समय जीवन है — श्रम उसका वैभव है।
बुधवार, 12 अगस्त 2009
समय जीवन है — श्रम उसका वैभव है।
— प्रज्ञा पुराण
अब हम समय के सयंम और असयंम की चर्चा करते हैं। सुनियोजित श्रम से किया गया समय का सदुपयोग ही समय का संयम है।
समय का दुरुपयोग समय का असयंम है। शारीरिक श्रम से बचना आलस्य है। प्रमाद मानसिक जड़ता का नाम है।
प्रज्ञा पुराण कहता है कि आलस्य हमारा एक ऐसा समीपवर्ती शत्रु है जो काल देवता की अवहेलना के रूप में जन्म लेता है। आलस्य अकेला नहीं होता — उस के साथ उसके सहोदर-सहचर अन्य दुर्गुण भी होते हैं।
एक बार शैतान का मन अपने काम से ऊब गया — सोचा, कि इस काम से सन्यास लिया जाये। उसने अपनी सारी सम्पत्ति बेचना शुरू कर दी। हाट के दिन झुण्ड के झुण्ड लोग आये और उन्हें खरीदने लगे।
नशेबाजी, चुगली, ईर्ष्या, बेईमानी, कुढन, क्रोध, जल्दबाजी, बदहवासी जैसी चीज़ें लोगों को बहुत पसन्द आयीं। उन्होंने मुँहमाँगे दाम देकर इन्हें खरीद लिया। जो न खरीद सके वे हाथ मलते रह गये।
देखते-देखते शैतान का सारा सामान बिक गया। एक चीज को उसने कपड़े से ढाँक कर रखा था क्योंकि वह उसे बेचना नहीं चाहता था। खरीददारों में से एक ने पूछा — “जब सब कुछ बेचकर धन्धा छोड़ रहे हो तो इस एक चीज़ से इतना मोह क्यों? इसे भी बेचिये और निश्चिंत हो जाइये।”
शैतान ने उत्तर दिया— “नहीं, भाइयो! इसे मैं नहीं बेच सकता। यह मेरी सबसे प्रिय और करामाती चीज है। इसके जरिये तो मैं अपनी बेची हुई सारी चीजें वापस ले सकता हूँ। यदि सन्यास में मन नहीं लगा और फिर से मुझे अपना धन्धा शुरू करना पड़े, तो इसके सहारे अपना कारोबार फिर से शुरू कर सकता हूँ। इसको यदि बेच दिया तो मेरा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा! न भाई न, इसे मैं नहीं बेच सकता — किसी भी कीमत पर नहीं।”
लोगों के मन में उस चीज़ को देखने की उत्सुकता हुई। एक ने शैतान से कहा, “नहीं बेचना तो कोई बात नहीं। परन्तु एक बार दिखा तो दो कि वह चीज़ है क्या!” तब शैतान ने ऊपर से ढाँक रखे कपड़े को हटा दिया और बड़े गर्व से बोला, “भाइयो! देखो, ये है आलस्य! इसके रहते मुझे वह सब कुछ मिलता रहेगा जो मैं चाहता हूँ और मेरा धंधा फिर जोर शोर से शुरू हो जायगा।”
देखने में आलस्य इतना अनिष्टकारी नहीं लगता, लेकिन गहराई में जाकर देखो तो इसका वास्तविक अर्थ समझ में आता है।
क्या है आलस्य का अर्थ?
