लो क सं घ र्ष !: माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे -1
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
हाल के दिनों में भारत में माओवादी काफी चर्चा में रहें हैं। लालगढ़ और झारखंड की सीमा से लगे पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले में माओवादियों की सक्रियता पिछले कुछ महीनों से संचार माध्यमों की सुर्खियों में स्थान पाती रही है।
लालगढ़ के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और लिखना जारी रहेगा। उन माओवादियों में हमारी गंभीर दिलचस्पी है जिन्होंने गहरे शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते हुए और राज्य पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध आदिवासी जनों के आन्दोलन की पीठ पर सवार होकर लालगढ़, छत्तीसगढ़ के दंडाकारण्य में और कुछ अन्य क्षेत्रों में अपनी जडंे़ जमा ली हैं।
लालगढ़ से पहले माओवादी गुरिल्लों ने गढ़चिरौली (महाराष्ट्र,) दांतेवाड़ा (छत्तीसगढ़), खुंटी (बिहार), कोरापुट (उड़ीसा), लतेहर, धामतारी (छत्तीसगढ़) आदि स्थानों पर पुलिस बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस (सी आरटीएफ) ,सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सी आरपीएफ) कर्मियों और कमांडों पर हमलों का एक सिलसिला चलाया, जिसमें इन बलों के 112 कर्मी मारे गए और अनेक जख्मी हुए। कोरापुट जिले के दामनजोडी़ में, जहाँ सीआईएसएफ के 8 कर्मी मारे गये थे, उनका हमला एक प्रतिष्ठित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम- नालको की पंचपटमाली बाक्साइट-खदान और एनएमडीसी के खदान-पर हुआ था। हमले का उद्देश्य वहाँ बारूद खाने में जमा अच्छी किस्म के विस्फोटकों पर धावा बोलना था। उस धावे से इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कामकाज में बाधा पहुँची और वहाँ काम करने वाले हजारों मजदूरों में डर की भावना पैदा हो गई। सबसे गंभीर मामला था बीजापुर जिले (छत्तीसगढ़) में पुलिस के बेस कैम्प पर दहला देने वाला हमला, जिसमें 65 पुलिसकर्मी मारे गए। ये सारी कार्रवाइयाँ चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के दौरान की गईं। ज़ाहिर है उनको चुनाव पर नजर रखते हुए अंजाम दिया गया था। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पदभार सँभालते ही यह घोषणा करनी पड़ी कि आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद से निपटना यूपीए-2के लिए एक सर्वप्रमुख प्राथमिकता का कार्य होगा। लालकिले की प्राचीर से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी प्रधानमंत्री माओवादियों को यह चेतावनी देना नहीं भूले कि ‘‘जो लोग सोचते हैं कि वे हथियारों का सहारा लेकर सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं वे हमारे लोकतंत्र की ताकत को नहीं समझते। केन्द्र सरकार नक्सली गतिविधियों से निपटने की अपनी कोशिश को तेज करेगी।’’
17 अगस्त को आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में वामपंथी उग्रवाद से लड़ने का मुद्दा एजेंडे में सबसे बड़े मुद्दों में से था और इसकी प्राथमिकता सूखे की आपदा के बराबर हो गई जिससे देश का आधा हिस्सा प्रभावित है। तमाम आवश्यक वस्तुओं की महंगाई, जिससे हमारे देश के लोगों को ज़बरदस्त चोट पहुँच रही है, उसका तो उसमें थोड़ा बहुत ही जिक्र हुआ।
