जाना जाता है.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">बचपन में खेलने की</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">कोई शरारत करने की</span>, <span lang="HI">माता या पिता का लाड़ पाने की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. जहां तक मां-बाप द्वारा लाड़ किए जाने का सवाल है</span>, <span lang="HI">लाड़ तो वे करते ही होंगे. कोई कारण नहीं है कि उन्हें मुझ पर ममत्व न हो</span>, <span lang="HI">लेकिन जैसा मैंने कहा</span>, <span lang="HI">वो ज़माना स्नेह के प्रदर्शन करने का नहीं था</span>, <span lang="HI">और वे दोनों ही कठोर किस्म के व्यक्तित्व थे. इसलिए मुझे उन दोनों की कोमलता की कोई स्मृति नहीं है. पिता की जो अल्प स्मृतियां अब भी मुझे हैं उनमें एक तो यह है कि वे मुझे अपने साथ फोटो खिंचवाने ले गए हैं. पहले जहां पंचायती नोहरा था और बाद में जहां ओसवाल मार्केट बन गया उस जगह एक फोटोग्राफ़र उनका परिचित था</span>, <span lang="HI">उसके पास वे मुझे ले गए थे.</span> <span lang="HI">उस ज़माने में बड़े कैमरे हुआ करते थे</span>, <span lang="HI">जिसके पीछे एक बुरकानुमा लबादे में घुस कर फोटोग्राफ़र फोटो खींचता था. जिसका फोटो खींचा जा रहा है उसे और विशेष रूप से बच्चों को स्थिर रखने के लिए वह कहता था कि</span> "<span lang="HI">देखो</span>, <span lang="HI">अभी इस कैमरे में से चिड़िया निकलेगी</span>". <span lang="HI">तब का खिंचवाया हुआ फोटो अब भी मेरे</span> <span lang="HI">संग्रह में है. एक और स्मृति यह है कि वे मुझे बहुत महंगा कमीज़ का कपड़ा दिला कर लाये हैं. कपड़ा आज के क्रेप से मिलता-जुलता था. यह बात तो मुझे बहुत बार याद आती है कि जब भी मैं बीमार पड़ता मेरे पिता मुझसे पूछते कि मुझे क्या चाहिए</span>, <span lang="HI">और मैं हर बार बिस्किट की</span> <span lang="HI">मांग करता. तब वे जेबी मंघाराम का असोर्टेड बिस्किट का डिब्बा मेरे लिए मंगवाते.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">यह याद नहीं पड़ता कि कभी भी पिता ने मुझे अपने पास बैठकर खाना खिलाया हो. एक थाली में खाना खिलाना तो बहुत दूर की बात है. तब हमारी रसोई तीसरी मंज़िल पर छत के एक सिरे पर थी. वहां मां लकड़ी वाले चूल्हे पर खाना बनाती थी और पिताजी वहीं रसोई में ज़मीन पर बैठकर खाना खाते थे. पिताजी के मन में शालीन वेशभूषा की अलग परिकल्पना थी जो उनके समय के अनुरूप थी</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">लेकिन मैं उससे भिन्न अपने समय वाले कपड़े पहनना चाहता था. ऐसा करने में मेरी मां मेरा सहारा बनतीं.</span> <span lang="HI">वैसे तब तक हालत यह हो गई थी कि कपड़े ख़रीदने के अवसर कम ही आते थे.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">पिताजी की जो स्मृति मेरे जेह्न में अमिट है वह उनके आखिरी दिन की है. </span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">15 <span lang="HI">दिसम्बर </span>1959 <span lang="HI">का दिन था वह. मेरी उम्र </span>14 <span lang="HI">बरस. लेकिन या तो उस ज़माने के बच्चे आज की तुलना में कम समझदार होते थे या औरों की तुलना में मैं कम समझदार था</span>,<span lang="HI"> इसलिए बहुत ज़्यादा जानकारियां मुझे नहीं है. सुबह से पिताजी की तबीयत कुछ ज़्यादा खराब थी. खराब तो लम्बे समय से थी ही. शायद मां को यह एहसास हो गया था कि अब दिया बुझने को है. पिताजी कमरे में लेटे हुए हैं</span>, <span lang="HI">मां उनके पास है. वे एक सिगरेट मांगते हैं और मां मुझे नीचे हमारे घर के सामने गणेश लाल जिसे मुहल्ले की नाम बिगाड़ने की परम्परा के तहत <i>गुण्या</i> कहा जाता था</span>, <span lang="HI">की दुकान से सिगरेट लेने भेजती हैं. अपने पिता की सिगरेट पीते हुए कोई छवि मेरे मन पर अंकित नहीं है. सम्भव है कि वे नियमित स्मोकर न हो कर कभी कभार स्मोक कर लेते हों. लेकिन मेरे सामने उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया. यह पहला और अंतिम मौका था. और रोचक बात यह कि उनके लिए सिगरेट</span> <span lang="HI">लेने जाने की बात तो मुझे याद है लेकिन यह बात स्मृति में नहीं है कि मैंने सिगरेट लाकर किसको दी</span>? <span lang="HI">मां को या पिताजी को</span>? <span lang="HI">फिर उन्होंने पी या नहीं.