चुनाव जाल में फंसती जनता

शनिवार, 15 जून 2024

चुनावी जाल में फँसते आम वोटर

जाति मज़हब जीते सब,
गया हिंदु बस हार। 
फ्री पैसे के लोभ में, दिया काम दुत्कार।
पंकज प्रियम
नेताओं की धूर्तबाजी और चालाकी में भोली भाली जनता फंस जाती है। निश्चित तौर पर ये धूर्तबाजी सभी अशिक्षित वर्गो पर की गई और वोट लेने के लिए 1 लाख रुपये की गारंटी कार्ड तक दे दी गयी। उन्हें यह नहीं बताया गया कि कोंग्रेस की सरकार बनने पर 1 लाख सलाना दिए जाएंगे वल्कि यह बताया गया होगा कि इंडि गठबंधन को वोट दीजिये और हर महीने आपके खाते में पैसा आने लगेगा तभी तो बंगलुरु में चुनाव के पहले खाता खुलवाने मुस्लिम महिलाओं की भीड़ उमड़ पड़ी। चुनाव खत्म होते उन्हें लगा कि अब तो उनके खाते में पैसे आ जाएंगे और इसीलिए औरतें कोंग्रेस दफ्तर में पहुँचने लगी। इन दलों ने शुरू से ही मुस्लिम, दलित और पिछते अशिक्षित वर्ग को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करने का पाप किया है। अगर ये महिलाएं शिक्षित होती तो निश्चित तौर पर उन्हें यह पता होता कि यह महज चुनावी भाषण था।
वैसे भी देश की हर महिला को 1 लाख रुपये सलाना देना व्यवहारिक नहीं है। आखिर कहाँ से कोई सरकार इतने रुपये फ्री में देगी? सरकार कोई भी चीज फ्री में नहीं देती है उसकी वसूली आम जनता से ही टैक्स के जरिये करती है। देश की बहुसंख्यक आबादी अपनी मेहनत की कमाई को टैक्स ले रूप में सरकार को देती है और सरकार उसे अपनी राजनीतिक लाभ के लिए रेबड़िओं की तरह मुफ्त में बांटने का काम करती है। अगर फ्री में ही देना है तो विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री अपनी निजी संपत्ति से दे इसमें किसी को कोई ऐतराज नहीं है लेकिन मध्यमवर्गीय परिवार की मेहनत की कमाई को फ्री में लुटाने का अधिकार किसी सरकार को नहीं है। 