प्रधानमंत्री ने पहले कहा था कि 160 जिले माओवादियों के नियंत्रण में हैं या इतने जिलों में वे घुसपैठ कर चुके हैं। जब एक इन्टरव्यू लेने वाले ने सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति से पूछा कि कितना भूक्षेत्र उनके वास्तविक निंयंत्रण में है तो उन्होंने शालीनता एवं संकोच प्रदर्शित करते हुए कहा कि वे इस तरह के आँकड़ों पर यकीन नहीं करते हैं। इससे यही पता चलता है कि ‘‘भारत के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के लिए वे (माओवादी) कितना बड़ा दुःस्वप्न बन गए हैं।’’ उन्होंने कहा कि ‘‘ये अधिकांश आँकड़े’’ महज काल्पनिक हैं और इन्हें जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए और अधिक पुलिस बल तैनात किया जा सके और ज्यादा पैसा आवंटित किया जा सके। पर साथ ही गणपति यह बखान करना नहीं भूले कि ‘जहाँँ तक हमारे असर की बात है वह इससे भी ज्यादा हैं।’’
आजकल, माओवादी राजनैतिक और संचार माध्यमों, दोनों ही क्षेत्रों में चर्चा का विषय हैं। अतः किसी को भी उनके बारे में और अधिक जानना चाहिए। ऐसे मामलों में जानकारी का पहला साधन जिसमें क्रांति के लिए संघर्ष करने वाली एक पार्टी जैसा वे दावा करते हैं- के रूप में उन्होंने अपनी नीतियों, अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों, अपनी कार्यनीति और रणनीति को पेश किया है। उनके वास्तविक व्यवहार से भी तुलना कर उसे देखा जाना चाहिए।
उनके सबसे अधिक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से बहुत से हमारे पास हैं। यहाँ हम उनमें से तीन का हवाला दे रहे हैं:
(1) उनका पार्टी कार्यक्रम, जिसे अनुमानतः उनकी 9वीं कांग्रेस में पारित किया गया। यह सी0पी0आई0 (एम0एल0), पीपुल्स वार, एम0सी0सी0आई0 और सी0पी0आई (एम0एल0) पार्टी यूनिटी के परस्पर विलीनीकरण और स्वयं का सी0पी0आई0 (माओवादी) का नाम रखने के बाद आयोजित एकता कांग्रेस (यूनिटी कांग्रेस) थी। यह 9वीं कांग्रेस, सी0पी0आई0 (एम0एल0) पीपुल्स वार की आठवीं कांग्रेस के 37 वर्ष बाद, 2007 में गुप्त रूप से आयोजित की गई थी।
(2) सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति के साथ इन्टरव्यू। यह एक लम्बा और विशद इंटरव्यू है जिसमें उनके कार्यक्रम, उनकी वर्तमान गतिविधियों आदि के वस्तुतः तमाम पहलू शामिल हैं। इसे सी0पी0आई0 (माओवादी) के प्रवक्ता, किसी आजाद नाम के व्यक्ति ने अप्रैल 2007 में जारी किया था, और
(3) सी0पी0आई0 (माओवादी) पोलित ब्यूरो द्वारा 12 जून 2009 को जारी ‘‘चुनाव बाद की स्थिति पर एक रिपोर्ट-हमारे कार्य।’’
ये सब काफी विस्तृत एवं विशद दस्तावेज हैं। कुछ समय बाद एक राजनैतिक पेम्फलेट में उनके सम्बंध में विश्लेषण और चर्चा की जानी चाहिए। फिलहाल हम कुछ पहलुओं पर विचार करना चाहते हैं जो आंदोलन के तात्कालिक महत्व के हैं।
पार्टी कार्यक्रम इस बात पर जोर देते हुए शुरू होता है कि दो धाराएँ, जो सी0पी0आई (माओवादी) बनाने के लिए एक साथ मिलीं, ये ‘‘माक्र्सवाद-लेनिनवाद -माओवाद को भारत के मौजूदा वास्तविक हालात में लागू करने की प्रक्रिया में और सी0पी0आई0 और सी0पी0आई0 (एम) के पुराने चले आ रहे संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष कर उसका पर्दाफाश कर सामने आईं।’’ वर्षों पहले सी0पी0आई0 से टूटकर अलग होते समय सी0पी0आई (एम) ने सी0पी0आई0 पर ‘‘संशोधनवादी’’ का आरोप लगाया था। अब वही आरोप लगने की बारी सी0पी0आई0 (एम) की है। इसके परिणाम स्वरूप सी0पी0आई0 (एम0एल0) बना। का0 गणपति सी0पी0आई0 (एम0एल0) को यह कहते हुए निपटाते हैं कि विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाले ‘लिबरेशन’ ग्रुप का 1970 के गौरवपूर्ण संघर्षों के इतिहास के बाद 1980 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में अधः पतन शुरू हो गया...’’।
