पत्थरों की खदानों से लौटा बचपन
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
बिदिसा फौजदार/शिरीष खरे
कभी बाल मजदूरी करने वाला महेन्द्र अब बच्चों के अधिकारों से जुड़ी कई लड़ाईयों का नायक है। महेन्द्र के कामों से जाहिर होता है कि छोटी सी उम्र में मिला एक छोटा सा मौका भी किसी बच्चे की जिंदगी को किस हद तक बदल सकता है।
महेन्द्र रजक, इलाहाबाद जिले के गीन्ज गांव से है- जहां की भंयकर गरीबी अक्सर ऐसे बच्चों को पत्थरों की खदानों की तरफ धकेलती है। महेन्द्र रजक भी अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही बड़ा हो चुका था। इतना बड़ा कि 6 साल की दहलीज पार करके उसने खदानों में जाने का मतलब का जाना था। इतना बड़ा कि 6 दूनी 12, 12 दूनी 24, 24 दूनी 48 जानने की बजाय उसने हमउम्र बच्चों के साथ पत्थर तोड़ने का पहाड़ा जाना था।
‘‘....तब कुछ बच्चों को स्कूल जाते देखते तो लगता कि वो हमारे जैसे नहीं हैं, वो हमसे कहीं अच्छे हैं।’’- अपने बचपने को इस तरह याद करने वाला महेन्द्र अब 16 की उम्र छूने को है। वह बताता है ‘‘मेरे लिए पत्थर तोड़ना तो बहुत मेहनत का काम था। सुबह 7 से शाम के 5 तक, तोड़ते रहो, खाने के लिए घंटेभर की छुट्टी भी नहीं मिलती थी। ठेकेदार आराम नहीं करने देता था, बार-बार पैसे काटने की धमकी अलग देता था।’’ इस तरह महेन्द्र को घर, मैदान और स्कूल से दूर, 9 घंटे के काम के बदले 70 रूपए/रोज मिलते थे।
संचेतना, जो कि क्राई के सहयोग से चलने वाली एक गैर-सरकारी संस्था है, ने जब महेन्द्र के गांव में अनौपचारिक शिक्षण केन्द्र खोला तो जैसे-तैसे करके महेन्द्र के पिता उसे पढ़ाने-लिखाने को राजी हुए। वैसे तो यहां एक प्राइवेट नर्सरी स्कूल भी था, जो बहुत मंहगा होने के चलते महेन्द्र जैसे ज्यादातर पिताओं की पहुंच से बहुत दूर था।
क्राई के पंकज मेहता बीते दिनों को कुछ ताजा करते हैं ‘‘हमारे सामने पत्थर तोड़ने वाले बहुत सारे बच्चे थे, उनके बचपन को बचाने के लिए हमने बस्तियों के पास सरकारी स्कूल खोले जाने का अभियान चलाया। इसके लिए राज्य की शिक्षा व्यवस्था से जुड़े कई बड़े अधिकारियों से मिले-जुले, उनके साथ बैठे-उठे, उनके सामने बार-बार अपनी जरूरतें दोहराते रहे। आखिरकार, 2002 को गीन्ज गांव में भी एक प्राथमिक स्कूल खोला जा सका।’’
संचेतना के सामाजिक कार्यकर्ताओं बताते हैं कि स्कूल भवन तो खड़ा कर दिया था, मगर इसी से तो सबकुछ सुलझने वाला नहीं था। असली चुनौती ऐसे बच्चों को स्कूल तक लाने और उनमें शिक्षा की समझ जगाने की थी। यह बहुत दिक्कत वाली बात थी, क्योंकि यहां बच्चों को कमाने वाले सदस्य के तौर पर देखने का चलन जो था। गरीब मां-बाप की जुबान पर यही सवाल होता था कि चलिए आप कहते हैं तो हम अपने बच्चों को आज काम पर नहीं भेजते हैं, अब आप बताइए कल से गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी ? इस बुनियादी सवाल से जूझना आसान न था। इसलिए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी पूरी ताकत महेन्द्र जैसे बच्चों के परिवार वालों के बीच आपसी समझ बनाने में लगाई थी। उन्होंने स्कूल के रास्ते पर बच्चों को रोकने वाले कारणों को भी समझा और यह भी समझाया कि बच्चों के भविष्य के लिए इतना तो खर्च किया ही जा सकता है!! क्योंकि महेन्द्र का बड़ा भाई भी काम पर जाता था, इसलिए उसके पिता अपने इस छोटे बेटे को काम की बजाय स्कूल भेजने के लिए तैयार हो गए।’’ इस तरह 9 साल की उम्र से महेन्द्र के स्कूल वाले दिन शुरू हुए।
