लो क सं घ र्ष !: कुछ डूबी सी उतराए...

रविवार, 14 जून 2009


जो है अप्राप्य इस जग में ,
वह अभिलाषा है मन की।
मन-मख,विरहाग्नि जलाकर
आहुति दे रहा स्वयं की॥

अपने से स्वयं पराजित ,
होकर भी मैं जीता हूँ ।
अभिशाप समझ कर के भी
मैं स्मृति - मदिरा पीता हूँ ॥

दुर्दिन की घाटी भी अब
विश्वाश भरी लहराए।
उस संधि -पत्र की नौका
कुछ डूबी सी उतराए॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही'

2 टिप्पणियाँ:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

स्मृति - मदिरा पीता हूँ और पीकर फुल तर्राट हो जाता हूं :)
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

शानदार है,
रही जी को साधुवाद.
जय जय भड़ास

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