इल्म और फ़िल्म के बीच मज़बूत पुल की तरह खड़ी शख्सियत : श्री नवाब आरज़ू
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
कल नवाब आरज़ू जी से दूसरी मुलाक़ात हुई जो कि पहली मुलाक़ात में हुए संक्षिप्त से परिचय के आगे की कड़ी थी। नाम तो सुन ही रखा था लेकिन पहली बार पनवेल में हुए एक मुशायरे में भाई नवाब आरज़ू से हल्का सा बस परिचय ही हुआ। वैसे तो भड़ासी इतनी आसानी से किसी से प्रभावित होते नहीं है लेकिन हम लोग ठहरे भावुक देहाती और गंवार किस्म के भदेस लोग कि जो पसंद आया उसे दिलोजान से चाहेंगे(जो नापसंद आया उसको उसी समय भला बुरा कह कर, गरिया कर दिल की भड़ास निकाल कर भूल जाते हैं)। हमारे गाँव पनवेल(नई मुंबई) में हुए मुशायरे में भाई नवाब आरज़ू को सुना और मंत्रमुग्ध होकर सुना साथ ही उनके भव्य व्यक्तित्त्व को भी जी भरकर निहारा। नाम के ही नहीं बल्कि अंदाज़ और कदकाठी के लिहाज़ से भी वो किसी नवाब से कम नहीं लग रहे थे। गोरा रंग,ऊँचा कद और मजबूत कद्दावर देहयष्टि के धनी भाई नवाब आरज़ू किसी पुरानी फ़िल्म के हीरो से उन्नीस नहीं लगते हैं। इस मुख्तसर सी मुलाक़ात ने भाई से दोबारा मिलने की तमन्ना मन में पैदा कर दी। मुंबई व्यस्त शहर है लोग अक्सर खो जाते हैं लेकिन भड़ासियों ने मुंबई शहर को सिकोड़ कर इतना छोटा कर लिया है कि मेल-मुलाक़ातें हो ही जाती हैं और व्यस्तता को ढेंगा दिखाते भड़ासी ज़िंदगी को अपने अंदाज़ में जी रहे हैं भले ही कोई हमें निरा फ़ालतू ही क्यों न समझे।
हम दूसरी मुलाकात के लिए नवाब भाई के गोरेगाँव मे स्थित कार्यालय जा धमके लेकिन सिनेमा वालों के बारे में आमतौर पर लोग जो राय बना लेते हैं कि वे लोग इतने व्यस्त होते हैं कि इनके पास दोस्ती यारी जैसे रिश्तों के लिये समय नहीं होता तो हमारे भाई इस धारणा के बिलकुल उलट निकले। हमारा इतने प्यार से स्वागत करा कि हमें ऐसा लगा कि हम बरसों से एक दूसरे को जानते पहचानते हैं। मैंने भाई से उनके काम के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि हम लोग ये बात चाय पीते हुए करें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। चाय की चुस्कियों के बीच भाई ने सिनेमा के कथा पक्ष की गहराइयों को हम देहातियों को बड़े प्यार से समझाया कि किस तरह कहानी बनती है फिर उसका स्क्रीन प्ले लिखा जाता है(कि कहानी पर्दे पर किस तरह से दिखेगी) सबसे बाद में पात्रों के बीच होने वाले संवादों को दृश्यों(सीन) के अनुसार लिखा जाता है जो कि एक डायलॉग राइटर का काम होता है। इस पूरे काम के बाद उन्होंने बताया कि हमारे यहाँ तो नहीं लेकिन हॉलीवुड में एक और बंदा होता है जो कि इस पूरी रामकहानी का संपादन भी करता है इसके बाद डायरेक्टर अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर कैमरा आदि के एंगल निर्धारित करके शूटिंग करवाता है और फ़िल्म बनने की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। उन्होंने ये भी कहा कि हमारे यहाँ के कई निर्देशक अपने निजी अहंकार के चलते लेखक आदि से सुझाव लेने में अपनी तौहीन मानते हैं जो कि हॉलीवुड में नहीं होता है। भाई ने हमारे साथ जितना समय दिया हम सारे समय बस उनके कार्यों को बिना पलक झपकाए देखते रहे। सैकड़ों गीत, ग़ज़ल, कविताएं,कहानियाँ लिख चुके भाई नवाब आरज़ू का साहित्यिक कद उनके शारीरिक कद से कई गुना अधिक बड़ा और भव्य है। अपनी गंवारू आदत से मजबूर हमने भाई से पूछ ही लिया कि क्या आपने किसी फ़िल्म में अभिनय नहीं करा तो उन्होंने हँसते हुए बताया कि जब कोई कम पड़ जाता था तो कई बार उनसे निर्देशक अभिनय करा लेते थे क्योंकि शुरूआती दौर में रंगमंच पर अभिनय से जुड़े रहे हैं। आजकल भाई टीवी और सिनेमा के लिए लिख रहे हैं लेकिन इल्मोअदब से उसी गहराई से जुड़े हैं जैसे कि कोई बरगद का विशाल वृक्ष जितना घना और शाखादार ऊपर होता है उतना ही उसकी जड़े ज़मीन के अंदर फैली होती हैं। भाई नवाब आरज़ू फ़िल्मों के लिये लिखने के साथ ही उतने ही समर्पण से उत्तम कोटि के साहित्य के सृजन के प्रति भी आस्था रखते हैं। मुंबई में आमतौर पर लोग सिनेमा आदि में दृश्य की माँग के आधार पर लिखने वालों को साहित्यकारों की परंपरागत श्रेणी से अलग ही देखते हैं। साहित्य के स्वयंभू झंडाबरदार फ़िल्मी लेखन से जुड़े लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं, ऐसे साहित्य के ठेकेदारों के लिये भाई नवाब आरज़ू की शख्सियत एक अप्रितम उदाहरण है जो कि फ़िल्म और इल्म के बीच एक मज़बूत पुल बने खड़े हैं। हम उनसे फिर मिलने की आशा लिये उठ ही रहे थे कि उन्होंने बताया कि एक मई के दिन वे खोपोली(हमारे गाँव पनवेल से पास ही है) में एक मुशायरे में जाने वाले हैं तो हमारी एक और अगली मुलाकात तय हो गयी। भड़ास परिवार की तरफ से हम भाई नवाब आरज़ू के उत्तम स्वास्थ्य और सफलता की ईश्वर से कामना करते हैं।
जय जय भड़ास
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