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">इसके बाद स्मृति एक छोटी-सी छलांग लगाती है. पिता आखिरी सांस ले चुके हैं. सुबह दस बजे के आस-पास का समय है. मां गज़ब का धैर्य दिखाती हैं. मुझे वे कहती हैं कि अभी रोना मत</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">वरना मोहल्ले वालों को पता लग जाएगा. और इसके बाद वे जिस धैर्य और हिम्मत से सब कुछ व्यवस्थित करने में जुटती है उसे याद कर आश्चर्य होता है. अनुमान</span> <span lang="HI">लगाता हूं कि तब मेरे पिता की उम्र </span>75 <span lang="HI">के आस पास और मां की उम्र चालीस के आस-पास रही होगी. सब कुछ ठीक कर वे मेरे भाई साहब अमरनाथ जी को ख़बर भिजवाती हैं</span>, <span lang="HI">और वे तुरंत आकर सारी व्यवस्थाएं करने में जुट जाते हैं. अमरनाथ जी से मेरे माता-पिता के रिश्ते बहुत अजीब रहे. मेरे पिता ही उन्हें हिसार से उदयपुर लाए</span>, <span lang="HI">उन्हें अपने पास रखा</span>, <span lang="HI">घड़ीसाज़ी का काम सिखाया</span>, <span lang="HI">उनकी शादी की. और उसके बाद जाने क्या हुआ कि बोलचाल का रिश्ता भी नहीं रहा. न कभी मेरे पिता ने और न ही कभी मां ने खुलकर इस पर प्रकाश डाला. मैंने पिता के निधन तक उनके और हमारे परिवार में कोई सम्वाद नहीं देखा. पिता के जाने के बाद भी मां के रिश्ते उनके साथ ऊबड़- खाबड़ ही रहे. और यह तब जबकि मेरी मां के मन में भाई साहब के प्रति और भाई साहब के मन में अपनी मामीजी अर्थात</span> <span lang="HI">मेरी मां के प्रति अगाध प्रेम था. इसे रिश्तों की द्वंद्वात्मकता कहा जा सकता है. यह बात बहुत मार्मिक है कि रिश्तों में पड़ी दरार के बावज़ूद भाई साहब ने मेरे पिता और बाद में मां के अंतिम संस्कार व सम्बद्ध</span> <span lang="HI">रस्मों के निर्वहन में सर्वाधिक सक्रिय भूमिका अदा की.</span> <span lang="HI">पिता और मां के न रहने के बाद मेरे तो उनसे और भाभी से रिश्ते बहुत ही जीवंत और सघन रहे. आज जब वे और भाभी दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तब भी उनकी अगली पीढ़ी से हमारे रिश्ते बहुत ही मज़बूत हैं.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">भाई साहब के निर्देशानुसार मैंने पिताजी के अंतिम</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;"> <span lang="HI">संस्कार की सारी रस्में पूरी कीं. बाद में उनकी अस्थियां लेकर हरिद्वार भी गया. ठीक से याद नहीं लेकिन शायद मेरी मां भी साथ गईं. यह पिताजी के निधन के कुछ समय बाद की बात है. मेरे पिता के निधन पर शोक व्यक्त करने ग़ाज़ियाबाद से मेरी मौसी और उनके साथ नानी भी आईं. इन दोनों को भी मैंने पहली दफा देखा. मेरे पिता और माता के स्वभाव में जो उग्रता</span>, <span lang="HI">आक्रामकता और अक्खड़पन था उसी का यह परिणाम था कि ज़िंदगी के शुरुआती चौदह बरसों में मैंने अपनी मौसी और नानी को देखा ही नहीं.</span> <span lang="HI">मेरे नानाजी काफी पहले दिवंगत हो चुके थे. मां के परिवार में बस ये ही दो सदस्य थे. लेकिन इसके बावज़ूद इनमें कोई रिश्ता इतने बरस तक नहीं था. मौसी जी का वैवाहिक जीवन उतार-चढ़ावों भरा रहा. जब पिता का निधन हुआ तब वे ग़ाज़ियाबाद में अपने रुग्ण पति और उनकी तीन संतानों के साथ रहती थीं.</span> ‘<span lang="HI">उनकी संतानें</span>’ <span lang="HI">इसलिए कि मौसी जी इनकी दूसरी पत्नी थीं. कुछ समय बाद इन मौसाजी का भी निधन हो गया और संक्षेप में मात्र इतना कि जो सम्पत्ति मौसा जी मौसी जी के नाम कर गए थे उसे हथियाने के बाद उनके तीनों बच्चों ने मौसीजी को घर से निकाल दिया. तब उन्हें शरण मिली मेरी मां के पास. फिर मौसी जी मेरी मां की मृत्यु के बाद भी</span>, <span lang="HI">अपने अंतिम समय तक हमारे साथ रहीं.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">जिस ज़माने में मेरे पिता का निधन हुआ उस ज़माने में उदयपुर में और विशेष रूप से हमारे समाज और मोहल्ले में यह प्रथा थी कि जिस स्त्री के पति का निधन हो जाए उसे पूरे एक साल तक एक ही कमरे में कोने में बैठे रहना होता था. स्थानीय बोली में इसे <i>खूणे बैठना</i></span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;"> <span lang="HI">कहा जाता था.</span> <span lang="HI">स्वाभाविक है कि मेरी मां को भी इस</span> <span lang="HI">रीत का पालन करना पड़ा. लेकिन आज उनके साहस को याद कर नतशिर होता हूं कि उस पारंपरिक</span>, <span lang="HI">बल्कि कहें कि घोर रूढ़िवादी परिवेश में भी उन्होंने इस रीत को बहुत जल्दी अंगूठा दिखा दिया. यह उनका साहस तो था ही</span>, <span lang="HI">मज़बूरी भी थी. अगर वे बारह महीने इस तरह कोने में बैठी रहतीं तो ज़िंदगी की गाड़ी कैसे चलती</span>? <span lang="HI">कोई भी तो संबल नहीं था हमारे पास. मात्र दो-तीन माह <i>खूणे बैठने</i> के बाद मेरी मां दुकान सम्हालने लगीं. हम लोग तब जिस किराये के घर में रहते थे उसमें नीचे हमारी दुकान थी और ऊपर आवास. दुकान की बगल में</span> <span lang="HI">सीढ़ियां थीं. उन्हीं सीढ़ियों से बिना धरातल पर गए भी दुकान में जाया जा सकता था. मेरी मां वहीं सीढ़ियों पर बैठकर मुझे निर्देशित करतीं और मेरा ध्यान भी रखतीं. वैसे उस दुकान में ज़्यादा कोई व्यावसायिक संभावनाएं नहीं थीं. माल हो तो ग्राहक आएं. माल मंगवाने के पैसे नहीं. फिर भी मां उस दुकान को चलाती रहीं. एक तो इस आस में कि जो थोड़ा बहुत माल बिकेगा उससे कुछ पैसे आएंगे</span>, <span lang="HI">और दूसरे</span>, <span lang="HI">इससे बड़ी बात यह कि दुकान रहेगी तो उनके पति का नाम भी रहेगा.