ओये गे गे क्या करता है बे !

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद देखिये कैसी उधम मची हुई है। फ़िल्म वाले तो जान छिड़क रहे हैं..शायद अपनी हेरोइनो और साथी महिला कलाकारों से पेट भर गया है। इसलिए नए टेस्ट के लिए दांत चियाड़ रहे हैं। पुरी दुनिया में भारत का संदेश गया हैं की देखो हम भी अब गे हैं। इस फैसले से अंग्रेजी दा गिरपितिये इतने खुश हुए हैं की पुरा का पुरा अख़बार ही गे गे गे चिल्ला रहा है। अपनी सेलिना जेटली अम्मा का तो पूछिये मत उनके तो पंख लग गए हैं , चलो कोई नही मिला तो ऐ बे गे ले ही सही । विदेशी ट्रस्ट के पैसे से चल रही मीडिया ने इसको इतना हाइप कर दिया है मानो देश एक बार फ़िर से आजाद हो गया है। अप संस्कृति के लिए जितना पैसा विदेशों से मिल रहा है उसका ईमानदारी से प्रयोग किया जा रहा है ताकि कल को हम किसी को मुह दिखने के काबिल न बचे। बचेंगे कैसे अब सोनू-मोनू आपस में ही चुम्मा-चाटी करेंगे बिच चौराहे पर और हम हमारी इस नई आजादी का जश्न मनाएंगे। बेटियों की संख्या तो पहले से ही कम है इससे बेटों को निराश नही होना चाहिए । आपस में भीड़ लेवो भाई की फर्क पैंदा है? अरे यही न होगा की एक और कुंवारा मरने के लिए पैदा ही नही होगा। और दहेज़ की आग में जलने के लिए कोई बेटी ससुराल नही जायेगी! तब कहाँ जायेगी अरे अपनी सहेली के साथ किसी होटल या सहेली के कमरे पर ही जाकर देह की गर्मी उतार लेगी। माँ बनने का झंझट ही ख़त्म हो जाएगा..अरे भाइयों कल्पना करो की तब जनसख्या बढ़ने की बजाये कम होने के आंकडे आने लगेंगे...रोटी कपड़ा और मकान की किल्लत कोसों दूर चली जायेगी और ऐसा होते होते एक दिन वह भी आयेगा जब कलयुग का अंत हो जाएगा ..तो क्या माना जाए की तथाकथित बुद्धिजीवों की राजधानी दिल्ली से निकला यह फैसला प्रलय की ओर पहला कदम है। जो भी अलग अलग राय और विचार सामने आ रहे हैं पर सच पूछिये मैं व्यक्तिगत रूप से इसके बेहद खिलाफ हूँ क्या आप भी ? वैसे दो सहरो के लोग इस फैसले से बेहद खिन्न हैं क्योंकि इससे उनको अपनी रोजमर्रा की भाषा में ही तबदीली करनी पड़ रही है। इलाहबाद और बनारस के आस-पास के लोग बात बात में अबे -तबे बोलते रहते हैं कभी कभी ये गे भी प्रोनौंस हो जाता है इसलिए ये लोग अब संभलकर बे बोलेंगे ताकि सामने वाला गे समझकर लाइन मरना शुरू न कर दे। बिहार के मधुबनी जिले के आस पास वाले भी है- हैगे को तकिया कलम की तरह यूज करते हैं । बेचारे अब इसे बदलने पर मजबूर हैं क्यूंकि आपको तो पता ही है पुरा देश न तो दिल्ली है और न ही गे । यहाँ तो गे बोला नही की बीसों जूते बिना पूछे रशीद कर दिए जायेंगे...कल ही फ़ोन पर एक मित्र से बात हो रही थी मैंने कहा अबे क्या हो रहा है आजकल ? उसने गुस्से में जबाब दिया दिल्ली में रहकर ये क्या गे गे कर रहा है बे। यहाँ आयेगा तो चूरमा बना देंगे..वैसे चूरमा देशी घी ड्राई फ्रूट और चीनी को को उपले से पकी बाटी में मिलकर तैयार किया जाता हैं जो बाटी चोखा के बाद मुख शुद्धि यानि मुह मीठा करने के लिए परोषा जाता है..कोई सिर्फ़ चूरमा खाकर पेट नही भर सकता। लेकिन वह रे दिल्ली और दिलवाले क्या खेल खेला है प्यारों गाना बनाया है आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ। इस गाने को लिखने वाले और इसे गाने वाले दोनों की आत्मा रो रही होगी..अबे जाहिलों फुटपाथ पर चिथडों में लिपटे भिखारी से प्यार करके दिखाओ, तब समझ में आएगा आदमी को आदमी से प्यार करने में कितनी दिक्कत हो रही है। आप जो भी सोच रहे हो लिख मारिये.....
जय भड़ास जय जय भड़ास

2 टिप्पणियाँ:

गुफरान सिद्दीकी ने कहा…

वैसे मनोज जी कुछ कहें-गे , खाएं-गे, जाएँ-गे, नहायें-गे, धोएं-गे, करें-गे, नहीं करें-गे, जब बात गे की है तो यहाँ तो मुह खोलने पर ही जुटे पड़ने की पूरी सम्भावना है.

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