आलस्य का अर्थ है — जीवन तो मिला है, लेकिन हम उसका उपयोग नहीं करेंगे।
आलस्य का अर्थ ह — सुबह तो हो गई, लेकिन हम उठेंगे नहीं।
आलस्य का अर्थ है — जीवन में अवसर तो मिला लेकिन हम उसे खोना चाहते हैं।
आलसी अपने लिये साधन नहीं जुटा सकता। साधन के अभाव में उस लज्जास्पद जीवन बिताना पड़ता है।
वेदों में एक ऐसी “देवी” का जिक्र आता है जो आलस्य का प्रतीक है। इस देवी को “अराते” कहा गया है। यह देवी आपको कोई अनुदान नहीं देती, कोई समृद्धि नहीं देती। देना तो दूर रहा, वह तो आप के पास जो कुछ है, उसे भी छीन लेती है। अथर्व वेद की इस ऋचा में इस देवी को सम्बोधित करके कहा गया है —
उत नग्ना बोभुवती स्वप्न्या सचसे जन्म्।
अराते चित्तं वीर्त्सन्त्याकूर्ति पुरुषेस्य च।।
हे अराते! आप मनुष्यों को आलस्य से संयुक्त कर के नग्न कर देती हैं। आप उनके संकल्पों को धन-रहित कर के असफल कर देती हैं।
आपको आलस्य के चंगुल में नहीं फँसना — आपने कर्मठता को अपनाना है। कर्मठता सुख है, अकर्मण्यता दुख है। जो क्रमबद्ध योजना बना कर जीता है, वही काल-देवता का सच्चा पुजारी है।
जगद्गुरु शंकराचार्य समय के सदुपयोग पर, समय को सत्कार्यों में लगाने पर बड़ा जोर देते थे। एक बार एक श्रद्धालु धनिक ने उनसे कहा— “प्रभु! श्रेष्ठ कार्यों में समय लगाना तो आवश्यक है, यह मैं मानता हूँ। लेकिन यदि कोई समयाभाव के कारण वैसा नहीं कर सके तो फिर क्या करे?”
आचार्य ने रहस्यमयी मुस्कान बिखेरी और फिर बोले— “श्रेष्ठि! मुझे तो कोई व्यक्ति आज तक ऐसा नहीं मिला, जिसे विधाता ने एक दिन में चौबीस घंटों में से एक पल भी कम दिया हो। फिर समय की कमी से आपका क्या अभिप्राय है?”
सेठ जी सकपका गये।
फिर स्पष्ट करते हुए आचार्य धीरे से बोले— “वत्स! जिसे आप समयाभाव कहते हो वह समय की कमी नहीं है, समय की अव्यवस्था है। इस कारण समय कई अनुपयोगी और अनावश्यक कामों में लग जाता है — उपयोगी कामों के लिये बच नहीं पाता। इसी को हम समय का अभाव कहते हैं।”
जिसे हम समय का अभाव कहते हैं, वास्तव में वह समय की अव्यवस्था है। |
समय की अव्यवस्था ही समय का अभाव है। आप कितने घंटे काम करते हैं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं — उन घंटों में आप क्या काम करते हैं, यह महत्त्वपूर्ण है।
सन १९६८ में, मैं केनेडा की एक यूनिवर्सिटी में एम.बी.ए. कर रहा था। मैं ने देखा कि पश्चिमी देशों में समय के प्रबंधन (time-management) को बड़ी विशिष्टता दी जाती है। हर प्रक्रिया (process) के लिये ऐसी कार्य-विधि (method) निकाली जाती है, जिससे वह प्रक्रिया कम-से-कम समय में पूरी की जा सके। साथ ही यह भी सिखाया जाता है कि अपनी दिनचर्या को ऐसा बनाया जाये जिस में समय का पूरा-पूरा उपयोग हो। समय ही धन है — यह धारणा लोगों के मन में बसी हुई है।
आधुनिक युग का समय-प्रबंधन उस समय अपने तीसरे चरण (phase) से गुजर रहा था।
समय-प्रबंधन का पहला चरण उस समय शुरू हुआ था जब करने वाले सारे कामों की सूची बना ली जाती थी — जो काम करने हों उनकी एक लिस्ट बना लो। फिर जो काम होते जायें उनको लिस्ट में से काटते जाओ। साधारण सी दिखने वाली यह क्रिया आज भी कितनी कारगर (effective) है, यह आप सब अच्छी तरह से जानते हैं।
