लो क सं घ र्ष !: ऊदा देवी :- अन्तिम भाग

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

इससे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिए कि ऊदा देवी का शौर्य और पराक्रम 1857 के महाविद्रोह की केन्द्रीय चेतना से सम्बद्ध नहीं था, यह कि उनकी शहादत मुक्ति के विराट स्वप्न को साकार करने की दिशा में दी गयी आहुति नहीं थी। उनकी शहादत को व्यक्तिगत प्रतिशोध की अभिव्यक्ति मानने वाले यकीनीतौर पर ऊदादेवी के क़द को छोटा करते हैं। साथ ही वे आज़ादी की इस विलक्षण लड़ाई में जनता के सभी हिस्सों की शिरकत के चमकीले यथार्थ को धुँधलाने की कोशिश भी करते हैं। मक्का पासी की शहादत हो या ऊदादेवी का बलिदान, इसके वृहत्तर सन्दर्भ का अनुमान इससे लग सकता है जितना कि इस महाविद्रोह के स्वरुप का मजाक उड़ाते हुए अंग्रेज इतिहासकारों का यह कहना कि ‘तब एक सिपाही भी अपने को राजा समझता था’ या घुड़सवार सिपाहियों की यह घोषणा कि ‘ख़ल्क़ खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल सिपाही का।’
बहुत बार बहुत अवसरों पर बादशाह के हुक्म की भी प्रतीक्षा नहीं की गयी। कई ऐसी साहसिक घटनाएँ भी प्रकाश में आईं जब विद्रोही सैनिकों तथा निःशस्त्र ग्रामीणों ने अपने हौसले और विवेक से अंग्रेज अधिकारियों और सेना पर घातक हमले किये। मगरवारा (उन्नाव) में जनरल आउट्म की मजबूत सेना पर ग्रामीणजनों द्वारा खेतों से गन्ने उखाड़कर टूट पड़ना, ऐसी ही एक अनूठी घटना है, ऐसी बहुत सी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। अवश्य ही सिकन्दरबाग की लड़ाई के एकमात्र निजी विवेक से उठ खड़े होने के ठोस प्रमाण नहीं मिलते क्योंकि यह मोर्चा 6 अगस्त को ब्रिजीस कदर की ताजपोशी के साथ बेगम हजरत महल द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध निर्णायक युध्द की घोषणा तथा आलमबाग के जबरदस्त प्रतिरोधी संघर्ष के बाद शौर्यगाथाओं की मूर्तता का दस्तावेज बना। भूलना नहीं चाहिए कि इस लड़ाई में शामिल नवाबी सलतनत के महिला दस्ते की अधिकांश सैनिकों के पास उस समय के आधुनिक हथियार थे। ऊदा देवी के पास भी। इतना अवश्य है कि काल्विन कैम्पबेल सिकन्दरबाग, किसी योजना के तहत नहीं बल्कि रास्ता भटक जाने के कारण पहुँचा था, इसलिए यहाँ उसकी सेना पर किया गया आक्रमण भी पूर्व नियोजित नहीं माना जा सकता। शायद यही कारण था कि यहाँ उसकी सेना भारी पड़ी। निश्चय ही इस लड़ाई को जुझारू धार देने में ऊदादेवी का विवेक, संकल्प शक्ति, रणकौशल तथा अंग्रेजों को मज़ा चखाने की प्रतिबद्धता ठोस रूप में मौजूद प्रतीत होती है।
यहाँ यह उल्लेख शायद अप्रासंगिक न हो कि सिकन्दर महल का निधन वाजिद अली शाह की वली अहदी में ही हो गया था। नवाब साहब की अतिप्रिय बेगम तो वह थीं ही, दरबार से जुड़े दूसरे लोग तथा परियाँ भी उनसे बहुत प्यार करती थीं। इस उल्लेख का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि अपने महल के बाहरी व भीतरी हिस्सों में हुए ऐतिहासिक युद्ध में सिकन्दर महल मौजूद नहीं थीं। अपनी प्रिय सेनानायक की स्मृति को शेष रखने वाले भवन के सम्मुख काल्विन की सेना से मोर्चा लेकर ऊदा देवी ने इस लड़ाई में एक और आयाम जोड़ा।
डा0 राम विलास शर्मा ने ‘‘स्वाधनीता संग्राम, बदलते परिप्रेक्ष्य’’ में लिखा है ‘‘हिन्दुस्तानी सिपाही जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहे थे, उनकी सफलताओं के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता अत्यंत आवश्यक थी। राष्ट्रीय एकता, स्वाधीनता और नई लोकसत्ता इन तीनों में एक भी उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना चरितार्थ न होता था।’’
उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि ‘‘सेना के भीतर हिन्दू-मुसलमान अफसरों और सिपाहियों की वह एकता, भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में जब सुनियोजित तरीके से कुटीर उद्योगों, संस्कृति के सभी उज्ज्वल मानवीय पक्षों की घेराबंदी हो रही है या फिर उसे उत्तेजक अश्लीलता की कामुक लम्पटता दी जा रही है, बाज़ारवादी शक्तियँा दृश्य माध्यमों का निर्मम इस्तेमाल करते हुए धार्मिक भावनाओं को बाजार पर प्रभुत्व पाने के उद्देश्य से बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं। श्रम का मूल्य घट रहा है। विदेशी वस्तुओं से बाजार की चमक बढ़ रही है। स्वदेशी की भावना तथा स्वदेशी आन्दोलन की बहुमूल्य थाती धुँधला रही है। साधनहीन लोगों के लिए विकास के अवसर सीमित हो रहे हैं। तब यानी कि ऐसे कठिन समय में 1857 के महाविद्रोह तथा इसमें ऊदा देवी और उनके पति द्वारा दी गयी शहादत को याद करने की निश्चित ही विशिष्ट प्रासंगिकता है। यकीनन 1857 के उस महान जन विद्रोह तथा उसमें शामिल लोगों के बारे में अभी बहुत कुछ सामने आना शेष है, ऐसे समय में जब स्वतंत्रता आंदोलन के विरोधियों, उससे विश्वासघात करने वालों को महिमामंडित किया जा रहा हो, तब उस महासंग्राम के बारे में व्यापाकता से विचार होना तथा उस दौर के समूचे इतिहास को सम्पूर्णता के साथ उद्घाटित होना आवश्यक है।