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">अपने पति के नाम वाली दुकान को लेकर उनका मोह और अभिमान बहुत गहरा था. और इसे एक विडंबना ही कहूंगा कि मैं उनके इस भाव की रक्षा नहीं कर सका. कोई योजना नहीं थी</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">लेकिन नियति मुझे व्यापार की दुनिया से निकाल कर नौकरी की दुनिया में ले गई और इसकी परिणति अंतत: उस दुकान के बंद होने में हुई. शायद इस बात ने मेरी मां को बहुत आहत किया होगा.</span> <span lang="HI">उन्होंने कभी खुलकर कहा नहीं लेकिन अब मैं उनकी मन:स्थिति का अनुमान लगा</span> <span lang="HI">सकता हूं. उनके आहत मन की ही शायद यह परिणति भी हुई कि बावज़ूद इसके कि मैं उनकी इकलौती संतान था</span>, <span lang="HI">वे मेरे प्रति कभी भी बहुत ममतालु नहीं रहीं. लड़ना झगड़ना मेरे स्वभाव में नहीं है</span>, <span lang="HI">लेकिन उन्होंने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी. रूठतीं</span>, <span lang="HI">गुस्सा करतीं</span>, <span lang="HI">भला-बुरा कहतीं</span>, <span lang="HI">ज़माने भर से बुराई करतीं. लेकिन थी तो मां ही.</span> <span lang="HI">उन्होंने और फिर उनके साथ और बाद में हमारी मौसी ने हमारी ज़िंदगी को जितना कष्टप्रद बनाया</span>, <span lang="HI">उसे याद कर मन आज भी बहुत दुखी होता है. मेरी मां बहुत ज़िद्दी</span>, <span lang="HI">निर्मम और जटिल व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं. वे स्वयं भी खुद को कट्टर कहती थीं और अपनी मां</span>, <span lang="HI">अपनी बहन के साथ रिश्तों में उन्होंने इस बात को साबित भी किया था. लेकिन बाद में यही कट्टरता उन्होंने मेरे और पत्नी के साथ भी बरती. मुझे एक भी याद ऐसी नहीं है जिसमें हमारे प्रति उनका उन्मुक्त प्रेम प्रकट होता हो. अलबत्ता हमारे दोनों बच्चों के साथ उनका बहुत गहरा लगाव रहा.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">अब बहुत आगे जाकर जब पीछे मुड़कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि मेरे से उनके प्रति व्यवहार में कहां कोई चूक हुई</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">तो मुझे कुछ भी नहीं मिलता है. अपनी तरफ से मैंने उन्हें सम्मान देने और उनके प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करने में कोई कृपणता नहीं की. लेकिन वे असंतुष्ट ही रहीं. बाद के वर्षों में उनकी चिंता का केंद्र अपनी बहन अर्थात मेरी मौसी हो गईं और हालांकि मैं उन्हें बहुत बार यह विश्वास दिलाता रहा कि उनके जाने के बाद भी मौसी हमारे साथ हमारे परिवार के सदस्य की हैसियत से ही रहेगी</span>, <span lang="HI">वे कभी आश्वस्त नहीं हुईं. मौसी के भविष्य को लेकर मेरे</span>, <span lang="HI">बल्कि हमारे प्रति जाने क्यों एक गहरा अविश्वास का भाव उनके मन में रहा</span>, <span lang="HI">और उन्होंने इसे खुलकर अभिव्यक्त भी</span> <span lang="HI">किया.</span> <span lang="HI">मां</span>, <span lang="HI">जितनी जटिल और निर्मम थीं</span>, <span lang="HI">मौसी उनकी तुलना में बहुत सौम्य</span>, <span lang="HI">स्नेहिल और सीधी थीं. लेकिन उनका भोलापन उनकी सबसे बड़ी सीमा था. किसी ने कुछ कह दिया</span>, <span lang="HI">बल्कि नहीं भी कहा लेकिन उन्होंने जैसा समझ लिया वही उनके लिए अंतिम होता था. हमारी भरपूर सेवा के बावज़ूद वे भी कभी हमसे प्रसन्न नहीं रही. इन दोनों के व्यवहार को जितना मैंने सहा</span>, <span lang="HI">उससे बहुत ज़्यादा मेरी पत्नी ने सहा. लेकिन अब यह सब अतीत है. भुला</span> <span lang="HI">देने काबिल अतीत</span>. <i><span lang="HI">जो बीत गई सो बात गई</span></i>! <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">फिर थोड़ा पीछे लौटता हूं. मैं दुकान पर बैठने लगा</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">और साथ-साथ पढ़ाई भी ज़ारी रही. उस साल दसवीं की परीक्षा दी</span>, <span lang="HI">पास हुआ. और ज़िंदगी की गाड़ी हिचकोले खाती चलती रही. इसी बीच भाई साहब की सलाह पर मेरी मां ने अपनी तमाम जमा पूंजी और गहने वगैरह बेचकर तथा</span> <span lang="HI">कुछ कर्ज़ा लेकर उस किराये के मकान को खरीद लिया. तब वो मकान ग्यारह हज़ार रुपये में खरीदा गया. असल में उसे खरीदने की बात तो मेरे पिताजी ने पक्की कर ली थी लेकिन</span> <span lang="HI">किस्मत को शायद यह मंज़ूर नहीं था कि अपने जीते जी वे अपना मकान देख सकते. भाई साहब का सोच यह था कि सर पर अपनी छत हो तो जीवन सुरक्षित रहता है. इन मामलों में वे बहुत व्यावहारिक थे</span>, <span lang="HI">मेरे पिता बिल्कुल भी नहीं थे. बाद में भाई साहब ने तो कम और भाभी ने कई बार यह ताने भी दिये कि मेरे पिता ने खूब कमाया और खूब उड़ाया. यह बात वे एक स्थानीय अभद्र</span> <span lang="HI">कहावत के माध्यम से कहतीं.