अन्य कुछ ग्रुपों को भी इसी तरह निपटाते हुए वह कहते हैं कि ‘‘वे राज्य के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत को भविष्य में किसी शुभ मुहूर्त के लिए टालते रहे।’’ अब सी0पी0आई0 (माओवादी) ही एक ऐसी अकेली पार्टी है जो लम्बे जनयुद्ध को चलाएगी और जनवादी क्रांति एवं समाजवादी क्रांति दोनों ही चरणों के दौरान देश की तमाम ताकतों की अगुवाई एवं पथ प्रदर्शन करेगी। हर कोई जानने को उत्सुक होगा कि इस तरह भारतीय क्रांति का नेतृत्व पहले से मजबूत हो गया है या कमजोर।
अपने आप को, हर किस्म के दमन और सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध ‘‘संघर्षरत जनगण’’ का सच्चा एवं एकमात्र रक्षक के रूप में पेश करते हुए, सी0पी0आई0 (माओवादी) मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियों और तमाम अन्य कम्युनिस्ट ग्रुपों की अवमानना करने की हद तक चली गई है। ऐसा नहीं है कि वह मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अपने ऊपर लगाम लगाने की भूमिका से अनजान है। चुनाव बाद की स्थिति के सम्बंध में वह अपनी रिपोर्ट में कहते हैं:
‘‘इस तथ्य ने, कि कांग्रेस नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) फिर से निर्वाचित हो गया हैऔर कांग्रेस की लोकसभा में सीटें बढ़ गई हैं और वह पिछली बार के मुकाबले कहीं अधिक निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में है यूपीए को और इसके बड़े घटक कांग्रेस को हमारी पार्टी और आंदोलन के विरुद्ध पहले से कहीं अधिक नृशंस और पहले से कहीं अधिक बड़े सैन्य हमले शुरु करने के लिए कहीं अधिक संभावनाएँ प्रदान कर दी हैं। पिछली सरकार में, जहाँ इसके पास अपेक्षाकृत कम सीटें थीं, सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस को अपने विभिन्न सहयोगियों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता था और वामपंथ ने भी लगभग चार वर्ष तक मनमोहन सिंह सरकार पर कुछ दबाव बनाए रखा। हमें ध्यान रखना होगा कि चुनाव परिणाम से यूपीए सरकार को कहीं अधिक क्रूर किस्म के कानून बनाने और कहीं अधिक फासिस्ट कदमों पर अमल करने और जन संघर्षों को कुचलने की अधिक गुंजाइश मिल गई है।‘‘
माओवादी और बहिष्कार का
उनका आह्वान
चुनाव के संबंध मेें माओवादियों की रिपोर्ट, चुनाव के बहिष्कार के अपने अभियान पर विस्तार से चर्चा करती है। वह कहती है कि अपने शासन के लिए वैधता प्राप्त करने के लिए और संसदीय व्यवस्था की छवि को फिर से चमकाने के लिए शासक वर्गाें ने अपने पास उपलब्ध सभी तौर तरीकों का इस्तेमाल किया। यहाँ तक कि बंदूक की छाँह में मतदान कराया (शंातिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बल इस काम में जुटाए गए)। उद्देश्य था मतदान का और अधिक प्रतिशत और भारत में लोकतंत्र के लिए और अधिक अंक सुनिश्चित किया जाए।
माओवादी कहते हैं कि ’’हमारी पार्टी द्वारा चुनाव के बहिष्कार को विफल करने के लिए प्रतिक्रियावादी शासकों ने अपने पास उपलब्ध तमाम तौर तरीकों का इस्तेमाल किया था और वह आगे दावा करते हैं कि ’’कुल मिलाकर, चुनाव से दूर रहकर मतदाताओं के बहुमत ने अपेक्षाकृत अधिक जागरुकता का परिचय दिया। हमारा प्रचार अभियान इतना प्रभावी था कि दंडकारण्य (दांतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, बस्तर और कांकेर जिले और राजनांदगांव के कुछ हिस्से) के अधिकांश देहाती इलाकों में, बिहार और झारखण्ड के अनेक जिलों में जहाँ मतदान प्रतिशत 2004 के मुकाबले अत्यधिक कम हो गया, पश्चिम बंगाल में पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरूलिया में राजनैतिक पार्टियों का चुनाव मुश्किल से ही कहीं था और पश्चिम बंगाल के लालगढ़ क्षेत्र में पूरी तरह बहिष्कार हुआ।
सर्वप्रथम, तथ्य क्या हैं?