‘‘अब मैं बाल पंचायत का नेता हूं, पंचायत के बच्चों ने मुझे चुनकर यहां तक भेजा है’’- महेन्द्र के लहजे के ये जवाबदारी भरे अंदाज हैं : ‘‘गांव में ऐसा क्या चल रहा है, जो हमें आगे बढ़ने से रोक रहा है, ऐसी बातों पर बतियाते हैं। अगर किसी बात को लेकर, कुछ हो सकता है तो बाल पंचायत उसमें क्या कर सकती हैं, कैसे कर सकती है, ऐसी चर्चाएं चलती हैं, कभी-कभी किसी बात पर हम सारे बच्चे गांव वालों के साथ हो जाते हैं, जरूरत पड़े तो जिले के अधिकारियों से भी मिल आते हैं।’’ बाल पंचायत का कोई औपचारिक ढ़ांचा नहीं है, यह तो अपनी आपसी सहूलियतों को देखते हुए कहीं भी, किसी भी समय लग सकती है। गांव के सारे बच्चे इसके सदस्य हैं, जो अपने अधिकारों से जुड़े अभियानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
11 दिसम्बर, 2009 को, नई दिल्ली में सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान के मौके पर, जब महेन्द्र ने देशभर से जुटे एक हजार से भी ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच अपने अनुभवों को साझा किया तो सभी ने इस छोटे से नायक के बड़े कामों को जाना और उसकी चौतरफा सरहना की।
महेन्द्र रजक, इलाहाबाद जिले के गीन्ज गांव से है- जहां की भंयकर गरीबी अक्सर ऐसे बच्चों को पत्थरों की खदानों की तरफ धकेलती है। महेन्द्र रजक भी अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही बड़ा हो चुका था। इतना बड़ा कि 6 साल की दहलीज पार करके उसने खदानों में जाने का मतलब का जाना था। इतना बड़ा कि 6 दूनी 12, 12 दूनी 24, 24 दूनी 48 जानने की बजाय उसने हमउम्र बच्चों के साथ पत्थर तोड़ने का पहाड़ा जाना था।
‘‘....तब कुछ बच्चों को स्कूल जाते देखते तो लगता कि वो हमारे जैसे नहीं हैं, वो हमसे कहीं अच्छे हैं।’’- अपने बचपने को इस तरह याद करने वाला महेन्द्र अब 16 की उम्र छूने को है। वह बताता है ‘‘मेरे लिए पत्थर तोड़ना तो बहुत मेहनत का काम था। सुबह 7 से शाम के 5 तक, तोड़ते रहो, खाने के लिए घंटेभर की छुट्टी भी नहीं मिलती थी। ठेकेदार आराम नहीं करने देता था, बार-बार पैसे काटने की धमकी अलग देता था।’’ इस तरह महेन्द्र को घर, मैदान और स्कूल से दूर, 9 घंटे के काम के बदले 70 रूपए/रोज मिलते थे।
संचेतना, जो कि क्राई के सहयोग से चलने वाली एक गैर-सरकारी संस्था है, ने जब महेन्द्र के गांव में अनौपचारिक शिक्षण केन्द्र खोला तो जैसे-तैसे करके महेन्द्र के पिता उसे पढ़ाने-लिखाने को राजी हुए। वैसे तो यहां एक प्राइवेट नर्सरी स्कूल भी था, जो बहुत मंहगा होने के चलते महेन्द्र जैसे ज्यादातर पिताओं की पहुंच से बहुत दूर था।
क्राई के पंकज मेहता बीते दिनों को कुछ ताजा करते हैं ‘‘हमारे सामने पत्थर तोड़ने वाले बहुत सारे बच्चे थे, उनके बचपन को बचाने के लिए हमने बस्तियों के पास सरकारी स्कूल खोले जाने का अभियान चलाया। इसके लिए राज्य की शिक्षा व्यवस्था से जुड़े कई बड़े अधिकारियों से मिले-जुले, उनके साथ बैठे-उठे, उनके सामने बार-बार अपनी जरूरतें दोहराते रहे। आखिरकार, 2002 को गीन्ज गांव में भी एक प्राथमिक स्कूल खोला जा सका।’’