  चुनाव के वक्त पैसे और शराब बांटने का काम लगभग हर पार्टी करती है। वोट के बदले नोट के लालच में समाज के पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग आसानी से फंस जाते हैं और राजनीतिक दल उन्हें अपना वोट बैंक बनाते रहे हैं। वे सही गलत का चुनाव नहीं कर पाते उन्हें समाज के कुछ ठेकेदार जैसे हांकते हैं उसी तरफ हो लेते हैं जबकि अगड़े और शिक्षित वर्गो का वोट बिखरा रहता है, एक ही घर में 4 अलग विचारधारा के लोग रहते हैं। यही कारण है कि राजनीतिक दलों के लिए पहले अल्पसंख्यक वर्ग वोटबैंक था अब धीरे-धीरे उन्होंने बहुसंख्यक आबादी को जातियो में विभाजित कर दलितों को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करने लगे हैं। मौजूदा लोकसभा चुनाव परिणाम को ही देख लीजिए । अल्पसंख्यक, दलित, ओबीसी वर्ग में एकमुश्त एकतरफा वोट दिया क्योंकि उन्हें 1 लाख सलाना का लालच और आरक्षण खत्म करने का डर दिखाया गया। जबकि भाजपा के पारंपरिक वोटर अगड़े और शिक्षित वर्ग वोट देने भी नहीं निकले उन्हें लग रहा था कि भाजपा तो प्रचण्ड जीत की ओर बढ़ ही रही है। प्रधानमंत्री के 400 पार नारे ने भी भाजपा के वोटरों को अलसी बना दिया यही वजह रही कि मुस्लिम बहुल इलाकों में तो बम्पर वोटिंग हुई लेकिन हिन्दू बहुल इलाकों में लोग बाहर नहीं निकले। इसमे कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों में अभूतपूर्व और अप्रत्याशित कार्य हुए हैं। सड़क, परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास हर क्षेत्र में काम हुए हैं। मोदी सरकार में  सरकारी कामकाज की परिभाषा बदल गई। प्राइवेट सेक्टर की तरह ही सरकारी विभागों में टारगेट बेस्ड कार्य हो रहे हैं। छुट्टी और रविवार तो जैसे सरकारी कर्मचारी भूल ही गये हैं। घर आने के बाद भी देर रात तक सबको काम करना पड़ रहा है। सबको मिशन मोड में काम करना पड़ता है। यही वजह है कि मोदी सरकार से सरकारी कमर्चारी का एक बड़ा वर्ग नाराज भी है क्योंकि पहले की सरकारों में उनके लिए कोई काम ही नहीं था। हर घर जल, स्वच्छ भारत मिशन, आवास में सबको शुद्ध पेयजल, शौचालय और पक्के मकान मिल रहे हैं। कोरोना काल से प्रत्येक परिवार में हर सदस्य को 5 किलो मुफ्त अनाज दिए जा रहे हैं आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि इसका लाभ किस वर्ग को ज्यादा मिल रहा है। हिन्दू गरीब परिवारों में मुश्किल से 3 या 4 सदस्य होते हैं तो कुल जमा 20 किलो अनाज उन्हें मिलता है जबकि एक मुस्लिम परिवार में 15-20 सदस्य होते हैं तो उन्हें हर माह 1 क्विंटल मुफ्त अनाज मिल रहा है। उसी तरह हर परिवार को शौचालय और आवास मुफ्त में मिल रहा है। इन योजनाओं से लाखों लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार से जुड़े हुए हैं। गॉंव -गाँव में बिजली, पानी और सड़क की सुविधा मिल रही है। मैं अपने ही गाँव को देखता हूँ कि 15-17 वर्ष पहले एक अदद सड़क तक नहीं थी कोई रिक्शा वाला भी जाने को तैयार नहीं होता था आज हाइवे बन गया है और 24 घण्टे गाड़ियां चलती है। 24 घण्टे बिजली मिल रही है। आज से 15 साल पहले किसी के घर मे एक मोटरसाइकिल तक नहीं थी लेकिन मोटरसाइकिल छोड़िये अधिकांश के घर में कार है।    