पिछले तीन दशकों से मतदान प्रतिशत में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। 1977 में मतदान 60.5 प्रतिशत था और इस बार मतदान 58.2 प्रतिशत था। थोड़ा सा ही कम। यह सोचना कि माओवादियों के बहिष्कार अभियान का कोई महत्वपूर्ण असर पड़ा महज अपने आप को भुलावे में रखना होगा।
जहाँ तक बंदूक उठाए उन सुरक्षा बलों की बात है जिन्हें और अधिक प्रतिशत के लिए जुटाया गया था तो यह भी उतना ही सही है कि माओवादियों ने जिन कुछ इलाकों का नाम लिया है वहाँ बहिष्कार भी बंदूक की छाँह में ही लागू किया गया था। जो कोई भी मतदान करने जाएगा उसे बुरा नतीजा भुगतने की धमकियाँ दी गईं थीं। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि बहिष्कार को लागू करने से भाजपा/कांग्रेस को ही विधानसभा और संसदीय चुनाव जीतने में मदद मिली और सीपीआई के उम्मीदवारों को, जो शुरु से ही ‘‘सलवा जुडुम‘‘ की लूटपाट और विध्वंस के विरुद्ध संघर्ष की कतारों में खुलेआम सबसे आगे थे, नुकसान पहँुचा।
लालगढ़ से पहले माओवादी गुरिल्लों ने गढ़चिरौली (महाराष्ट्र,) दांतेवाड़ा (छत्तीसगढ़), खुंटी (बिहार), कोरापुट (उड़ीसा), लतेहर, धामतारी (छत्तीसगढ़) आदि स्थानों पर पुलिस बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस (सी आरटीएफ) ,सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सी आरपीएफ) कर्मियों और कमांडों पर हमलों का एक सिलसिला चलाया, जिसमें इन बलों के 112 कर्मी मारे गए और अनेक जख्मी हुए। कोरापुट जिले के दामनजोडी़ में, जहाँ सीआईएसएफ के 8 कर्मी मारे गये थे, उनका हमला एक प्रतिष्ठित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम- नालको की पंचपटमाली बाक्साइट-खदान और एनएमडीसी के खदान-पर हुआ था। हमले का उद्देश्य वहाँ बारूद खाने में जमा अच्छी किस्म के विस्फोटकों पर धावा बोलना था। उस धावे से इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कामकाज में बाधा पहुँची और वहाँ काम करने वाले हजारों मजदूरों में डर की भावना पैदा हो गई। सबसे गंभीर मामला था बीजापुर जिले (छत्तीसगढ़) में पुलिस के बेस कैम्प पर दहला देने वाला हमला, जिसमें 65 पुलिसकर्मी मारे गए। ये सारी कार्रवाइयाँ चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के दौरान की गईं। ज़ाहिर है उनको चुनाव पर नजर रखते हुए अंजाम दिया गया था। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पदभार सँभालते ही यह घोषणा करनी पड़ी कि आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद से निपटना यूपीए-2के लिए एक सर्वप्रमुख प्राथमिकता का कार्य होगा। लालकिले की प्राचीर से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी प्रधानमंत्री माओवादियों को यह चेतावनी देना नहीं भूले कि ‘‘जो लोग सोचते हैं कि वे हथियारों का सहारा लेकर सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं वे हमारे लोकतंत्र की ताकत को नहीं समझते। केन्द्र सरकार नक्सली गतिविधियों से निपटने की अपनी कोशिश को तेज करेगी।’’