संचेतना के सामाजिक कार्यकर्ताओं बताते हैं कि स्कूल भवन तो खड़ा कर दिया था, मगर इसी से तो सबकुछ सुलझने वाला नहीं था। असली चुनौती ऐसे बच्चों को स्कूल तक लाने और उनमें शिक्षा की समझ जगाने की थी। यह बहुत दिक्कत वाली बात थी, क्योंकि यहां बच्चों को कमाने वाले सदस्य के तौर पर देखने का चलन जो था। गरीब मां-बाप की जुबान पर यही सवाल होता था कि चलिए आप कहते हैं तो हम अपने बच्चों को आज काम पर नहीं भेजते हैं, अब आप बताइए कल से गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी ? इस बुनियादी सवाल से जूझना आसान न था। इसलिए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी पूरी ताकत महेन्द्र जैसे बच्चों के परिवार वालों के बीच आपसी समझ बनाने में लगाई थी। उन्होंने स्कूल के रास्ते पर बच्चों को रोकने वाले कारणों को भी समझा और यह भी समझाया कि बच्चों के भविष्य के लिए इतना तो खर्च किया ही जा सकता है!! क्योंकि महेन्द्र का बड़ा भाई भी काम पर जाता था, इसलिए उसके पिता अपने इस छोटे बेटे को काम की बजाय स्कूल भेजने के लिए तैयार हो गए।’’ इस तरह 9 साल की उम्र से महेन्द्र के स्कूल वाले दिन शुरू हुए।
‘‘अब मैं बाल पंचायत का नेता हूं, पंचायत के बच्चों ने मुझे चुनकर यहां तक भेजा है’’- महेन्द्र के लहजे के ये जवाबदारी भरे अंदाज हैं : ‘‘गांव में ऐसा क्या चल रहा है, जो हमें आगे बढ़ने से रोक रहा है, ऐसी बातों पर बतियाते हैं। अगर किसी बात को लेकर, कुछ हो सकता है तो बाल पंचायत उसमें क्या कर सकती हैं, कैसे कर सकती है, ऐसी चर्चाएं चलती हैं, कभी-कभी किसी बात पर हम सारे बच्चे गांव वालों के साथ हो जाते हैं, जरूरत पड़े तो जिले के अधिकारियों से भी मिल आते हैं।’’ बाल पंचायत का कोई औपचारिक ढ़ांचा नहीं है, यह तो अपनी आपसी सहूलियतों को देखते हुए कहीं भी, किसी भी समय लग सकती है। गांव के सारे बच्चे इसके सदस्य हैं, जो अपने अधिकारों से जुड़े अभियानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
11 दिसम्बर, 2009 को, नई दिल्ली में सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान के मौके पर, जब महेन्द्र ने देशभर से जुटे एक हजार से भी ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच अपने अनुभवों को साझा किया तो सभी ने इस छोटे से नायक के बड़े कामों को जाना और उसकी चौतरफा सरहना की।
गीन्ज गांव में बच्चे-बच्चे को बाल पंचायत बनने का किस्सा मालूम है। हुआ यह कि- तब बहुत सारे बच्चों ने गांव में खेल के मैदान का मुद्दा उठाया था। इसके लिए उन्होंने बाल दिवस पर इलाहाबाद जाने का मन बनाया। यह बच्चे उस रोज इलाहाबाद की मुख्य सड़कों पर पहुंचे और जमकर खेले। ‘‘यह देख वहां के बहुत सारे लोग आ गए, गुस्से से बोले कि यहां के रास्ते क्यों रोक रहे हो ?’’- तब महेन्द्र ने कहा था - ‘‘यह तो पण्डित नेहरू का शहर है, आज तो बाल दिवस है, आज तो हमें यहां खेलने दो।’’ लगे हाथ उसने यह भी कह दिया कि ‘‘हमारे गांव में तो खेल का मैदान भी नहीं है। यहां तो देखो कितनी चौड़ी-चौड़ी सड़के हैं।’’ उस रोज बच्चों ने विरोध की ऐसी गेंदबाजी की थी कि प्रशासन से जुड़े अधिकारियों को क्लीन बोल्ड होना पड़ा था। मैच का नतीजा यह निकला था कि इलाहाबाद जिले से ही गीन्ज गांव के लिए खेल के मैदान का रास्ता साफ हो गया। खेल-खेल से शुरू हुए बच्चों के ऐसे अभियान समय के साथ गंभीर होते चले गए। फिर बच्चों को यह भी लगा कि अगर गांव के बड़े-बूढ़े की पंचायत हो सकती है तो बच्चों की भी अपनी पंचायत हो सकती है। कुछ इस तरह से बाल पंचायत का वजूद खड़ा हुआ। जो गीन्ज जैसे एक साधारण गांव में, गांव भर के सहयोग के चलते अब बहुत खास बन चुकी है।