</span> <span lang="HI">वैसे अपनी प्रारम्भिक ज़िंदगी में मैंने ताने बहुत सुने हैं. जब आपके पास कुछ नहीं हो तो लोग और कुछ दें न दें</span>, <span lang="HI">ताने देने में कोई कंजूसी नहीं करते हैं - यह बात</span> <span lang="HI">मुझे उस छोटी उम्र में ही पता चल गई थी.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">उस ज़माने में हमारा घर कैसे चलता होगा</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">हम क्या खाते-पीते होंगे</span>, <span lang="HI">इन सब बातों की सहज ही कल्पना की जा सकती है. जब आपके पास न तो जमा पूंजी हो और न आय का कोई साधन तो ज़िंदगी कैसी हो सकती है</span>? <span lang="HI">वैसी ही थी हमारी ज़िंदगी. बेरंग</span>, <span lang="HI">बेनूर</span>, <span lang="HI">बेस्वाद. कोई राह नहीं. कोई रोशनी की किरण नहीं और फिर भी चले जा रहे थे. जाने कहां</span>? <span lang="HI">शायद</span> <span lang="HI">मां सोचती होंगी कि बेटा थोड़ा बड़ा हो जाएगा</span>, <span lang="HI">घड़ीसाज़ी सीख जाएगा तो दुकान फिर से चलने लगेगी. उसी क्रम में मैंने भाई साहब की दुकान पर जाकर घड़ीसाज़ी सीखना शुरु भी कर दिया था. जो काम भाई साहब ने मेरे पिताजी से सीखा था वही काम वे मुझे सिखा रहे थे. मैं कॉलेज भी जाता और वहां से जो समय बचता उसमें घड़ीसाज़ी सीखता. मां खुलकर दुकान पर बैठने लगीं. उस ज़माने के उदयपुर में यह कितने बड़े साहस और क्रांतिकारिता की बात थी</span>, <span lang="HI">कल्पना की जा सकती है. मां में बात करने का और सुनने वाले पर अपना रौब ग़ालिब करने का कौशल था. भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं</span>, <span lang="HI">जीवन के अनुभव और सुन सुनकर अर्जित किए गए ज्ञान की उनके पास कोई कमी नहीं थी.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">मैं भी थोड़ी बहुत घड़ीसाज़ी करने लगा था</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">जिससे हमारा जीवन थोड़ा-सा</span>, <span lang="HI">बहुत थोड़ा-सा सहज हो रहा था. लेकिन इसी घड़ीसाज़ी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी. कैसे</span>, <span lang="HI">यह जानने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा.</span> <span lang="HI">इस बात को आगे विस्तार से लिखूंगा. अभी केवल यह विडम्बना व्यक्त कर दूं कि मां ने मुझे घड़ीसाज़ी सीखने की दिशा में इसलिए अग्रसर किया था कि मैं उनके पति के नाम वाली दुकान को ज़िंदा रखूंगा</span>, <span lang="HI">और कम्बख़्त इसी घड़ीसाज़ी ने मुझे जिस राह पर ले जाकर खड़ा कर दिया उस राह पर चलने की परिणति इस दुकान के बंद होने में हुई. क्या इसी को दवा का ज़हर हो जाना कहेंगे</span>? <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">मैंने अपनी बात की शुरुआत स्मृतियों के अभाव से की थी. बचपन की और किशोरावस्था की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. क्यों नहीं है</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">यह बात कुछ हद तक शायद स्पष्ट हुई हो. न हुई हो तो उसे स्पष्ट करने का कोई तरीका मुझे सूझ भी नहीं रहा. जैसे तैसे गर्दिश के ये दिन बीते</span>, <span lang="HI">मेरे जीवन की गाड़ी ऊबड़ खाबड़ पथरीली सड़क से हटकर एक समतल सड़क पर आ गई. यह हुआ </span>1967 <span lang="HI">में मेरे नौकरी लगने से. घर में लिखने-पढ़ने की कोई परंपरा नहीं और मैं बन गया कॉलेज लेक्चरर. ज़िंदगी में अजूबे भी तो घटते हैं. यह भी एक अजूबा</span> <span lang="HI">था. इसलिए भी था कि मेरी मां की योजना में मेरा नौकरी करना तो कहीं था ही नहीं. और मेरी अपनी योजना</span>? <span lang="HI">वह कहावत तो सुनी है न - <i>बेगर्स काण्ट बी चूजर्स</i></span>! <span lang="HI">फिर बच्चन जी के उसी गीत को याद करूं. वे लिखते हैं</span>, "<i><span lang="HI">फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा/ मैंने भी बहना शुरु किया उस रेले में.</span>"</i> <span lang="HI">अब लगता है कि हिंदी में एम.ए. करना</span>, <span lang="HI">लेक्चरर</span> <span lang="HI">के पद के लिए आवेदन करना</span>, <span lang="HI">नौकरी मिलने पर नौकरी जॉइन कर लेना - ये सब धक्के में ही तो हुआ. सोचा-समझा तो कुछ भी नहीं.