२० करोड़ भूखों का मानवाधिकार
गुरुवार, 11 दिसंबर 2008
मानवाधिकार दिवस आया और चला गया , बिना किसी तुम- ताडाम के। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर तमाम स्वयमसेवी सेवी संस्थाएं गाहे-बगाहे मानवाधिकारों को लेकर हो-हल्ला मचाती रहती हैं। अरबों रुपये का बजट हर साल वे लोग निगल जाते हैं जिन्हें मानव के अधिकारों की रक्षा के लिए नियुक्त किया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाजियों के क्रूर व्यव्हार से सैनिकों के मानव हितों की रक्षा हेतु रेडक्रॉस सोसाइटी और संयुक्त राष्ट्र संघ ने व्यापक पहल कर मानव अधिकारों की रक्षा के लिए समिति बनाई । जिसका काम था दुसरे देशों के युद्धबंदियों पर हो रहे क्रूर अत्याचार को रोका जा सके. लेकिन आज हालत बदल चुके हैं शायद आज नाजियों से भी ज्यादा क्रूर हो गया है हमारा समाज। आज की समस्याएं विकराल और मानवता को निगल जाने वाली है। चाहे वो आतंकवादी हमले हो, नक्सली हमले हो, छेत्रवाद और भाषावाद का जहर हो, देश के अलग - अलग प्रान्तों की आतंरिक समस्याएं हो सब जगह मानव हितों को तक पर रख कर अपने उद्देश्य की पूर्ति की जा रही है। मानव के मुलभुत अधिकारों का व्योरा व्यापक है इसे एक लेख में समेटना सम्भव नही है , लेकिन मोटी-मोटा इतना जरुर कहना चाहूँगा की - इस संसार में पैदा हुए हर व्यक्ति का चाहे वो किसी भी राष्ट्र, धर्म या संप्रदाय को मानाने वाला हो , सबको यहाँ रहने और स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने का अधिकार है। साथ ही अपनी मन-मर्यादा और इज्जत के साथ दो जून की रोटी खाना भी हर मानव के मूल अधिकार में आता है। लेकिन क्या ये सरे अधिकार मानव को मिल रहे हैं? या ये सब सिर्फ़ दिखावटी प्रोपेगंडा है जिससे फंड जुटाया जाता है। खैर मैं लम्बी बहस में नही खीचना चाहता। मेरा सीधा सा सवाल है की भारत के २० करोड़ भूखे लोगों के मूल अधिकारों का क्या? अभी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार इस समय पुरे विश्व में १ अरब लोग भूखे है। भीषण महगाई और खाद्य कालाबाजारी के चलते एक साल ४ करोड़ भूखों की संख्या में इजाफा हुआ है। पुरी दुनिया के दो-तिहाई भूखे एशिया महाद्वीप में रहते हैं। हमारे देश भारत में भूखों की कुल संख्या २० करोड़ पर कर चुकी है। देश में हर चार में से एक व्यक्ति रोज़ भूखा सोने के लिए मजबूर है। ये करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो जून की रोटी भी मयस्सर नही होती। हम किस मानवाधिकार की लडाई लड़ रहे है। नेताओं के कुछ कह दिया उस मानवाधिकार की लडाई या महिलाओ के पर हो रहे झूठे अत्याचार पर मानवाधिकार की लडाई? हत्यारों और आतंकवादियों की जिंदगी बचाने वाली मानवाधिकार की लडाई? आखिरकार ये स्पस्ट होना चाहिए की भूख से बिलबिलाती जनता के लिए, फटे-पुराने चिथडों से अपने तन को ढंकने की असंभव कोशिश कर रही महिला के लिए और दूध क्या पानी की एक-एक बूंद के लिए तड़पते दुधमुहे बच्चों के लिए मानवधिकारों की लडाई कौन लडेगा ? क्या हवाई जहाज से घूम रहे मानवाधिकारों के सर्क्षकों के एजेंडे में ये सब नही है। शायद दुनिया भर में भूख की मौत से बेखर शासन सत्ता तक हमारी अपील पहुँच जाती। लेकिन पता है मामला सिफर ही निकलेगा क्यूंकि पिज्जा गटकने और सूप पिने वालों को सुखी रोटी की कीमत कैसे मालूम होगी।
3 टिप्पणियाँ:
बहुत कटु मनोज भाई,
मानव अधिकार की रक्षा के नाम पर मानव का शोषण करने वाले ये गुरुघंटाल दानव बन चुके हैं, और ताज्जुब तो तब होता है जब मीडिया को भी इन्ही के राग को आलापते हुए पाया जाता है,
सच तो ये ही है की मानव अधिकार के नाम पर ये संस्था मानव सोषक बन चुकी है और लुट का जरिया भी.
जय जय भड़ास
मनोज भैये,
जय भड़ास,
ऐसे ही फाड़े रहिये इनकी, और पेले रहिये अपनी भड़ास.
जय जय भड़ास
भाई,मानवाधिकार वगैरह का ढकोसला भी उन्हीं लोगों ने रचा है जो मात्र दानवाधिकार के पक्षधर हैं। इनकी नजरों में जो भूखे-नंगे हैं वो मानव नहीं कीड़े हैं और उन चूतियों को कोई अधिकार नहीं होता उन्हे सिर्फ़ मर जाना चाहिये वो लोग इस पुण्यसलिला भूमि पर हल्के-हल्के से बोझ है.....
जय जय भड़ास
एक टिप्पणी भेजें