समय-प्रबंधन के दूसरे चरण में केलेंड़र और डायरी का प्रचलन शुरू हुआ। इन की सहायता से भविष्य के समय-नियोजन (planning) का भी समावेश होने लगा।
समय-प्रबंधन के तीसरे दौर में समय के साथ कार्य-विधि के अध्ययन और विश्लेषण (time & method studies) पर विशेष बल दिया जाता रहा है।
लेकिन, समय-प्रबंधन इस समय एक नये दौर से गुजर रहा है। समय-प्रबंधन की सारी प्रविधियाँ उपयोगी हैं, इसमें कोई शक नहीं है। किस कार्य को किस प्रकार किया जाये, यह जानकारी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। लेकिन, इस से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात एक और है — करने वाले सारे कामों की प्राथमिकताओं को समझना। कौन सा काम अधिक आवश्यक है और कौन सा काम कम, यह जानना बड़ा जरूरी है। बल्कि यों कहना चाहिए कि काम की उपयोगिता के आधार पर उसकी प्राथमिकता (priority) निर्धारित करना सबसे जरूरी काम है। इसलिये अब समय-प्रबंधन और नियोजन की कारगरता (effectiveness) कार्यों की प्राथमिकता के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक कह दिया है कि समय-प्रबंधन (time-management) तो बड़ा अनुपयुक्त नाम (misnomer) है — यह तो नामकरण ही गलत है। प्रबंधन हमें समय का नहीं, अपने आप का करना है। पहले हमें अपनी प्राथमिकताओं को समझना है, उसके बाद उपयुक्त कार्यवाही करनी है। हमारी अपनी प्राथमिकताओं का नियोजन ही समय का उचित नियोजन है।
जब हम अपनी प्राथमिकताओं को भूल जाते हैं, तो फिर हम कई व्यर्थ के कामों में उलझ जाते हैं।
समय और प्राथमिकताओं के सम्बन्ध को लेकर हम आपको अमरीका का एक किस्सा सुनाते हैं —
“अपने समय को कैसे नियोजित करें” — इस विषय पर समय-प्रबंधन के एक आधुनिक विशेषज्ञ एम.बी.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे। क्लास में बीस-पच्चीस विद्यार्थी थे — कुछ लड़के और कुछ लड़कियाँ। विशेषज्ञ प्रोफेसर चाहता था कि आज की क्लास को एक सबक इतनी पक्की तरह से समझाया जाये कि विद्यार्थी उसे जीवन भर न भूलें। इसलिये उस दिन का प्रशिक्षण उसने एक प्रयोग (experiment) के प्रदर्शन से किया।
“आज की पढ़ाई हम एक छोटे से व्यवहारिक प्रयोग (practical) के माध्यम से शुरू करते हैं” — कहते हुए उसने टेबल पर शीशे का जार रख दिया। यह जार खुले और चौड़े मुँह वाला था — कोई चार-पाँच लिटर के साइज का होगा। उसे टेबल पर ऐसे रखा ताकि सब विद्यार्थी उसे अच्छी तरह से देख सकें। फिर उसने एक झोला निकाला जिसमें पत्थर के टुकड़े भरे हुए थे। करीब-करीब मुट्ठी भर साइज के होंगे। पत्थर के ये टुकड़े ऐसे थे, जैसे अपने यहाँ मोटी गिट्टी होती है। उसने वे पत्थर के टुकड़े सावधानी के साथ उस जार में भर दिये। जब उसमें और पत्थर नहीं आ सके तो उसने क्लास के विद्यार्थियों से प्रश्न किया, “क्या यह जार भर गया?”
“हाँ”, सब ने जोरदार आवाज में उत्तर दिया।
“अच्छा! चलो देखते हैं”, कहकर उसने टेबल के नीचे से एक छोटी बाल्टी निकाली जिसमें बजरी (छोटी गिट्टी) भरी थी। उसने बजरी उस जार में उड़ेली और थोड़ा हिलाया। अब उसने जार को बजरी से भर दिया। अब वह थोड़ा मुस्कराया और क्लास से फिर पूछा, “ क्या जार भर गया?”
