Our Judiciary should also be accountable !
शुक्रवार, 2 जनवरी 2009
पक्षकार को न्याय दीजिये ।
एक वकील का धर्म क्या है? अपने मुवक्किल को येन-केन-प्रकारेण जिताने का प्रयास करना ? या, उसे न्याय दिलाना? यह एक विडम्बना ही है कि हमारे देश में अपने मुवक्किल को हर प्रकार के छल प्रपंच करते हुए जिताने की चेष्टा करना वकील का धर्म माना जाने लगा है। इसके लिये पक्षकार, उसके गवाह और उसका वकील - हर कोई खुले आम झूठ बोलने में संकोच नहीं करते । अत्यन्त चिंतनीय तो ये है कि "सच बोलने और सच के सिवा कुछ नहीं बोलने" की शपथ लेने के बावजूद झूठ बोला जा रहा है और हमारी न्यायपालिका झूठी गवाही देने वालों को दंडित करती भी दिखाई नहीं देतीं। यही कारण है कि हमारे देश में न्यायालयों में मुकद्दमों की अंतहीन कतार दिखाई दे रही है। झूठा मुकद्दमा करने और झूठी गवाही देने पर यदि कठोर दंड मिलने लगे तो लाखों पक्षकार और उनके वकील भागते नज़र आयेंगे। अपने विरोधी को परेशान करने की नीयत से उस पर झूठा मुकद्दमा करना और उसे सालों-साल कचहरी और वकीलों के चक्कर काटने के लिये मज़बूर करना हमारे देश में आम बात हो गई है। अक्सर लोग धमकी देते दिखाई देते हैं - "साले, चार-पांच मुकद्दमें ठोक दूंगा। वकीलों के चक्कर काटते काटते ऊम्र गुज़र जायेगी पर मुकद्दमें खत्म नहीं होंगे!"
स्पष्ट ही है कि न्यायपालिका में दूसरी समस्या मुकद्दमों का कई- कई साल तक चलते रहना है। यदि यह सिद्धान्त वास्तव में सही है कि न्याय देने में विलंब करना अन्याय करने के समकक्ष है तो, न्यायपालिका के प्रति पूर्ण आदर रखते हुए भी यह कहना पड़ता है कि हमारे देश में न्यायपालिका अन्याय करने की दोषी है। मुकद्दमा जितना लंबा खिंचे, उतनी ही वकीलों की चांदी है, ऐसे में वकीलों का हित व पक्षकारों का हित परस्पर विरोधी हैं। हां अगर पक्षकार भी झूठा हो तो उसका हित भी मुकद्दमा अधिकतम समय तक अनिर्णित रहने में ही है। ऐसे में दुःखद निष्कर्ष यही निकालना पड़ता है कि फैसला प्रदान करने में देरी करके न्यायपालिका झूठे मुकद्दमों व ऐसे मुकद्दमें करने वाले वकीलों को जानते- बूझते प्रोत्साहित करने की दोषी है। झूठे बयान, झूठी गवाही और झूठे शपथपत्रों पर कठोरतम कार्यवाही न करना व ऐसे अपराधियों के प्रति बार-बार नरमी दिखाना इस दुःखद निष्कर्ष की पुष्टि ही करता है। न्यायपालिका द्वारा यह तर्क देना कि झूठे गवाहों के विरुद्ध मुकद्दमें इस लिये नहीं किये जाते क्योंकि न्यायालयों में पहले ही बहुत अधिक मुकद्दमें हैं - वास्तव में सफेद झूठ है। दस - पांच लोगों को झूठी गवाही के लिये कठोरतम दंड देकर तो देखिये। लाखों मुकद्दमों में न्यायालय के बाहर ही समझौते हो जायेंगे और वाद निर्णय हेतु न्यायालय में प्रार्थनापत्र आ जायेंगे। पर अगर ऐसा होने लगे तो वकीलों की आमदनी खतरे में आ जायेगी, बार ऐसोसियेशन हड़ताल का आह्वान कर देंगी।
निष्कर्ष रूप में, यदि हमें मुकद्दमों का फैसला जल्दी चाहिये तो निम्न पग उठाये जाने लाभकर हो सकते हैं :-
