पालिका बाज़ार में सब बिकता है...

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

थोडा सा पालिका बाज़ार के बारे में जान लीजिये। लुटियंस की खुबसूरत नक्कासी वाला दिल्ली का कनाट प्लेस इलाका। जहाँ इधर बहुत कुछ बदला भीतर-भीतर खूब खिचड़ी पकी है। ऊपर खुबसूरत पार्क निचे मेट्रो पोल । उसी के ठीक बगल में एक और बढ़िया सा पार्क निचे पार्किंग प्लेस और उसके बगल में एक और पार्क जिसके निचे है पालिका बाज़ार। जी हाँ इस पालिका में कर्म -कुकर्म सहित ठग हारी का बेहतर धंधा चलता है। यह पालिका बाज़ार भी कुछ उसी तरह की है जैसे हमारी व्यवस्था पालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका !!! इधर भड़ास के मंच पर साल के जाते जाते बेहतरीन और सार्थक बहस छिड़ी है। अजमल आमिर कसब ये एक ऐसा नाम जिसने २००९ में सबको पीछे छोड़ दिया। खूब फेमस हुआ। और हो भी क्यों न , क्योंकि हमारी पालिका इसे पलकों पर बिठा कर रखती है और पालने में झुला झुलाती है। अच्छा तो ये होता की इस हैवान बातों गेट वे ऑफ़ इंडिया पर टांग कर ५९ घंटे तक लाल किये लोहे से पूरी मुंबई दगती। बारी बारी से लोगो बातों इस नेक काम में लगाया जाता । मगर नहीं ? क्योंकि हमारी पालिका अड़े आ रही है। ये वही पालिका है जो एक मासूम की हत्या जिसे कथित तौर पर आत्महत्या मानकर मुलजिम बातों १९ साल बाद सुजा सुनती है वह भी मात्र ६ महीने की । फिर ३० मिनट के अन्दर उसकी जमानत भी हो जाती है। इसके पीछे कारन सिर्फ इतना था की मुलजिम खास आदमी था और पीड़ित आम! ये हमारी पालिका की व्यवस्था है और कार्य ....यहाँ सब ऐसे ही चलेगा। सड़ चुकी व्यवस्था में हम और कर भी क्या सकते हैं..हमारे पास तो बस एक ही हथियार बचता है..वही अजय मोहन भाईसाहब की बांस की बल्ली ..जिसे हम बिना छिले लेकर बैठ जायें और जहाँ भी लगे की गड़बड़ है वही इसे घुसेड दे। तब जाकर कुछ फायदा भी हो....हर हाल में व्यवस्था बदलनी चाहिए और इसके लिए सबसे पहले अगर किसी चीज में बदलाव करनी है तो वह है हमारी न्यायपालिका....

1 टिप्पणियाँ:

अजय मोहन ने कहा…

भाई ये बांस की बल्ली कब बंदूक की नल्ली में बदल जाती है अराजकता के दौर में पता नहीं चलता इसलिये बदलाव के आंदोलन का एक स्वरूप होना चाहिये चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक... अनियंत्रित रहा तो सब १८५७ हो जाता है....
जय जय भड़ास

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