सबके पक्के मकान बन गए हैं। हालत यह है कि घर और खेत के लिए मजदूर तक नहीं मिलते। सड़क निर्माण में जमीन अधिग्रहण से अधिकांश परिवार लखपति -करोड़पति हो गए हैं। आज मेरे गाँव की जमीन भी सोने के भाव बिक रही है। लोग पैसे लेकर घुम रहे लेकिन जमीन नहीं मिल रही है। सबको फ्री का आवास और अनाज जो मिल रहा है तो कौन काम करे? इसी तरह किसी भी गाँव शहर का उदाहरण देख सकते हैं। अयोध्या और काशी की तो दशा बदल गयी है। याद कीजिये 5 साल पहले की अयोध्या और आज की अयोध्या! जमीन आसमान का फर्क दिखता होगा। काशी, मथुरा, वृंदावन, उज्जैन का विकास देखिए। अपने बाबाधाम में ही अब इंटरनेशनल एयरपोर्ट और एम्स बन गया है। रेल सुविधाओं का विस्तार हुआ है। राम मंदिर बनने के बाद सबको लगा रहा था कि भाजपा को बम्पर सीट मिलेगी लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति देखिए कि फ़ैजाबाद सीट ही हार गई। लोगों का  कहना है कि स्थानीय प्रत्याशी लल्लू सिंह ने कोई काम नहीं किया इसलिए उन्हें हराया। दुकानदारों की दुकानें छिनने का भी रोष था। ठीक है लल्लू सिंह ने काम नहीं किया लेकिन अयोध्या का विकास तो भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी ने ही किया न! आप उस काम के लिए तो वोट देते। केंद्र में मोदी की सरकार रहेगी तो सपा के सांसद कितना विकास कर देंगे? रही बात दुकान घर टूटने की तो आप बेशक मुआवजे के लिए लड़िये, अपनी मांग रखिये। विरोध में आप वोट का बहिष्कार भी कर देते तो भी बात समझ मे आती लेकिन उस दल को कमजोर करना जिसने अयोध्या की 500 वर्षो से अभिशप्त नगरी को पुनः सजाने सँवारने का काम किया। मन्दिर बनने से उसी क्षेत्र का तो सर्वांगीण विकास हुआ है। एक स्थानीय बता रहे थे कि पहले  पूरे मकान का किराया 2 से 3 हजार महीना मिलता था आज एक कमरे का किराया प्रतिदिन 2 से 3 हजार उठाते हैं। फूल-प्रसाद से लेकर घर दुकान तक का रोजगार बढा ही है। अयोध्या, काशी, मथुरा, वृंदावन जैसे शहर की पूरी अर्थव्यवस्था ही मंदिरों के भरोसे है। यूँ कहें कि भारत के अधिकांश शहर मन्दिरो के भरोसे चल रहे हैं। फिर भी उत्तरप्रदेश की जनता का विकास के बजाय महीना मुफ्त का साढ़े आठ हजार ला लालच और आरक्षण जैसे कोढ़ के डर से मोदी सरकार के विरूद्ध वोट करना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। हालांकि इसके लिए भाजपा को भी आत्ममंथन करने की जरूरत है। अपने कोर कार्यकर्ता की बजाय दलबदलू को टिकट देना भी नुकसानदायक रहा है। यूपी में सीटों के बंटवारे में मुख्यमंत्री योगी को पूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए थी। जो अच्छे काम कर रहे थे उनका टिकट नहीं काटना था। संघ को लेकर चलना चाहिए था ऐसे कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिनपर पार्टी को मंथन रखते हुए आगामी चुनाव की तैयारी में अभी से जुटने की आवश्यकता है। बंगाल में ममता बनर्जी के लिए रोहिंग्या और बंगलादेशी घुसपैठियों का बड़ा वोटबैंक है। ममता बनर्जी उनके अंदर CAA कानून का भय बिठाने में कामयाब रही। वहाँ एक मजबूत विकल्प की जरूरत है। 
 लब्बोलुआब यही कि हर क्षेत्र में विकास हुआ है बावजूद इसके मोदी सरकार को बहुमत नहीं मिलना देश का दुर्भाग्य है। इतिहास गवाह है कि गठबंधन की सरकार कभी स्थायी और मजबूत नहीं होती। पिछले दो कार्यकाल में जिस दृढ़ता के साथ सरकार ने निर्णय लिया तीसरे टर्म फर्क साफ दिखेगा। सहयोगी दल अभी से ही मलाईदार मंत्रालय मांगने लगे हैं जाहिर है उनका एकमात्र ध्येय मलाई काटना ही है विकास से कोई लेना देना नहीं होगा। गठबंधन सरकार के सहयोगी दल अपने ही विकास में लगे रहेंगे तो जाहिर तौर पर नुकसान देश की जनता का ही होगा। 