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">जब नौकरी लगी तो दो वक़्त की रोटी की फिक्र मिटी. उस समय मेरी तनख़्वाह थी कुल तीन सौ पिच्चानवे रुपये. दो सौ पिच्चासी रुपये मूल वेतन और उस पर एक सौ दस रुपये महंगाई भत्ता. जैसे ही हर माह इतने रुपये मिलने की आश्वस्ति हुई</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">लगा कि <i>आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं</i></span><i> <span lang="HI">पे हम</span></i>. <span lang="HI">उस वक़्त इतनी बड़ी धन राशि हर माह मिलने का जो सुख था आज उसे बयान नहीं कर सकता. हालांकि यह तनख़्वाह भी निर्बाध रूप से कहां मिलती थी. उस ज़माने में महालेखाकार कार्यालय से पे स्लिप आती थी</span>, <span lang="HI">फिर हम बिल बनाते थे जिसे कोष कार्यालय पास करता था. इस तरह तीन-चार महीने में एक बार तनख़्वाह मिल पाती थी. लेकिन आश्वस्ति तो थी. मेरी पहली नौकरी भीनमाल नामक एक छोटे-से कस्बे में लगी</span>, <span lang="HI">मैं पहली बार घर से बाहर निकला. तब सब कुछ कैसे किया होगा</span>, <span lang="HI">यह सोचकर आश्चर्य होता है. जब तनख़्वाह</span> <span lang="HI">मिली तो अपने खर्च भर का पैसा रखकर शेष सब मां को दे दिया. आखिर हमें इस बीच समय-समय पर लिया गया कर्ज़ भी तो चुकाना था.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">यह एक यथार्थ है कि नौकरी लग जाने के बाद</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">बहुत लम्बे समय तक मैं आर्थिक रूप से ऐसी स्थिति में नहीं आ सका जिसे सुखद कहा जा सकता हो. बीस तारीख</span> <span lang="HI">के बाद पहली तारीख का इंतज़ार शुरु हो जाता. करीब-करीब पूरे नौकरी काल में यही हाल रहा. नौकरी के शुरुआती बरसों में हर माह मां-मौसी के लिए एक निर्धारित राशि भेजता. पहले मनीऑर्डर से और बाद में बीमाकृत लिफाफे में करेंसी नोट रखकर. यह करना वैध नहीं था इसलिए डाक खाने का बाबू हर बार उस बीमाकृत लिफाफे पर एक इबारत लिखवाता -</span> "<span lang="HI">इस लिफाफे में मूल्यवान दस्तावेज़ हैं.</span>" <span lang="HI">इस सबके बीच मेरा विवाह हुआ. उसका खर्चा भी इसी छोटी-सी तनख़्वाह से समायोजित हुआ. मेरी ज़िद थी कि मेरे ससुराल से कोई दहेज़ नहीं मांगा जाएगा</span>, <span lang="HI">जबकि मेरी मां और मौसी के सपने भिन्न थे. उन्होंने अपने छल छद्म का कौशल भी दिखाया</span>, <span lang="HI">जिसे लेकर जब मुझे इसकी जानकारी मिली तो उनके और मेरे बीच बदमज़गी भी हुई. वैसे भी मेरे ससुर जी के आर्थिक स्रोत्र बहुत सीमित थे और परिवार बड़ा.</span> <span lang="HI">विवाह के अलावा</span>, <span lang="HI">मां की मांग पर उदयपुर के घर में यथावश्यकता छोटी-मोटी रिपेयरिंग भी करवाता रहा. एक बार इस काम के</span> <span lang="HI">लिए सरकार से कर्ज़ा भी लिया.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">यह तो ठीक है कि मेरे दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में और बाद में सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़े इसलिए उनकी पढ़ाई का कोई बड़ा</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;"> <span lang="HI">बोझ मुझे नहीं उठाना पड़ा</span>, <span lang="HI">लेकिन खर्चे तो होते ही थे. जब आजकल के बच्चों के पढ़ाई वगैरह के खर्चे देखता हूं तो बार-बार यह विचार आता है कि अगर ऐसा ही मेरे ज़माने में होता तो मैं अपने बच्चों को पढ़ा ही नहीं सकता था. और बच्चे तो बाद की बात हैं</span>, <span lang="HI">मैं ख़ुद भी नहीं पढ़ सकता था. आज जब एक ख़ास राजनीतिक विचारधारा वाले लोग सरकार द्वारा दी जाने वाली तथाकथित मुफ्त सुविधाओं की आलोचना करते हैं तो यह बात मुझे और भी ज़्यादा याद आती है. लेकिन वे इस बात</span> <span lang="HI">को नहीं समझ सकते. उन्हें तो अपने दल के हित में सरकार का विरोध करना है. जब बच्चे</span>, <span lang="HI">एक के बाद दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिल हुए तो उनके रहने खाने का खर्च भी मेरी तनख़्वाह के अनुपात में ठीक-ठाक ही होता था. मेरे पास कभी इतने पैसे नहीं हुए कि बच्चों के पास एकाध महीने की अतिरिक्त राशि जमा रहे. हर माह मैं उन्हें पैसे भेजता और वे मेरे पैसों का इंतज़ार करते. इसके बावज़ूद</span> <span lang="HI">हमारे दोनों बच्चों ने कभी भी हमें अपनी आवश्यकताओं के लिए दबाव में नहीं आने दिया. कभी कोई मांग उन्होंने नहीं की और मेरी आर्थिक हैसियत के अनुरूप बहुत सादगी से अपनी पढ़ाई पूरी कर ली. सच तो यह है कि आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो इस बात का अफसोस ही होता है मैं अपने बच्चों को बहुत खुशनुमा ज़िंदगी नहीं दे सका. लेकिन इसके बावज़ूद आज दोनों ही बच्चे जहां हैं और जिस हैसियत में है उससे किसी को भी</span>, <span lang="HI">ज़ोर देकर कह रहा हूं</span>, <span lang="HI">किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है. इतना ज़रूर कहूंगा कि आज जहां वे हैं वह सब उनकी अपनी मेहनत का फल है. उसका श्रेय मुझे नहीं मिलना चाहिए.