पत्रकारिता का निष्ठा, पत्रकार के नाम. (अतीत के पन्ने से....)
शनिवार, 2 मई 2009
बचपन से पत्रकार और पत्रकारिता को देखता आया हूँ। बहुत छोटा सा था जब पटना से प्रकाशित और हिन्दुस्तान के कुछ सबसे पुराने और प्रतिष्ठित अखबार के अन्ग्रेज़ी संस्करण "दी इंडियन नेशन" के सम्पादक मेरे एक नाना जी हुआ करते थे, बड़ा हुआ तो घर में मीडिया संस्थान से जुड़े लोगों की बाढ़ सी आ गयी, कोई सम्पादकीय में तो कोई विज्ञापन में सर्कुलेशन से लेकर प्रोडक्शन तक में मेरे घर के लोग आ चुके थे पत्रकारिता और राजनीति का चोली दमन का साथ होता है सो हमारे घर में भी था। बताता चलूँ की मैं अपने ननिहाल की बात कर रहा हूँ क्यौंकी मेरा बचपन ननिहाल में ही बीता है।
नाना जी का इंडियन नेशन और इसी का हिन्दी संस्करण आर्यावर्त हमेशा से मेरा पसंदीदा रहा कारण साफ़ है की अपने कंटेंट ने सर्चलाइट पब्लिशिंग को हमेशा प्रतिष्ठा में बनाये रखा। मेरी अखबारों में रूचि और उसका विश्लेषण करना मेरे नाना जी को हमेशा भाता रहा और ये ही कारण था की वो हमेशा चाहते थे की मैं पत्रकारिता में आऊं। मगर बाद के पीढी के मीडिया में आने और उस से बने मीडिया की छवि ने हमारे घर के माहोल को बदला और सभी मेरे ख़िलाफ़ की मैं पान की दूकान कर लूँ मगर इस क्षेत्र में मुझे ना जाने दिया जायेगा।
यानि की निष्ठा पर प्रश्न, पत्रकार की निष्ठा पर प्रश्न, पत्रकारिता की निष्ठा पर प्रश्न, मीडिया की व्यवसायीकता में कुचले पत्रकारिता की निष्ठां पर प्रश्न। मैंने बड़े करीब से इसे देखा और इस प्रश्नचिन्ह को स्वीकार भी किया।
माफ़ी चाहूँगा शायद कुछ ज्यादा ही लिख गया जो शब्दों को जाया करना हो सकता है, बहरहाल चर्चा एक घटना मात्र की करूंगा जिसे मैंने देखा और बस देखता रहा, ऊपर की जो मेरी अभिव्यक्ती है को इस तरह के घटनाक्रम ने हमेशा बल दिया और आज मुझे ये कहने से कोई गुरेज नही की सभी जगह से समाप्त निष्ठां का लोकतंत्र के चौथे खम्भे ने प्रचार प्रसार की ठिकेदारी तो ली मगर अपने निष्ठा का चीरहरण ख़ुद किया है।
कुछ महीने पूर्व मुंबई में था, रोज ही वाशी स्टेशन से परेल तक दुपहरी में जाता और गए रात वापस आता था। ये ऐसा समय था जब अमूमन पत्रकार लोग भी ट्रेन में ही होते हैं। अपने आप में मस्त गेट से खड़ा होकर जब रेल में सफर करता तो आस पास पत्रकारों के टोली की बातें आकर्षित करती थी मगर अपने धुन में रहने वाला इन से सम्पर्कित होने के प्रयास से इतर ही रहा।
खैर चर्चा सिर्फ़ एक घटना की करूंगा जिसने मेरे अंतरात्मा तक को हिला कर रख दिया। वापसी में लगभग रोज ही परेल स्टेशन पर एक युवा जोड़ी मुझे दिखता जो साथ ही एक ही डब्बे में वाशी तक आता था। ना सुनने की इच्छा के बावजूद इतना कह सकता हूँ की दोनों ही अलग अलग अखबार में काम करने वाले शायद दम्पति थे। कभी कभी बैठने के कारण इतना जान पाया की दोनों हिन्दुस्तान के दो बड़े ही प्रतिष्ठित अखबार के पत्रकार थे।
एक रात का ये हादसा है जब हम बैठे हुए थे आमने सामने, दोनों में से एक ने वहां का एक स्थानीय अखबार निकाला, अपने जिज्ञासा पर दोनों ने बहस किया, अखबार का मजाक उडाया और अंत में दंपत्ति ने, पत्रकार दंपत्ति ने, पत्रकारों की जोड़ी ने उस अखबार को चलती हुई ट्रेन से यूँ फेंका मानो कचरे के डब्बे से कचड़ा बीने वाले के हाथ गंदगी से भी ज्यादा गंदा हाथ में आ गया हो।
जहाँ पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हो, पत्रकार लोक की आवाज और निष्ठां के प्रति जवाबदेह भी, मगर जब एक पत्रकार अपने पत्रकारिता के प्रति निष्ठित ना हो, अपने धर्म के प्रति निष्ठित न हो अपने कर्म के प्रति निष्ठित न हो, व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में मेरा अखबार बढिया बाकी सभी औने पौने के साथ लाला जी की चाकरी करता हो, मगर अहम् का दंभ सबसे ज्यादा
सबको निष्ठा की सीख देने वाला क्या अपने प्रति निष्ठित है, अपने धर्म के प्रति निष्ठित है।
प्रश्न इसलिए क्यूंकि जिम्मेदारी और संवेदना से भरा हुआ है। मगर बदलते दौर के साथ बदलती पत्रकारिता में व्यवसायिकता का रस ने पत्रकारों से जिम्मेदारी और निष्ठा समाप्त कर दिया है। हमें कोई ऐतराज नही यदि आप व्यवसायिक पत्रकार हैं, मगर कहना सिर्फ़ इतना की आप व्यावसायिक हैं तो समाज का आइना मत बनिए। लाला जी का चाकर हमारा चौथा खम्भा कभी नही हो सकता।
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