१- झूठे मुकद्दमों, झूठे बयान, झूठी गवाही और झूठे शपथपत्रों पर कठोरतम कार्यवाही।
२- इस सिद्धांत का प्रतिपादन कि वकील का धर्म अपने मुवक्किल को न्याय दिलाना है न कि झूठी गवाहियों के सहारे उसे जिताने का प्रयास करना। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि यदि पक्षकार दोषी है तो उसकी सजा कम कराने की कोशिश की जा सकती है किन्तु कानूनी दांव-पेंच के सहारे उसे निर्दोष साबित कराने की चेष्टा न तो न्याय के हित में है और न ही समाज के हित में है। "Guilty or Not Guilty?" आरोपी से सबसे पहला प्रश्न यही होना चाहिये। आरोपी अपना अपराध स्वीकार कर ले तो उन हालातों पर गौर करते हुए, जिनमें अपराध हुआ - सज़ा की मात्रा का निर्णय हो। आरोपी स्वयं को निर्दोष बताये तो अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत किये गये सबूतों की अत्यन्त सावधानी से जांच-पड़ताल होनी चाहिये और आरोपी को हर संभव मदद न्यायालय की ओर से मिलनी चाहिये ताकि वह अपनी निर्दोषिता साबित कर सके । अंततः अपराध साबित हो तो कठोरतम दंड और निर्दोष सिद्ध हो तो सरकार निर्दोष को अकारण प्रताड़ित करने के लिये उसे हर्जाना दे।
३- दीवानी मुकद्दमों में न्यायालयों व वकीलों को फीस मुकद्दमें का निपटारा होने के बाद मिलनी चाहिये ताकि मुकद्दमों का शीघ्र निपटारा होने में ही उनका हित साधन हो। यह फीस हारने वाले पक्ष से वसूल की जानी चाहिये। यह सिद्धान्त तय होना चाहिये कि न्यायालय की सेवाओं के लिये निर्धारित शुल्क देकर न्याय खरीदने वाला पक्षकार एक उपभोक्ता है तथा अग्रिम शुल्क लेकर भी कई दशक तक न्याय न दिया जाना उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सेवा में कमी (Deficiency in Services) माना जायेगा।
2 टिप्पणियाँ:
सिंघल साहब आपका भड़ास पर हार्दिक अभिनंदन है। आपकी लिखी बातें अक्षरशः विचारणीय हैं। लोग अक्सर जुडीशियरी से जुड़े मामलों पर बोलने से कतराते हैं कि कहीं बैठे बिठाये कोई मुसीबत न खड़ी हो जाए पर भड़ास ने यह साहस दिखाया है जज आनंद सिंह जी का मामला सामने लाकर जो कि पांच साल तक राजद्रोह के इल्जाम में जेल में बिना जमानत अपने भाइयों और बूढ़े पिताजी के साथ रहे और बरी हुए लेकिन अभी भी जुडीशियल माफ़िया के जुल्मों के शिकार हैं व दाने-दाने को मोहताज हैं पर हौसला नहीं टूटा। अत्यंत शोचनीय बात तो यह है कि किसी भी मीडिया ने इस बारे में कुछ नहीं कहा क्योंकि माफ़िया और मीडिया मौसेरे भाई जो ठहरे......। आइये सार्थक मसलों को मसल कर उन्हें हल करें ताकि निर्णायक स्थिति बने।
जय जय भड़ास
एकदम ठोस और तर्कपूर्ण बात कही हैं आपने,हर बात मूल्यवान है लेकिन इसको हम सबको जोर लगा कर उस स्थान तक ले चलना होगा जहां से यह संबद्ध है। सबसे पहले तो जुडीशियरी को RTI के अंतर्गत लाना होगा फिर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में राजभाषा अधिनियम का जो मखौल उड़ाया जाता है वह बंद करवाने के लिये हमें आवाज बुलंद करनी होगी.......
जय जय भड़ास
एक टिप्पणी भेजें