</span> <span lang="HI">और इतना ही नहीं उनके मन में कहीं दूर-दूर तक यह मलाल भी नहीं है कि हमने बचपन में उनकी इच्छाओं को बड़ा आकाश नहीं दिया. उलटे वे इस बात के लिए लालायित रहते हैं कि कैसे जीवन का सर्वश्रेष्ठ हमें उपलब्ध करा दें!</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">जब अपने जीवन की इस स्मृति विहीनता की बात कर रहा हूं और उन स्थितियों का विश्लेषण कर रहा हूं जिनमें मेरे जीवन ने आकार लिया तो अनायास ही इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा है कि कैसे बिना किसी योजना के मेरे जीवन की राह बदल गई</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">और कैसे मुझे जीवन में वह सब मिलता गया जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. भले ही मेरी मां ने मुझे इस बात के लिए माफ़ नहीं किया कि मैंने उनके पति का नाम विलुप्त कर दिया</span>, <span lang="HI">आज मैं गर्व कर सकता हूं कि मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया वह भी मेरे पिता के</span> <span lang="HI">नाम से अधिक न भी हो तो उससे कम भी नहीं है. जब बहुत सारे लोगों के जीवन संघर्ष के बारे में पढ़ता हूं तो इस बात पर ध्यान जाए बग़ैर नहीं रहता है कि मेरे जैसी पृष्ठभूमि वाले किसी युवा का कॉलेज शिक्षक बन जाना भी मामूली बात नहीं है. हिंदी के बहुत सारे बड़े लेखकों को तो आज तक यह अफसोस है कि वे कॉलेज प्राध्यापक नहीं बन सके. मैं न केवल प्राध्यापक बना</span>, <span lang="HI">साढ़े तीन दशक पढ़ाता रहा. अध्यापक भी मैं ठीक ही रहा. समय-समय पर</span>, <span lang="HI">बल्कि समय से पहले</span>, <span lang="HI">योग्यता की वजह से आउट ऑफ टर्न</span>, <span lang="HI">मेरी पदोन्नति भी हुई और अपनी नौकरी में वहां तक पहुंचा जहां पहुंचने का बहुत लोग सपना भी नहीं देखते हैं. नौकरी के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी अपने लिए थोड़ी-सी जगह बनाई</span>, <span lang="HI">यह अतिरिक्त उपलब्धि है.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">पारिवारिक रूप से भी मेरी यात्रा बहुत अच्छी रही. कहां तो मेरे मां-बाप जो रिश्ते थे उनका भी निर्वाह नहीं कर सके</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">, <span lang="HI">और कहां उन्हीं की वंश बेल को आगे बढ़ाता मैं दोनों तरफ के भरे-पूरे परिवारों से बहुत अच्छी तरह जुड़ा हुआ हूं. गर्व से कह सकता हूं कि मेरे और पत्नी के परिवारों में बिना किसी अपवाद के सभी से हमारे रिश्ते बहुत आत्मीयता और सद्भाव के हैं. निश्चय ही इसमें मुझसे अधिक योगदान मेरी पत्नी का है. अगर अवसर आया तो इस बात की चर्चा मैं आगे करने का प्रयास करूंगा कि किस तरह हम दोनों अपने पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता और ऊष्मा बनाए रख सके हैं.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">एक सामान्य मध्यम वर्गीय भारतीय के लिए बहुत बड़ा सपना होता है कि वह जीवन में एक बार हवाई जहाज में बैठे और विदेश यात्रा कर आए. मेरा भी सपना था. अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती बरसों में एक बार कोटा से जोधपुर की किफायती हवाई यात्रा करके मैं अपने भाग्य पर बरसों इतराता रहा था. कितना टिकट था इस यात्रा का</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">? <span lang="HI">पूरे पैंतीस रुपये! लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध में</span> <span lang="HI">बच्चों के कारण हमारी ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ लिया</span> <span lang="HI">अब हमने गिनना बंद कर दिया है कि कितनी बार विदेश गये हैं और किन-किन देशों की यात्राएं की हैं. पहले बेटी दामाद ने अमरीका में अपना घर बनवाया</span>, <span lang="HI">और फिर बेटा बहू ने ऑस्ट्रेलिया में खूब बड़ा घर खरीदा. बेटा-बहू ने अपने नए खरीदे घर का औपचारिक गृह प्रवेश हमारे वहां जाने तक स्थगित रखा और फिर जब हम वहां जा सके तब हमसे ही अपने नए खरीदे बहुत विशाल घर के गृह प्रवेश की सारी रस्में संपन्न करवाईं. यह हमारे लिए बहुत बड़े गर्व की बात थी.</span> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">ज़िंदगी में और क्या चाहिए</span><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">? <span lang="HI">हमने अपनी ज़िंदगी करीब-करीब पूरी जी ली है. आज हर तरह का सुख और संतोष हमें है. दोनों बच्चे</span>, <span lang="HI">और उनके जीवन साथी हमारा खूब ध्यान रखते हैं. उनके बच्चे अपने दादा-दादी और नाना-नानी से खूब घुले मिले हैं. बस</span>, <span lang="HI">एक ही फर्क़ आया है बीते कल और आज में. हमने भी अपनी क्षमता भर अपनी मां-मौसी की सेवा की. इस बात को हमारे बच्चों ने भी देखा है. लेकिन सब कुछ करके भी हम उन्हें संतुष्ट नहीं रख पाये. फर्क़ यह है कि आज हमारे बच्चे हमारे लिए जितना और जो करते हैं उससे हम अत्यधिक संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं. और जब जीवन में इतना सब कुछ हासिल है तो फिर इस बात को भूल क्यों नहीं जाना चाहिए कि हमारी ज़िंदगी के शुरुआती बरस किस तरह बीते हैं!