पंकज प्रियम

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https://uttarakhandhimalaya.in/with-the-grounding-of-439-proposals-in-uttarakhand-an-investment-of-rs-39667-crore-came-and-40563-jobs-were-created/

सोमवार, 10 जून 2024

 With the grounding of 439 proposals in Uttarakhand, an investment of Rs 39667 crore came and 40563 jobs were created.

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उत्तराखंड में 439 प्रस्तावों की ग्राउंडिंग के साथ 39,667 करोड़ का निवेश आया और 40,563 रोजगार हुए सृजित .

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शौर्य महोत्सव में पद्मश्री मैती ने संस्कृति के साथ पर्यावरण संरक्षण की अपील की

शुक्रवार, 7 जून 2024

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रूसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ने बताई अंग्रेजी लूट की कहानी

सोमवार, 18 दिसंबर 2023

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धर्म, परम्परा और विधान

धर्म, परम्परा और विधान

कोई भी देवी देवता बलि नहीं मांगते। सब जीव जंतु उनकी ही तो संतान है। ऐसे में क्या कोई माँ-बाप अपने ही बच्चों की बलि मांगेगा? 
हमारे वेदों-ग्रंथों में भी बलि निषेध है-

मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।- ऋग्वेद 1/114/8
अर्थात- हमारी गायों और घोड़ों को मत मार

इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।। – यजु. 13/50

अर्थात-  उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार
' वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। अगर मांसाहारी हैं तो वेशक खायें लेकिन धर्म की आड़ लेकर नहीं। वैसे भी विज्ञान की नज़र से भी देखें तो मानव शरीर माँस खाने-पचाने के योग्य बना ही नहीं है। न तो मांस के लायक दांत है और न पचाने लायक आँत। 
सभी वेद-पुराण को उठाकर पढ़ लें, सभी देवी-देवताओं ने उन दानवों का वध किया जो जगत के लिए आतंक बने हुए थे। किसी निर्दोष या सदमार्गी राक्षस को नहीं मारा उल्टे उन्हें अपनी शरणागति प्रदान की। सर्वाधिक बलि लोग माँ काली या दुर्गा देवी के समक्ष देते हैं लेकिन ध्यान दें कि उन्होंने महिसासुर और अन्य दैत्यों का वध जगत कल्याण हेतु किया उसका भक्षण नहीं किया। किसी निर्दोष निरीह पशु को बलि नहीं ली। दरअसल कुछ लोगों ने यह अपनी अहम और जिह्वा के स्वादपुर्ति के लिए बलि देना शुरू किया। महिसासुर जैसे ताकतवर व्यक्ति से तो लड़ नहीं सकते तो बेचारे निर्दोष, बेजुबान पशुओं की बलि देकर उसका मांस भक्षण करने लगे। उससे उनका अहम भी शांत होता है और जिह्वा की स्वादपुर्ति भी हो जाती है। शास्त्रों में बलि का अभिप्राय अपने भीतर के दुर्गुणों जैसे क्रोध, काम, लोभ, अंहकार, मोह, ईर्ष्या इत्यादि की बलि देने की बात कही गयी है। इस्लाम मे भी कुर्बानी का अभिप्राय अपनी सबसे प्यारी वस्तु की क़ुरबानी देना है ताकि लोभ-मोह खत्म हो सके। इस्लाम में तो एक ही ख़ुदा का विश्वास है जिसकी सब संतान है तो क्या अल्लाह अपने ही सन्तान की क़ुरबानी माँगेगा? 
किसी भी पर्व-त्यौहार पूजा-पाठ में बाजार घूमकर देख लीजिए। लोग स्वयं के लिए तो सबसे बढ़िया और मंहगा सामान खरीदते हैं लेकिन पूजा दुकान में घी-धूप दीप या फिर पंडित जी के लिए दान की सामग्री "पूजा का है, दान करना है" बोलकर सबसे घटिया सस्ता सामान लेकर आते हैं। यहाँ तक अक्षत, घी, धूप, यज्ञोपवीत जैसी मामूली पूजा सामग्री भी खुद के लिए बढ़िया और ईश्वर को समर्पित करने के लिय घटिया सस्ता खरीदने की आदत है। ईश्वर को समर्पित करने की सामग्री हविष्य नैवेद्य कहलाती है यानी जिसे आप स्वयं खा सकते हैं वही सामग्री ईश्वर को चढ़ाना चाहिए। जिसे आप स्वयं धारण कर सकें वही वस्त्र का दान करना चाहिए लेकिन नहीं लोग कपड़े की दुकान पर जाकर कहेंगे कि -"पंडीत जी को दान करना है सस्ता वाला दिखाइए" जिस घी को आप नहीं खा सकते उससे पूजा करना निष्फल ही है। जिस वस्त्र को आप पहन नहीं सकते उसका दान निरर्थक है। शादी-व्याह, पर्व-त्यौहार के आडंबर में आप लाखों रुपये पानी की तरह बहा देंगे लेकिन जब बात पूजा सामग्री और दान की आती है तो लोगों की दरिद्रता बाहर निकल आती है। अरे! ईश्वर को नही चाहिए निरीह पशुओं की बलि, सस्ती घटिया पूजा सामग्री, वह स्वयं जगतपिता है उसे किस बात की कमी है? उन्हें तो 56 भोग भी नहीं चाहिए। मनुष्य अपनी जिह्वा स्वाद पूर्ति के लिए 56 भोग की व्यवस्था करता है उसमें कोई कमी नहीं करता लेकिन जो ईश्वर को चढ़ना है, जो पुजारी को दान करना है वह सबसे निकृष्ट सामग्री लाएगा। बलि की ही बात हो रही है तो बाजार में जाकर प्रत्यक्ष उदाहरण देख सकते हैं। लोग बढ़िया, स्वस्थ, मोटे पशुओं को खरीदना चाहते हैं ताकि अधिक से अधिक मांस निकले। उसमे ईश्वर या अल्लाह को बलि देने की भावना नहीं रहती। जैसे बलि या भोग में बेहतर गुणवत्ता देखते हैं उसी तरह चढ़ावा और दान की गुणवत्तापूर्ण सामग्री की खरीद करो लेकिन नहीं वहां तो जेब टटोलने लगेंगे। होटल में अपने अहम पूर्ति हेतु बेटर को टिप या बारात के डांस में