17 अगस्त को आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में वामपंथी उग्रवाद से लड़ने का मुद्दा एजेंडे में सबसे बड़े मुद्दों में से था और इसकी प्राथमिकता सूखे की आपदा के बराबर हो गई जिससे देश का आधा हिस्सा प्रभावित है। तमाम आवश्यक वस्तुओं की महंगाई, जिससे हमारे देश के लोगों को ज़बरदस्त चोट पहुँच रही है, उसका तो उसमें थोड़ा बहुत ही जिक्र हुआ।
प्रधानमंत्री ने पहले कहा था कि 160 जिले माओवादियों के नियंत्रण में हैं या इतने जिलों में वे घुसपैठ कर चुके हैं। जब एक इन्टरव्यू लेने वाले ने सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति से पूछा कि कितना भूक्षेत्र उनके वास्तविक निंयंत्रण में है तो उन्होंने शालीनता एवं संकोच प्रदर्शित करते हुए कहा कि वे इस तरह के आँकड़ों पर यकीन नहीं करते हैं। इससे यही पता चलता है कि ‘‘भारत के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के लिए वे (माओवादी) कितना बड़ा दुःस्वप्न बन गए हैं।’’ उन्होंने कहा कि ‘‘ये अधिकांश आँकड़े’’ महज काल्पनिक हैं और इन्हें जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए और अधिक पुलिस बल तैनात किया जा सके और ज्यादा पैसा आवंटित किया जा सके। पर साथ ही गणपति यह बखान करना नहीं भूले कि ‘जहाँँ तक हमारे असर की बात है वह इससे भी ज्यादा हैं।’’
आजकल, माओवादी राजनैतिक और संचार माध्यमों, दोनों ही क्षेत्रों में चर्चा का विषय हैं। अतः किसी को भी उनके बारे में और अधिक जानना चाहिए। ऐसे मामलों में जानकारी का पहला साधन जिसमें क्रांति के लिए संघर्ष करने वाली एक पार्टी जैसा वे दावा करते हैं- के रूप में उन्होंने अपनी नीतियों, अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों, अपनी कार्यनीति और रणनीति को पेश किया है। उनके वास्तविक व्यवहार से भी तुलना कर उसे देखा जाना चाहिए।
उनके सबसे अधिक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से बहुत से हमारे पास हैं। यहाँ हम उनमें से तीन का हवाला दे रहे हैं:
(1) उनका पार्टी कार्यक्रम, जिसे अनुमानतः उनकी 9वीं कांग्रेस में पारित किया गया। यह सी0पी0आई0 (एम0एल0), पीपुल्स वार, एम0सी0सी0आई0 और सी0पी0आई (एम0एल0) पार्टी यूनिटी के परस्पर विलीनीकरण और स्वयं का सी0पी0आई0 (माओवादी) का नाम रखने के बाद आयोजित एकता कांग्रेस (यूनिटी कांग्रेस) थी। यह 9वीं कांग्रेस, सी0पी0आई0 (एम0एल0) पीपुल्स वार की आठवीं कांग्रेस के 37 वर्ष बाद, 2007 में गुप्त रूप से आयोजित की गई थी।
(2) सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति के साथ इन्टरव्यू। यह एक लम्बा और विशद इंटरव्यू है जिसमें उनके कार्यक्रम, उनकी वर्तमान गतिविधियों आदि के वस्तुतः तमाम पहलू शामिल हैं। इसे सी0पी0आई0 (माओवादी) के प्रवक्ता, किसी आजाद नाम के व्यक्ति ने अप्रैल 2007 में जारी किया था, और
(3) सी0पी0आई0 (माओवादी) पोलित ब्यूरो द्वारा 12 जून 2009 को जारी ‘‘चुनाव बाद की स्थिति पर एक रिपोर्ट-हमारे कार्य।’’