</span> <span lang="HI">जैसे और बहुत सारी बातों की स्मृति हमें नहीं है</span>, <span lang="HI">इन कष्टों की स्मृति भी क्यों हो</span>? <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;">●●●<span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;"> <o:p></o:p></span></p><p style="margin-bottom: 10.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 0in; margin: 0in 0in 10pt; text-align: justify;"><span style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;">बनास जन (अंक 64) में प्रकाशित</span></p>डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/04367258649357240171noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-78651423171797745552023-11-29T21:18:00.000-08:002023-11-29T21:18:00.639-08:00मणिपुर का सबसे बड़ा अलगाववादी संगठन हथियार छोड़ कर शांति के मार्ग पर लौटा ,सरकार से किया समझौता<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/manipurs-largest-separatist-organization-gives-up-arms-and-returns-to-the-path-of-peace-signs-agreement-with-government/">मणिपुर का सबसे बड़ा अलगाववादी संगठन हथियार छोड़ कर शांति के मार्ग पर लौटा ,सरकार से किया समझौता</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-67996575580089980822023-11-29T20:58:00.000-08:002023-11-29T20:58:06.375-08:00अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हिमाचल प्रदेश पुलिस के ऑर्केस्ट्रा 'हार्मनी' नेदर्शकों का मन मोहा<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/himachal-pradesh-police-orchestra-harmony-enthralls-the-audience-at-the-international-film-festival/">अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हिमाचल प्रदेश पुलिस के ऑर्केस्ट्रा 'हार्मनी' नेदर्शकों का मन मोहा</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-85613333161914671932023-11-29T20:49:00.000-08:002023-11-29T20:49:59.840-08:00अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हिमाचल प्रदेश पुलिस के ऑर्केस्ट्रा 'हार्मनी' नेदर्शकों का मन मोहा<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/himachal-pradesh-police-orchestra-harmony-enthralls-the-audience-at-the-international-film-festival/">अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हिमाचल प्रदेश पुलिस के ऑर्केस्ट्रा 'हार्मनी' नेदर्शकों का मन मोहा</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-14530795009770959422023-11-29T20:30:00.000-08:002023-11-29T20:30:39.551-08:00देश- विदेश के पर्यटक "रोप वे" की रोमांचक सवारी से वंचित रहेंगे इस बार<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/tourists-will-be-deprived-of-thrill-of-auli-ropeway-riding/">देश- विदेश के पर्यटक "रोप वे" की रोमांचक सवारी से वंचित रहेंगे इस बार</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-13172574726027256092023-11-25T20:33:00.000-08:002023-11-25T20:33:19.588-08:00हम लोगों का पंथ निरपेक्ष संविधान, हम सब का रखवाला<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/the-secular-constitution-of-our-people-is-the-guardian-of-all-of-us/">हम लोगों का पंथ निरपेक्ष संविधान, हम सब का रखवाला</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-39188052491723952742023-07-06T21:32:00.000-07:002023-07-06T21:32:01.212-07:00जरा सोचिये ! आखिर राजनीतिक शासक लोकायुक्त से इतना डरते क्यों हैं ?<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/whty-political-rulres-are-so-afraid-of-lokayukta/">जरा सोचिये ! आखिर राजनीतिक शासक लोकायुक्त से इतना डरते क्यों हैं ?