स्वयंभू साइंटिस्ट मुनीर खान के मीडिया पार्टनर(भाग-२)

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

आजकल जिस प्रकार दूषित होते वातावरण, आचरण, आहार-विहार आदि के कारण लोग बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं उस स्थिति में आवश्यक है कि कम से कम औषधियां तो सुरक्षित हों। ये विचित्र जान पड़ता है कि क्या औषधियां भी हानिकारक हो सकती हैं लेकिन ये सत्य है। प्रयोगशालाओं में जानवरों के ऊपर परीक्षण करके तैयार करी गयी औषधियां एलोपैथी के नजरिए से सही रहती हैं जो कि कुछ देर के लिए आराम दे देती हैं किंतु बाद में अपने भयानक पश्चप्रभाव के कारण मौत तक का कारण बन जाती हैं। आज के समय में सामान्यतः होने वाली अधिकतर बीमारियां आधुनिक औषधियों के दुष्प्रभाव से पैदा हुई रहती हैं। सिरदर्द के लिए दी जाने वाली दवा लीवर खराब कर देती है और रक्तचाप की दवा भुलक्कड़ बना देती है। जब इस क्षेत्र में काम करके रोजी-रोटी कमाने वाले देखते हैं कि वे आयुर्वेद से परास्त हो रहे हैं तो आयुर्वेद की दवाओं में भारी धातुओं(हेवी मैटल्स) के होने की दुहाई देकर रोना शुरू कर देते हैं कि पारे से विषाक्तता(मरकरी प्वाइजनिंग) हो जाती है और सोमल यानि संखिया(आर्सेनिक) से आदमी मर जाता है।
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