पांच-पांच सौ के नोट  हवा में उड़ाएंगे लेकिन जब मन्दिर में दान करने की बात आएगी तो जेब मे चवन्नी ढूंढेंगे। अरे! नहीं चाहिए ईश्वर को तुम्हारी चवन्नी-अठन्नी की औकात! ईश्वर तो श्रद्धा के भूखे होते, भगवान विष्णु सिर्फ एक तुलसी दल से प्रसन्न हो जाते है, बाबा भोलेनाथ तो बेलपत्र और धतूरे में ही खुश हो जाते हैं। ईश्वर ने दानपुण्य की व्यवस्था इसलिए बनाई है कि उनकी सेवा में दिनरात जुड़े परिवारों का भरणपोषण हो सके। जिस तीर्थ स्थल पर ईश्वर का वास है वहाँ की अर्थव्यवस्था और लोगों की रोजी रोटी चलती रहे। मन्दिरो से सिर्फ पंडित का पेट नहीं भरता वल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले हर व्यक्ति की रोजी-रोटी का जुगाड़ होता है। देश के अधिकांश शहर में रोजगार का मुख्य साधन मंदिर और पूजा है। यकीन न हो तो तीर्थ स्थल घूमकर देख लें। काशी, मथुरा, वृन्दावन, बरसाना, गोकुल, अयोध्या, पूरी, भुवनेश्वर, हरिद्वार, ऋषिकेश, देवघर, विंध्याचल, वैष्णो देवी, उज्जैन, रामेश्वरम, चारधाम, सभी शक्तिपीठ, सभी ज्योतिर्लिंग, जहाँ जाइये वहां की रोजी रोटी का मुख्य आधार मन्दिर ही है। जिसमें हर जाति, हर धर्म और हर वर्ग के लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इतने रोजगार कोई भी सरकार नहीं दे सकती, जितना सिर्फ हमारे देवी-देवताओं ने दे रखा है। हमारी सनातन संस्कृति को विदेशी भी अपनाने लगे हैं। इसी तरह हमारे हर पर्व त्यौहार में हिंदुओं से अधिक अन्य धर्म के लोगों को रोजगार मिलता है। हमारी सनातन संस्कृति सदैव जग कल्याण की बात करती है। 
दरअसल लोग परम्परा के नाम पर अपनी सारी अहमपूर्ति कर लेते हैं जबकि परंपरा मनुष्यों के द्वारा समय-समय अपनी सुविधानुसार बनाई गई है। विधि और परंपरा में फर्क समझने की आवश्यकता है। विधि विधान ईश्वर द्वारा निर्धारितजबकि परंपरा मनुष्य निर्मित है। ईश्वर जीवन देता है न की बलि लेता है। याद कीजिये कृष्ण का गोबरधन प्रसङ्ग। इंद्र को पशुओं की बलि देने की परंपरा दी जिसका कृष्ण ने विरोध करते हुए कहा कि परंपरा को समयानुसार बदलना जरूरी होता है। जो जीवन की बलि ले वह पूजनीय नहीं जो जीवन प्रदान करे उसकी पूजा होनी चाहिए। उन्होंने इंद्र से बेहतर गोबर्धन पर्वत की पूजा करने को कहा कि यह पर्वत हम सबको भोजन, पानी प्रदान करता है। कृष्ण का सबने बहुत विरोध किया लेकिन जब इंद्र का अहम चूर हुआ तो गोबरधन  पर्वत की पूजा शुरू हो गईं। सनातन धर्म मे तो कण-कण में ईश्वर के वास् की आस्था है
जीव जंतु तो छोड़िए नदी, पहाड़, पेड़-पौधे तक की पूजा का विधान है। सनातन में सबके संरक्षण की बात की जाती है। ईश्वर कभी भी कोई गलत कार्य करने को नहीं कहते। ईश्वर के मनुष्य अवतार ने भी धैर्य, संयम और धर्म का पालन ही किया राम हो या कृष्ण, किसी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो लोगों को धर्म के पथ से विचलित करे। उन्होंने हमेशा धर्म का ही पालन किया। जो गलत परम्परा थी उसे बदलने का प्रवास किया। आजकल लोग भगवान भोलेनाथ को गांजा और भांग पीते दिखाते हैं। उनके नाम पर नशापान करते हैं लेकिन उन्हें कौन समझाए कि भोलेनाथ ने कभी नशापान नहीं किया। समुद्रमंथन में जब कालकूट विष निकला तो प्रलय की स्थिति आ गयी तब महादेव ने जग कल्याण हेतु विषपान किया था। अगर आप भी सच्चे शिवभक्त हो तो गांजा-भांग की जगह थोड़ी ज़हर पीकर देख लो लेकिन सदाशिव की क्षवि बदनाम मत करो। विषपान के बाद जब मां दुर्गा ने विष को कंठ तक रोक लिया तो शंकर नीलकंठ हो गए। विष की ऊष्मा को दूर करने के लिए शिव को भी 20 वर्षों तक ऋषिकेश में कठिन साधना करनी पड़ी थी। विष के प्रभाव को कम करने के लिए धतूरे का सेवन किया क्योंकि धतूरा ठंडक प्रदान करती है।