</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-11861488326443884532023-02-11T03:51:00.001-08:002023-02-11T03:51:26.381-08:00सर्वदलीय बैठक में बेरोजगारों पर बर्बर लाठीचार्ज एवं झूठे मुकदमों की निन्दा की गई<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/all-party-meet-demands-remival-of-dehradun-ssp/">सर्वदलीय बैठक में बेरोजगारों पर बर्बर लाठीचार्ज एवं झूठे मुकदमों की निन्दा की गई</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-46841097840622210472023-02-11T00:56:00.001-08:002023-02-11T00:56:44.599-08:00बेरोजगार संघ के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री धामी से मिले : गिरफ्तार युवाओं को लेखपाल भर्ती की परीक्षा में शामिल होने की व्यवस्था होगी<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/representative-of-unemployed-union-met-chief-minister-dhami-arrested-youths-will-be-arranged-to-appear-in-lekhpal-recruitment-exam/">बेरोजगार संघ के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री धामी से मिले : गिरफ्तार युवाओं को लेखपाल भर्ती की परीक्षा में शामिल होने की व्यवस्था होगी</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-71151418501591581872023-02-10T20:27:00.001-08:002023-02-10T20:27:50.682-08:00देश में राजनीतिक उथल पुथल कर सकती है पुरानी पेंशन<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/old-pension-can-cause-political-upheaval-in-the-country/">देश में राजनीतिक उथल पुथल कर सकती है पुरानी पेंशन</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-49031666979016761952023-02-10T20:14:00.001-08:002023-02-10T20:14:18.418-08:00दिव्यांगजनों की सुविधा के लिए वाहनों को अनुकूल वाहनों में बदलने की प्रारूप अधिसूचना जारी<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/draft-notification-issued-to-facilitate-divyangjan-in-conversion-of-fully-built-vehicles-into-adapted-vehicles-through-temporary-registration/">दिव्यांगजनों की सुविधा के लिए वाहनों को अनुकूल वाहनों में बदलने की प्रारूप अधिसूचना जारी</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-74573990251976306412023-02-10T19:57:00.001-08:002023-02-10T19:57:34.718-08:00बड़ा दिन: टीएमयू के आईवीएफ सेंटर में फिर गूंजी किलकारी<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/big-day-tmus-ivf-center-echoes-again/">बड़ा दिन: टीएमयू के आईवीएफ सेंटर में फिर गूंजी किलकारी</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-67650706786448480192023-02-10T19:14:00.001-08:002023-02-10T19:14:42.498-08:00दूरदर्शन आज से प्रसारित करेगा गुमनाम नायकों की गाथा<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/door-darshan-will-telecast-forgotten-freedom-fighters/">दूरदर्शन आज से प्रसारित करेगा गुमनाम नायकों की गाथा</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-72864977828979251052023-02-10T17:47:00.001-08:002023-02-10T17:47:45.526-08:00जिलाधिकारी पौड़ी ने की पटवारी लेखपाल की आगामी परीक्षा की समीक्षा<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/dm-pauri-reviewed-preparations-for-patwari-exams/">जिलाधिकारी पौड़ी ने की पटवारी लेखपाल की आगामी परीक्षा की समीक्षा</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-54284928153746473472023-02-10T05:49:00.001-08:002023-02-10T05:49:45.629-08:00उत्तराखण्ड बेरोजगार संघ के सदस्यों ने की अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी से भेंट<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/agitationist-unempliyed-meets-asc-radha-raturi-for-talks/">उत्तराखण्ड बेरोजगार संघ के सदस्यों ने की अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी से भेंट</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-88820580238617555512023-02-10T05:36:00.001-08:002023-02-10T05:36:58.135-08:00भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने किया नकल विरोधी कठोर कानून का स्वागत<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/uttarakhand-bjp-welcomes-anti-copying-ordinance/">भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने किया नकल विरोधी कठोर कानून का स्वागत</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-66889567888397032612023-02-10T04:15:00.001-08:002023-02-10T04:15:15.058-08:00पुलिस बर्बरता के विरोध में कांग्रेस लगातार 7 दिनों तक करेगी प्रदर्शन<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/congress-will-protest-against-state-government-for-whoe-of-the-week/">पुलिस बर्बरता के विरोध में कांग्रेस लगातार 7 दिनों तक करेगी प्रदर्शन</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4413051685021810107.post-65832615379178611312023-02-10T01:11:00.001-08:002023-02-10T01:11:50.261-08:00बेरोजगारों पर लाठीचार्ज के विरोध में थराली में प्रदर्शन और पुतला दहन<a href="https://uttarakhandhimalaya.in/protest-in-tharalu-against-lathicharge-on-youths/">बेरोजगारों पर लाठीचार्ज के विरोध में थराली में प्रदर्शन और पुतला दहन</a>jay singh rawathttp://www.blogger.com/profile/15162552065333137988noreply@blogger.com0