महेन्द्र और उसके नन्हें दोस्तों के हिस्से में अब ऐसे दर्जनों किस्से हैं, जो बताते हैं कि बड़े कारनामों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए, उतनी बड़ी उम्र भी हो तो ऐसा जरूरी नहीं है। जैसे कि पहले गीन्ज गांव में पांचवीं तक ही स्कूल था। लिहाजा महेन्द्र जैसे बच्चों के लिए आगे पढ़ने का मतलब था कि पहले तो एक साईकिल की जुगाड़ करो, उसके बाद उससे रोजाना 6 किलोमीटर दूर के स्कूल आओ-जाओ। तब बाल पंचायत ने जिले के शिक्षा अधिकारियों के साथ बैठक आयोजित की थी। बाल पंचायत ने इन अधिकारियों के सामने अपने गांव में ही एक सेकेण्डरी स्कूल खोले जाने की वकालत की थी। तब महेन्द्र ने कहा था- ‘‘अगर ऐसा हुआ तो यहां के बहुत सारे बच्चे आगे भी पढ़ सकते हैं।’’ आखिरकार, यहां सेकेण्डरी स्कूल भी खोला गया, जहां आज पास वाले गांवों के भी बहुत सारे बच्चे पढ़ने आते हैं। अगर यह कहा जाए कि यहां के बच्चों ने हर परेशानी का हल खोज लिया है तो यह सही नहीं होगा। मगर यह तो है कि उन्होंने अपने हालातों को पहले से कहीं बेहतर बनाया है। यही वजह है कि जो कामकाजी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं वो संस्थाओं द्वारा खोले गए गैर-औपचारिक शिक्षण केन्द्रों में पढ़ने आते हैं। यहां ऐसे बच्चों की भारी तादाद यह बताती है कि पत्थर तोड़ने के काम से टूट जाने के बावजूद इनके दिलोदिमाग में पढ़ने की ललक कितनी बकाया है। यहां बैठे-उठे कभी पहाड़ा तो कभी बारहखड़ी पढ़ते ये बच्चे दुनिया में जीने की समझ बढ़ाने के लिए यहां आते हैं। दूसरी तरफ यहां सक्रिय गैर-सरकारी संस्थाओं ने ऐसे गरीब परिवारों की आमदनी में सुधार लाने के लिए उन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के फायदे उठाने के लिए भी संगठित किया है। यह लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अब पंचायत की दूसरी योजनाओं से भी जुड़ रहे हैं।
यह कोई तीन हजार आबादी वाले गीन्ज से महेन्द्र के छोटे से गांव का हाल है, जहां बेहतर जीने के लिए लड़ने और लड़ने के लिए पढ़ने के महत्व का पता चला है। मगर महेन्द्र का गांव उसी दुनिया का हिस्सा है, जिसमें सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत के हैं। सरकारी आकड़ों के हिसाब से यहां 14 साल तक के 1 करोड़, 70 लाख बाल मजदूर हैं। इसमें भी 80% बाल मजदूर खेती या कारखानों में लगे हैं। बाकी के पत्थरों की खदानों, चाय के बागानों, ढ़ाबों, दुकानों या घरेलू कामों से जुड़े हैं। बच्चों से मजदूरी कराने वाले ऐसे कई गिरोह सक्रिय हैं जो उन्हें या तो सस्ती मजदूरी या फिर तस्करी के चलते काम की जगहों तक लाते हैं।
क्राई अपने 30 सालों के तजुर्बों से यह मानता है कि बच्चों की समस्या के जो तार उनके समुदाय से जुड़े हैं, जब तक उनकी पहचान नहीं की जाएगी, जब तक उनकी रोकधाम के उपाय नहीं ढ़ूढ़े जाएंगे, तब तक बाल मजदूरी के हालातों में स्थायी बदलाव नहीं आएगा। असल बात तो यह है कि बाल मजदूरी की जड़े भूख, गरीबी, शोषण, बेकारी और अत्याचारों से जुड़ी हैं। अगर बाल मजदूरी से लड़ना है तो सबसे पहले बच्चों की शिक्षा और बड़ों की आजीविका से ताल्लुक रखने वाली सरकारी नीतियों को प्रभावित करना होगा। इसके सामानान्तर ऐसी नीतियों को जमीनी हकीकत में साकार करने की जद्दोजहद को भी जारी रखना होगा।
महेन्द्र और उसके नन्हें दोस्तों के हिस्से में अब ऐसे दर्जनों किस्से हैं, जो बताते हैं कि बड़े कारनामों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए, उतनी बड़ी उम्र भी हो तो ऐसा जरूरी नहीं है। जैसे कि पहले गीन्ज गांव में पांचवीं तक ही स्कूल था। लिहाजा महेन्द्र जैसे बच्चों के लिए आगे पढ़ने का मतलब था कि पहले तो एक साईकिल की जुगाड़ करो, उसके बाद उससे रोजाना 6 किलोमीटर दूर के स्कूल आओ-जाओ। तब बाल पंचायत ने जिले के शिक्षा अधिकारियों के साथ बैठक आयोजित की थी। बाल पंचायत ने इन अधिकारियों के सामने अपने गांव में ही एक सेकेण्डरी स्कूल खोले जाने की वकालत की थी। तब महेन्द्र ने कहा था- ‘‘अगर ऐसा हुआ तो यहां के बहुत सारे बच्चे आगे भी पढ़ सकते हैं।’’ आखिरकार, यहां सेकेण्डरी स्कूल भी खोला गया, जहां आज पास वाले गांवों के भी बहुत सारे बच्चे पढ़ने आते हैं। अगर यह कहा जाए कि यहां के बच्चों ने हर परेशानी का हल खोज लिया है तो यह सही नहीं होगा। मगर यह तो है कि उन्होंने अपने हालातों को पहले से कहीं बेहतर बनाया है। यही वजह है कि जो कामकाजी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं वो संस्थाओं द्वारा खोले गए गैर-औपचारिक शिक्षण केन्द्रों में पढ़ने आते हैं। यहां ऐसे बच्चों की भारी तादाद यह बताती है कि पत्थर तोड़ने के काम से टूट जाने के बावजूद इनके दिलोदिमाग में पढ़ने की ललक कितनी बकाया है। यहां बैठे-उठे कभी पहाड़ा तो कभी बारहखड़ी पढ़ते ये बच्चे दुनिया में जीने की समझ बढ़ाने के लिए यहां आते हैं। दूसरी तरफ यहां सक्रिय गैर-सरकारी संस्थाओं ने ऐसे गरीब परिवारों की आमदनी में सुधार लाने के लिए उन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के फायदे उठाने के लिए भी संगठित किया है। यह लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अब पंचायत की दूसरी योजनाओं से भी जुड़ रहे हैं।
यह कोई तीन हजार आबादी वाले गीन्ज से महेन्द्र के छोटे से गांव का हाल है, जहां बेहतर जीने के लिए लड़ने और लड़ने के लिए पढ़ने के महत्व का पता चला है। मगर महेन्द्र का गांव उसी दुनिया का हिस्सा है, जिसमें सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत के हैं। सरकारी आकड़ों के हिसाब से यहां 14 साल तक के 1 करोड़, 70 लाख बाल मजदूर हैं। इसमें भी 80% बाल मजदूर खेती या कारखानों में लगे हैं। बाकी के पत्थरों की खदानों, चाय के बागानों, ढ़ाबों, दुकानों या घरेलू कामों से जुड़े हैं। बच्चों से मजदूरी कराने वाले ऐसे कई गिरोह सक्रिय हैं जो उन्हें या तो सस्ती मजदूरी या फिर तस्करी के चलते काम की जगहों तक लाते हैं।
क्राई अपने 30 सालों के तजुर्बों से यह मानता है कि बच्चों की समस्या के जो तार उनके समुदाय से जुड़े हैं, जब तक उनकी पहचान नहीं की जाएगी, जब तक उनकी रोकधाम के उपाय नहीं ढ़ूढ़े जाएंगे, तब तक बाल मजदूरी के हालातों में स्थायी बदलाव नहीं आएगा। असल बात तो यह है कि बाल मजदूरी की जड़े भूख, गरीबी, शोषण, बेकारी और अत्याचारों से जुड़ी हैं। अगर बाल मजदूरी से लड़ना है तो सबसे पहले बच्चों की शिक्षा और बड़ों की आजीविका से ताल्लुक रखने वाली सरकारी नीतियों को प्रभावित करना होगा। इसके सामानान्तर ऐसी नीतियों को जमीनी हकीकत में साकार करने की जद्दोजहद को भी जारी रखना होगा।
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शिरीष खरे ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘संचार-विभाग’ से जुड़े हैं।
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ब्लॉग : crykedost.tk
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Shirish Khare
C/0- Child Rights and You
189/A, Anand Estate
Sane Guruji Marg
(Near Chinchpokli Station)
Mumbai-400011
www.crykedost.blogspot.com
I believe that every Indian child must be guaranteed equal rights to survival, protection, development and participation.
As a part of CRY, I dedicate myself to mobilising all sections of society to ensure justice for children.
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