ये सब काफी विस्तृत एवं विशद दस्तावेज हैं। कुछ समय बाद एक राजनैतिक पेम्फलेट में उनके सम्बंध में विश्लेषण और चर्चा की जानी चाहिए। फिलहाल हम कुछ पहलुओं पर विचार करना चाहते हैं जो आंदोलन के तात्कालिक महत्व के हैं।
पार्टी कार्यक्रम इस बात पर जोर देते हुए शुरू होता है कि दो धाराएँ, जो सी0पी0आई (माओवादी) बनाने के लिए एक साथ मिलीं, ये ‘‘माक्र्सवाद-लेनिनवाद -माओवाद को भारत के मौजूदा वास्तविक हालात में लागू करने की प्रक्रिया में और सी0पी0आई0 और सी0पी0आई0 (एम) के पुराने चले आ रहे संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष कर उसका पर्दाफाश कर सामने आईं।’’ वर्षों पहले सी0पी0आई0 से टूटकर अलग होते समय सी0पी0आई (एम) ने सी0पी0आई0 पर ‘‘संशोधनवादी’’ का आरोप लगाया था। अब वही आरोप लगने की बारी सी0पी0आई0 (एम) की है। इसके परिणाम स्वरूप सी0पी0आई0 (एम0एल0) बना। का0 गणपति सी0पी0आई0 (एम0एल0) को यह कहते हुए निपटाते हैं कि विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाले ‘लिबरेशन’ ग्रुप का 1970 के गौरवपूर्ण संघर्षों के इतिहास के बाद 1980 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में अधः पतन शुरू हो गया...’’।
अन्य कुछ ग्रुपों को भी इसी तरह निपटाते हुए वह कहते हैं कि ‘‘वे राज्य के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत को भविष्य में किसी शुभ मुहूर्त के लिए टालते रहे।’’ अब सी0पी0आई0 (माओवादी) ही एक ऐसी अकेली पार्टी है जो लम्बे जनयुद्ध को चलाएगी और जनवादी क्रांति एवं समाजवादी क्रांति दोनों ही चरणों के दौरान देश की तमाम ताकतों की अगुवाई एवं पथ प्रदर्शन करेगी। हर कोई जानने को उत्सुक होगा कि इस तरह भारतीय क्रांति का नेतृत्व पहले से मजबूत हो गया है या कमजोर।
अपने आप को, हर किस्म के दमन और सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध ‘‘संघर्षरत जनगण’’ का सच्चा एवं एकमात्र रक्षक के रूप में पेश करते हुए, सी0पी0आई0 (माओवादी) मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियों और तमाम अन्य कम्युनिस्ट ग्रुपों की अवमानना करने की हद तक चली गई है। ऐसा नहीं है कि वह मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अपने ऊपर लगाम लगाने की भूमिका से अनजान है। चुनाव बाद की स्थिति के सम्बंध में वह अपनी रिपोर्ट में कहते हैं:
‘‘इस तथ्य ने, कि कांग्रेस नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) फिर से निर्वाचित हो गया हैऔर कांग्रेस की लोकसभा में सीटें बढ़ गई हैं और वह पिछली बार के मुकाबले कहीं अधिक निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में है यूपीए को और इसके बड़े घटक कांग्रेस को हमारी पार्टी और आंदोलन के विरुद्ध पहले से कहीं अधिक नृशंस और पहले से कहीं अधिक बड़े सैन्य हमले शुरु करने के लिए कहीं अधिक संभावनाएँ प्रदान कर दी हैं। पिछली सरकार में, जहाँ इसके पास अपेक्षाकृत कम सीटें थीं, सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस को अपने विभिन्न सहयोगियों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता था और वामपंथ ने भी लगभग चार वर्ष तक मनमोहन सिंह सरकार पर कुछ दबाव बनाए रखा। हमें ध्यान रखना होगा कि चुनाव परिणाम से यूपीए सरकार को कहीं अधिक क्रूर किस्म के कानून बनाने और कहीं अधिक फासिस्ट कदमों पर अमल करने और जन संघर्षों को कुचलने की अधिक गुंजाइश मिल गई है।‘‘
