लो क सं घ र्ष !: अल्लाह के घर महफ़ूज़ नहीं हैं

शनिवार, 27 मार्च 2010

महफ़ूज़ नहीं घर बन्दों के, अल्लाह के घर महफूज़ नहीं।
इस आग और खून की होली में, अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
शोलों की तपिश बढ़ते-बढ़ते, हर आँगन तक आ पहुंची है।
अब फूल झुलसते जाते हैं, पेड़ों के शजर महफ़ूज़ नहीं॥
कल तक थी सुकूँ जिन शहरों में, वह मौत की दस्तक सुनते हैं ।
हर रोज धमाके होते हैं, अब कोई नगर महफ़ूज़ नहीं॥
दिन-रात भड़कती दोजख में, जिस्मों का ईधन पड़ता है॥
क्या जिक्र हो, आम इंसानों का, खुद फितना गर महफ़ूज़ नहीं॥
आबाद मकां इक लमहे में, वीरान खंडर बन जाते हैं।
दीवारों-दर महफ़ूज़ नहीं, और जैद-ओ-बकर महफ़ूज़ नहीं॥
शमशान बने कूचे गलियां, हर सिम्त मची है आहो फुगाँ ।
फ़रियाद है माओं बहनों की, अब लख्ते-जिगर महफ़ूज़ नहीं ॥
इंसान को डर इंसानों से, इंसान नुमा हैवानों से।
महफूज़ नहीं सर पर शिमले, शिमलों में सर महफूज़ नहीं॥
महंगा हो अगर आटा अर्शी, और खुदकश जैकेट सस्ती हो,
फिर मौत का भंगड़ा होता है, फिर कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥

-इरशाद 'अर्शी' मलिक

पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

1 टिप्पणियाँ:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

मलिक साहब का दर्द दिख रहा है कि किस कदर पैशाचिक हरकतें गहरा गयी हैं जिन्हें शायर और अदीब महसूस कर पा रहे हैं। शास्त्री जी को लिप्यांतरण करने के लिये धन्यवाद
जय जय भड़ास

प्रकाशित सभी सामग्री के विषय में किसी भी कार्यवाही हेतु संचालक का सीधा उत्तरदायित्त्व नही है अपितु लेखक उत्तरदायी है। आलेख की विषयवस्तु से संचालक की सहमति/सम्मति अनिवार्य नहीं है। कोई भी अश्लील, अनैतिक, असामाजिक,राष्ट्रविरोधी तथा असंवैधानिक सामग्री यदि प्रकाशित करी जाती है तो वह प्रकाशन के 24 घंटे के भीतर हटा दी जाएगी व लेखक सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी। यदि आगंतुक कोई आपत्तिजनक सामग्री पाते हैं तो तत्काल संचालक को सूचित करें - rajneesh.newmedia@gmail.com अथवा आप हमें ऊपर दिए गये ब्लॉग के पते bharhaas.bhadas@blogger.com पर भी ई-मेल कर सकते हैं।
eXTReMe Tracker

  © भड़ास भड़ासीजन के द्वारा जय जय भड़ास२००८

Back to TOP