इस बार सब विद्यार्थी चुप रहे। वे समझ गये कि इसमें चाल है प्रोफेसर की। एक विद्यार्थी धीरे से बोला, “शायद नहीं।”
“बहुत अच्छे!” कहते हुए वह फिर टेबल के नीचे झुका और एक और छोटी सी बाल्टी निकाली जिसमें रेत भरी थी। उसने उस जार में रेत भरना शुरू किया। गिट्टी और बजरी (बड़े पत्थर और छोटे पत्थर) के बीच में जो खाली स्थान था वह रेत से भर दिया।
“क्या यह जार भर गया?” एक बार फिर उसने वही प्रश्न पूछा।
“नहीं”, पूरी क्लास जोर से चिल्ला पडी। अब उनको समझ में आ गया था कि क्या हो रहा है।
“बहुत खूब”, कहकर प्रोफेसर ने पानी का जग उठाया और उस जार को पानी से पूरा भर दिया।
“हाँ, तो यह बताओ, इस प्रयोग से हमें क्या शिक्षा मिलती है?” उसने विद्यार्थियों की ओर देखकर प्रश्न किया।
एक तेज तर्रार टाइप का लड़का था। उसने बडी उत्सुकता से हाथ उठाया और बोला, “चाहे हम कितने भी व्यस्त हों, कोशिश करने से अपनी दिनचर्या में और अधिक काम भर सकते हैं।”
“गलत! बिल्कुल गलत!! भरना ही यदि उद्देश्य होता तो पूरा जार रेत से ही भरा जा सकता था... या पानी से”, विशेषज्ञ प्रोफेसर ने जोर देते हुए कहा, “नहीं! इस प्रयोग का यह उद्देश्य बिल्कुल नहीं है।”
सारी क्लास स्तब्ध रह गई — एकदम चुप्पी छा गई। इसका और क्या प्रयोजन हो सकता है? एक मिनट तक प्रोफेसर चुप रहा। फिर वह मुस्कराते हुए बोला —
“यह परीक्षण हमें एक बहुत बडी सच्चाई सिखाता है — आप यदि बड़े पत्थर पहले नहीं डालोगे तो उन्हें कभी भी नहीं डाल पाओगे। रेत तो बाद में भी डल सकती है, लेकिन यदि जार को पहले रेत से भर दिया तो उसमें बड़े पत्थर नहीं आ सकते। इसलिय बड़े पत्थर पहले ही डालने होते हैं।”
महत्त्वपूर्ण, उपयोगी एवं आवश्यक काम आपको पहले करने होंगे, वरना आप उन्हें कभी नहीं कर पाओगे। बड़े पत्थर पहले डालने होते हैं — छोटे टुकड़े तो बाद में भी ड़ल सकते हैं। यदि आपने अपना समय अनावश्यक और अनुपयोगी कामों में लगा दिया तो आप के पास उपयोगी कामों के लिये कोई समय नहीं बच पायेगा। आपका आवश्यक काम किन्हीं अनावश्यक कामों की दया पर क्यों आश्रित रहे?
हमें अपने जीवन के बड़े पत्थरों को पहचानना है। बड़े पत्थर हमारी प्राथमिकताएँ हैं। ये प्राथमिकताएँ हमारे लक्ष्य पर निर्भर करती हैं। बिना लक्ष्य के हम अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित नहीं कर सकते। इसलिये बिना लक्ष्य के कोई प्राप्ति नहीं हो सकती। सुनियोजित श्रम तभी हो सकता है जब आप का लक्ष्य सुनिश्चित होता है। आप की सफलता आफ लक्ष्य के साथ जुडी हुई है।
जिसका लक्ष्य निश्चित होता है, वह ही अपनी प्राथमिकताओं को जान सकता है। फिर वह अपने बड़े पत्थर पहले डालता है। जो बड़े पत्थर पहले डालता है, उसके पास समय की कोई कमी नहीं रह जाती। फिर, नानक जी की तरह वह भी जान जाता है कि समय हमारा सेवक है, मालिक नहीं। नानक जी कहते हैं कि रात और दिन दाई और दाया हैं। रात आपकी सेविका है, दिन आपका सेवक है। ये दोनों आपके खेलने के लिये बने हैं। सारा संसार इसी में खेल रहा है—
पवन गुरु पाणी पिता, माता धरती महतु।