भांग भी औषधि रूप में विष तत्वों का नाश करता है। इसलिए शिव को भांग और धतूरा चढ़ाया जाता है। शिव जग कल्याण हेतु विषपान किया था कोई शौक से नशापान नहीं। कई जगह लोग शराब का भोग लगाते है जबकि देवी माँ ने कभी मद्यपान नहीं किया। यह कुछ लोगों के द्वारा अपनी लालसा पूर्ण करने का बहाना मात्र है। परंपरा कोई शास्त्रोक्त विधान नहीं वल्कि मनुष्य निर्मित है। एक उदाहरण के तौर पर देखें तो किसी के घर शादी हो रही थी मंडप के आसपास एक कुत्ता बहुत परेशान कर रहा था तो घरवाले मंडप के एक खूंटे में उसे बांध दिया। उसे दख नई पीढ़ी ने समझा कि शायद कुत्ते बांधने की परंपरा है, अब उस परिवार में हर शादी के मंडप में कुत्ते को बांधना परम्परा बन गयी। लोग अपनी पुरखों की परंपरा बदलने से डरते हैं कि पता नहीं कुछ अपशकुन न हो जाय। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। ईश्वर कभी भी किसी का बुरा सोचते नहीं। वे तो सदा जगत का कल्याण करते हैं। लोग कृष्ण के आधे-अधूरे उपरी आवरण को देखकर स्वयं को कृष्ण कन्हैया कह सारी गलतियां करने लगता है। कृष्ण को छलिया, चोर, नटखट, रास रचैया कहकर लोग कृष्ण बनने का पर्याय करते हैं। कृष्ण के रासलीला को लोगों ने गलत अर्थ में परिभाषित कर दिया है। राधा और कृष्ण के प्रेम का उदाहरण देकर लोग न जाने क्या क्या कर लेते हैं। हक़ीक़त यही है कि ऐसे लीगों ने कृष्ण को पढ़ा और समझा ही नहीं। कृष्ण ने जो भी किया वह जग कल्याण और सबको जीवन का पाठ पढ़ाने हेतु किया। उनका जीवन इतना सरल नहीं। इसपर कभी अलग से चर्चा करूँगा। लब्बोलुआब यही की परम्परा के नाम पर अनैतिकता को बढ़ावा न दें। समय के अनुसार जैसे हर  चीज बदलती है उसी प्रकार कुरीतियों, गलत परंपरा और कुप्रथाओं को बंद करने की जरूरत है। जब कोई परम्परा या वचन जग कल्याण में बाधक बन तो उसका त्याग कर देना चाहिए। वरना महाभारत एक बड़ा उदाहरण है कि भीष्म की प्रतिज्ञा और सिंहासन के प्रति वचनबद्धता ही उनके धर्म पालन बाधक बनी। उनके सामने द्रौपदी का चीर हरण होता रहा कुछ नहीं कर पाए। युधिष्ठिर का अति धर्मपालन ही दुख का कारण बना। परम्परा के नामपर द्यूत खेलने बैठा और अपनी पत्नी तक को दांव में हार गया। अपनी अति धर्मपरायणता के कारण सबको वनवास झेलना पड़ा। कृष्ण चाहते तो पलभर में सबकुक बदल सकते थे लेकिन उन्होंने पांडवों को उसके कर्म की सजा भोगने के लिए तबतक अकेला छोड़े रखा जबतक की उन्हें अपनी गलती का अहसास नहीं हुआ। कर्ण बहुत वीर और दानी था लेकिन उसने अपने स्वार्थपूर्ण मित्रता के पालन के लिए दुर्योधन जैसे अधर्मी का साथ दिया। जिसका दण्ड उसे मिला। इसी तरह गुरु द्रोण का भी वचनबद्धता के।कारण कौरवों के साथ नाश हुआ। महाभारत ने श्रीकृष्ण ने यही संदेश दिया कि अहंकार, गलत परंपरा और रुढ़िवादी सोच नाश का कारण बनती है। समय के साथ सबको बदलना पड़ता है अन्यथा आपका अंत होना निश्चित है।
पंकज प्रियम

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बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भटट ने योजनाओं के लाभार्थियों को सम्मानित किया

बुधवार, 13 दिसंबर 2023

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पिंडर पर लकड़ी का पुल बनाते समय नदी में गिरने से पूर्व फ़ौजी की मौत ; 2013 की आपदा की यादें फिर हुयीं ताजा

गुरुवार, 30 नवंबर 2023

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राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी ( NDA) के 145वें कोर्स की पासिंग आउट परेड की समीक्षा की

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