रब ने बना दी जोड़ी का संदेश सिर्फ़ मनोरंजन या राष्ट्रएकता ?

रविवार, 4 जनवरी 2009

कल रविवार था, छुट्टी का दिन मगर क्या ऐसा होता है, बाकि दिनों से ज्यादा आप रविवार को व्यस्त रहते हैं, अगर आप अकेले रहते हों तो ये व्यस्तता और भी ज्यादा बढ़ जाती है। पूरे हफ्ते का काम काज निबटाने के बाद शाम को बिस्तर पर लेटा ही था कि घंटे भर बाद मेरा अनुज मुझे उठाते हुए कहता है कि भाई जल्दी से उठ जाओ टाइम होने वाला है, कुनमुनाते हुए उठ तो गया पर समझ में नही आया कि किस का टाइम होने वाला है, बहरहाल सामने चाय भी थी सो उठ गया, चाय का लालच तो मुर्दों में भी जान डाल दे हम किस बला का नाम हैं।

उठकर सोफे पर बैठ गया, सरदी की शाम फ़ैल नही सकता सो बैठा भी सिकुड़ कर ही था, चाय सुड़कते हुए पाँच एक मिनट बीते होंगे कि वापस भाई की जोर की आवाज जल्दी से तैयार हो जाओ समय हो गया है लेट हो जाएँगें, सो फटाफट चाय खत्म की थोड़ा सा फ्रेश हुआ (सरदी थी सो ज्यादा होने की हिम्मत नही थी) और कपड़े सपडे बदल कर हो गया तैयार, तब तक में हमारा एक और भाई जो बगल में रहता है चुका था। फ़िर सबने साथ ही बताया कि भाई जल्दी से चलो मैंने सुबह ही "रब ने बना दी जोड़ी" की टिकट अनुपम में बुक कर दी थी और पौने सात की शो है सो जल्दी निकलो।

मैं अमूमन सिनेमा से दूर ही रहता हूँ, वजह बहुत सारी जिनका जिक्र करूंगा तो दो तीन पोस्ट बन जायेंगे सो ये किस्सा फ़िर कभी। हमने ऑटो की और पहुँच गए साकेत। सालो बाद अनुपम पर गया था सो कुछ नयी पुरानी यादों के साथ बदला हुआ अनुपम एक अपनेपन का एहसास दे रहा था और रंगीनियों के साथ मस्ती भी।



तुझ में रब दिखता है

अनुपम में सुरक्षा जांच से लेकर अपने सीट तक जाने में पढाई के ज़माने की याद को ताजा करते हुए जा कर सीट पर धंस गया और इन्तज़ार करने लगा सिनेमा के शुरू होने का। शुरूआती विज्ञापन और आनेवाली सिनेमाओं की झलकियों के बाद मेरे चित्रपट की भी बारी ही गयी, और फ़िल्म से पहले हो रहे इन छोटे मोटे हलचल की बोरियत से निजात भी।

अमूमन फिल्मों से दूर रहने वाला मैं शाहरुख़ के सिनेमा से अपने को ज्यादा दूर नही रख पाता सो व्यस्त हो गया परदे पर हो रही हलचल के साथ। आम आदमी पर आधारित यह कहानी बदलते परिवेश में कितना सटीक बैठती है के लिए मुझे ज्यादा सोचना नही पड़ा, क्योंकि परदे पर हो रही हलचल और उसपर सामने दर्शकदीर्घा में हो रही चहलपहल सब कुछ बयां कर रही थी।

दोहरे चरित्र को जी रहा सुरिंदर साहनी या ज़माने के हिसाब से बदला राज कपूर, किसकी पसंद कौन ज्यादा बताने की जरुरत नही की दर्शक दीर्घा से हो रही चपर चपर ही दर्शकों के क्षद्म चरित्र का पोल खोल रही थी, मन व्यथित हुआ जा रहा था, कि क्या आज के दौर में आम होना गुनाह है, अगर आप आम हैं, संवेदना के अथाह सागर है, प्रेम का समागम हैं, लोगों की परवाह है यानी की आप सुरिंदर साहनी हैं जिसकी अहमियत सिर्फ़ पंजाब पावर तक सिमटा हुआ है, जिसकी भावना और अभिव्यक्ति की शून्यता लोगों को बिजली के आने जाने की तरह लगती है, मगर उसी साहनी का राज बदल कर लोगों को लुभाना यानी कि समयचक्र के साथ आम का घटता अहमियत सामने रहा था, सोच में था कि शायद इसी कारण से लोगों में दिखावे की भावना का जन्म हुआ और ये ही आज चरम पर है, व्यक्तिगत समस्या हो या पारिवारिक, सामजिक हो या धार्मिक बस दिखावा ही दिखावा और ये ही लोगों की पसंद भी, भले ही ये आपकी ज़िन्दगी को दो से चार राहों पर ले जाए. फ़िल्म समाप्त होते होते दुखी और थोड़ा सा मन चंचल भी हो गया, शायद अपनी इन्हीं संवेदनाओं के कारण मैं सिनेमा से परहेज करता हूँ. तुझमे रब दिखता है , यारा मैं क्या करुँ ? ये अनुत्तरित प्रश्न आज के ज़माने में शायद अनुत्तरित ही रहेंगे क्योंकि किसी को किसी में रब नही दिखता, अपने जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए किसी का भी बलिदान मंजूर है चाहे वो रब ही क्यों ना हो।

फ़िल्म में आए "तुझमे रब दिखता है , यारा मैं क्या करुँ ?" के गाने में दिए गए संदेश को भी किसी ने नही देखा पढ़ा या रुचा होगा, आख़िर हम सिनेमा जा रहें हैं फालतू मैं अलक लगा कर सरदर्दी मोल क्योँ लें। मगर जिस तरह से इस गाने में सभी धर्मों के प्रति आस्था दिखाई गयी है, सभी में श्रद्धा और विश्वास दिखाया गया है प्रसंशनीय है, साभार हमारी इस मीडिया का, कमोबेश इसी प्रवृत्ति के कारण खबरिया मीडिया ने भी लोगों के आशा के अनुरूप ही खिचडी और चटनी परोसनी शुरू कर दी है।


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