Loksangharsha: यूँ भी रस्मे वफ़ा...
शनिवार, 16 मई 2009
यूँ भी रस्मे वफ़ा हम निभाते रहे॥
चोट खाते रहे मुस्कुराते रहे ॥
दिल की महफिल सजायी थी हमने मगर-
वो रकीबो के घर आते - जाते रहे॥
आ गए वो तसस्वुर में जब कभी -
मीर के शेर हम गुनगुनाते रहे॥
देखकर जिनको चलने की आदत न थी -
ठोकरे हर कदम पर वो खाते रहे
जब भी 'राही' बुरा वक्त हम पर पड़ा -
हमसे अपने ही दामन बचाते रहे ॥
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''
2 टिप्पणियाँ:
भाई जो दामन बचा कर निकल लिये वो अपने कैसे? अपने तो वो हैं जो हर हाल में साथ रहे हैं... इसी तरह दागे रहिए धांय..धांय..
जय जय भड़ास
सुमन भाई आभार,
बेहतरीन रचनाओं की माला पडोसते रहिये.
जय जय भड़ास
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