माओवादी और बहिष्कार का
उनका आह्वान
चुनाव के संबंध मेें माओवादियों की रिपोर्ट, चुनाव के बहिष्कार के अपने अभियान पर विस्तार से चर्चा करती है। वह कहती है कि अपने शासन के लिए वैधता प्राप्त करने के लिए और संसदीय व्यवस्था की छवि को फिर से चमकाने के लिए शासक वर्गाें ने अपने पास उपलब्ध सभी तौर तरीकों का इस्तेमाल किया। यहाँ तक कि बंदूक की छाँह में मतदान कराया (शंातिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बल इस काम में जुटाए गए)। उद्देश्य था मतदान का और अधिक प्रतिशत और भारत में लोकतंत्र के लिए और अधिक अंक सुनिश्चित किया जाए।
माओवादी कहते हैं कि ’’हमारी पार्टी द्वारा चुनाव के बहिष्कार को विफल करने के लिए प्रतिक्रियावादी शासकों ने अपने पास उपलब्ध तमाम तौर तरीकों का इस्तेमाल किया था और वह आगे दावा करते हैं कि ’’कुल मिलाकर, चुनाव से दूर रहकर मतदाताओं के बहुमत ने अपेक्षाकृत अधिक जागरुकता का परिचय दिया। हमारा प्रचार अभियान इतना प्रभावी था कि दंडकारण्य (दांतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, बस्तर और कांकेर जिले और राजनांदगांव के कुछ हिस्से) के अधिकांश देहाती इलाकों में, बिहार और झारखण्ड के अनेक जिलों में जहाँ मतदान प्रतिशत 2004 के मुकाबले अत्यधिक कम हो गया, पश्चिम बंगाल में पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरूलिया में राजनैतिक पार्टियों का चुनाव मुश्किल से ही कहीं था और पश्चिम बंगाल के लालगढ़ क्षेत्र में पूरी तरह बहिष्कार हुआ।
सर्वप्रथम, तथ्य क्या हैं?
पिछले तीन दशकों से मतदान प्रतिशत में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। 1977 में मतदान 60.5 प्रतिशत था और इस बार मतदान 58.2 प्रतिशत था। थोड़ा सा ही कम। यह सोचना कि माओवादियों के बहिष्कार अभियान का कोई महत्वपूर्ण असर पड़ा महज अपने आप को भुलावे में रखना होगा।
जहाँ तक बंदूक उठाए उन सुरक्षा बलों की बात है जिन्हें और अधिक प्रतिशत के लिए जुटाया गया था तो यह भी उतना ही सही है कि माओवादियों ने जिन कुछ इलाकों का नाम लिया है वहाँ बहिष्कार भी बंदूक की छाँह में ही लागू किया गया था। जो कोई भी मतदान करने जाएगा उसे बुरा नतीजा भुगतने की धमकियाँ दी गईं थीं। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि बहिष्कार को लागू करने से भाजपा/कांग्रेस को ही विधानसभा और संसदीय चुनाव जीतने में मदद मिली और सीपीआई के उम्मीदवारों को, जो शुरु से ही ‘‘सलवा जुडुम‘‘ की लूटपाट और विध्वंस के विरुद्ध संघर्ष की कतारों में खुलेआम सबसे आगे थे, नुकसान पहँुचा।
-का. ए. बी. बर्धन
जारी
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