एक अंग्रेज सार्जेण्ट का संस्मरण
सिकन्दरबाग के अन्दरूनी हिस्से के बीचाबीच पीपल का एक बहुत बड़ा घना पेड़ था। उसके नीचे ठण्डे पानी के बहुत से मटके रखे हुए थे। जब सिकन्दरबाग के युद्ध में रक्तपात का अंत हुआ तो बहुत से सिपाही अपनी प्यास बुझाने तथा पीपल के नीचे ठण्डी छाँव का आनन्द लेने लगे। इस पीपल के नीचे ब्रिटिश सेना की 53वीं और 9वीं सैनिक टुकड़ी के बहुत से जवान मरे हुए पड़े थे। लेकिन एक स्थान पर कैप्टन डासन का ध्यान गया कि इन मृत सैनिकों के शरीर के घावों से प्रकट होता है इनकी मृत्यु ऊपर से गोली चलाये जाने के कारण हुई है। कैप्टेन डाॅसन शीघ्र ही पीपल की छाया से बाहर निकला ओर उसने केकर वालेस को इस उद्देश्य से बुलाया कि वह पीपल के ऊपर देख्ेा कि वहाँ कोई है तो नहीं। उसने कहा कि यूरोपीय सिपाहियों की मौत रणक्षेत्र में आमने-सामने से चली गोलियों से नहीं बल्कि पेड़ के ऊपर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा गोलियाँ चलाये ंजाने के कारण हुई है। वालेस के पास उसकी भरी हुई बन्दूक थी, सावधानी पूर्वक पीछे हटते हुए, पेड़ पर बैठे व्यक्ति की तलाश उसने आरम्भ की। तत्काल ही उसने कैप्टेन डासन से कहा, मैने उसे देख लिया है, फिर अपनी बन्दूक ऊपर की ओर तानते हुए उसने कहा कि अब मैं भगवान के सामने अपना वचन पूरा करुँगा। यह कहते हुए उसने गोली चला दी। गोली चलने के तुरन्त बाद पीपल से किसी व्यक्ति का शरीर नीचे गिरा। यह व्यक्ति लाल रंग की कसी हुई जैकेट और गुलाबी रंग की कसी हुई पैंट पहने था। उस व्यक्ति के नीचे गिरने से जब एक झटके के साथ उसकी जैकेट खुल गयी तो पता लगा कि पेड़ से गिरने वाला व्यक्ति पुरुष न होकर एक महिला थी। यह महिला पुराने माडल की दो पिस्तौलांे से लैस थी। इनमें से एक पिस्तौल खाली थी, दूसरी में उस समय भी गोलियाँ भरी थीं। उसकी आधी जेब में भी गोलियाँ भरी हुई थीं। वालेस यह देखकर कि जिस व्यक्ति को उसने मार गिराया वह कोई पुरूष नहीं बल्कि महिला है, वह फूट-फूट कर रोने लगा। साथ ही उसने कहा, यदि मुझे मालूम होता कि यह औरत है तो मैं हज़ार बार मर जाता परन्तु उसे नुकसान नहीं पहुँचाता।’’

शकील सिद्दीकी
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(समाप्त)

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