दिवस रात दुइ दाई दाइआ, खेले सगल जगतु।।
गुरु नानक जी की बात समझने वाली है। वास्तव में तो समय हमारा दास है, लेकिन हम इस बात को नहीं समझते। हम लोगों ने अपने आप को समय का दास बना कर रखा हुआ है। हम सोचते हैं कि समय पर हमारा कोई वश नहीं है। फिर हम समय को अपना शत्रु समझते हैं। इसीलिए जे. कृष्णामूर्त्ति कहते हैं — Time is the pscychological enemy of man — अर्थात समय मनुष्य का मानसिक शत्रु है। समय के प्रति शत्रुता की यह भावना हमें दुख देती है।
देखा जाये तो हमारे पास समय ही समय है। जीवन का अर्थ ही है — समय! समय हमारी समस्या नहीं है, समस्या तो हमारी अनभिज्ञता है — हम अपनी प्राथमिकताओं से अनभिज्ञ हैं। फिर हम इस अनभिज्ञता का प्रदर्शन बड़े गर्व से करते हैं — “हमारे पास तो समय नहीं है।” सोचिये जरा! क्या अर्थ है इसका? इसका अर्थ है कि हमने समय को अपना मालिक बना दिया है, और खुद का उसका गुलाम। इसक अर्थ है कि हम समय का उपयोग करना नहीं जानते, इसलिये समय हमारा उपयोग करने लगा है। लेकिन जो अपनी प्राथमिकताओं को जान लेता है, वह समय का मालिक बन कर जीता है। वह इसी समय में सब कुछ पा जाता है — अपने बड़े वाले पत्थर पहले डाल कर।
आप गुलाम नहीं, मालिक हैं — समय आपके पास बहुत है। समय तो चौबीसों घंटे आपकी सेवा में हाज़िर है — इस का उपयोग करना तो सीखिये!
जो कोई “मेरे पास समय नहीं है” कहना छोड़ देता है, उस की सफलता के लिये आवश्यक सारा समय उस के पास आ जाता है। |
आपने देखा होगा कि हमारे बहुत से देवी-देवताओं की भुजाएँ दो से अधिक होती हैं — चार, आठ, सौलह या सैंकड़ों। कई बार हज़ार भुजाओं का भी जिक्र आता है। इतनी भुजाओं का क्या अर्थ है? भुजाओं की अधिकता देवी-देवताओं की कार्य-क्षमता का प्रतीक है। इतनी सारी भुजाओं का अर्थ है कि देवतागण हमसे कई गुनी अधिक कार्य-क्षमता रखते हैं। समय तो सबके पास बराबर होता है, फिर भी एक व्यक्ति की उत्पादन शीलता (productivity) दूसरे से कई गुनी अधिक हो सकती है। यह समय के नियोजन से हो पाता है। समय का संयम इसी में है।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं — आप डाक्टर हो सकते हैं, वकील हो सकते हैं, बड़े सेठ हो सकते हैं, प्रोफेसर हो सकते हैं, विद्यार्थी हो सकते हैं। यदि आप समय का उपयोग योजनाबद्ध तरीके से नहीं करते तो आप जीवन जी नहीं रहे हैं बल्कि दिन काट रहे हैं। आफ जीवन का लक्ष्य दिन काटना नहीं है। मात्र दिन काटने से आप के लक्ष्य की पूर्त्ति नहीं होती। आपके लक्ष्य की पूर्त्ति तो सुख से भरपूर जीवन जीने में होती है।
2 टिप्पणियाँ:
कम से कम इतना तो लिख दीजिये कि साभार नीचे की लिंक से--अमित बाबू आपने जो जानकारी दी उसके लिये धन्यवाद लेकिन मूल लेखक का नाम साहित्य कुंज से लेकर दे दें तो मेहरबानी वरना भड़ास वाले तो चॊर बदमाश हैं ही
जय जय भड़ास
विषय वास्तु इतनी बढ़िया थी की मै उसे तुंरत आप सभी के लिए ले आया , अति उत्साह और जल्दी मे लेखक को धन्यवाद देना भूल गया
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