खामोश! मैं महगाई हूँ भाई...
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
भाईचरण कमल बंदौ हरिराई, आंख खुली तो पाई मंहगाई।
जैसे ही यह गीत पुरुषोत्तम महाराज ने स्टेज से गाया, पूरे हॉल में तालियों की गडग़ड़ाहट फैल गयी। ऐसा लगा मानों मंहगाई का पुर्नजन्म हो गया। सभी श्रोतागण मंहगाई के पुर्नस्थापित होने पर गौरवान्वित हो रहे थे। क्योंकि वहां उपस्थित सभी 'जन' या तो लेखक थे या कवि। इनके लिए यही तो एक सदाबहार मुद्दा है, जिस पर कलम घिसने भर से घर का चूल्हा-चौका विधिवत कार्य करने लगता है। वर्ना कौन पूछने वाला है इन मंहगाई के प्रचारकों को। इस बार के कवि सम्मेलन में कविवर सिसकीनाथ भी आमंत्रित किए गये थे। ये वहीं कविवर सिसकीनाथ हैं, जिन्होंने देश-विदेश के कवि सम्मेलनों में कविता के साथ सिसकियों का बेज़ोड़ प्रस्तुतिकरण किया है। इसके लिए भारत सरकार ने इन्हें 'सिसकीश्री' की उपाधि से विभूषित भी किया है। सिसकीनाथ जैसे ही मंचासीन हुए पूरा माहौल रुग्ण हो गया। लोग ऐसे सिसकने लगे जैसे मंहगाई की मारी गृहणियां आंटा गूंथते वक्त सिसक पड़ती हैं। आप तो जानती ही हैं कि गृहणियां प्याज काटते वक्त ही सिसकती थीं, मगर जब से यह मुंआ प्याज पचास के पार चला गया तब से गृहणियों को सिसकने से फुर्सत मिल गयी है। क्योंकि न घर में प्याज़ आयेगा, न इन्हें काटना पड़ेगा और न हीं प्याज आंखों में लगेगी।
खैर सिसकीनाथ जी ने माहौल को हल्का बनाने हेतु माइक झपट लिया और अपनी ऐतिहासिक कवि गोष्ठियों की बातें बताने लगे। उनकी व्यंगात्मक चुटकियों को सुनकर मंहगाई के मारे कवि व लेखक कुछ मुस्कुराये जरुर पर हंसी किसी की नहीं फूटी। हंसी फूटेगी भी कैसे? क्योंकि यहां मंहगाई पर कवि सम्मेलन जो चल रहा था। अब आप खुद समझ सकते हैं कि मंहगाई और हंसी का संबन्ध सांप-नेवले जैसा ही है। यदि देश में मंहगाई है तो हंसी गायब! और गाहे-बगाहे हंसी आ गयी तो वहां मंहगाई की चर्चा नहीं होती। तो यहां भी कुछ ऐसा ही माहौल था। इकट्ठे लोग मंहगाई को कोसने के लिए हुए थे, मगर खुद इसके शिकार बन गये। इस कवि सम्मेलन के संचालनकर्ता मिश्रीलाल ने गलती से मुझे भी आमंत्रण पत्र भेज दिया था। वैसे मिश्रीलाल के बारे में भी सुनते चलिए। मिश्रीलाल निहायत ही फेंकू टाइप के व्यक्ति हैं, इतना फेंकते हैं इतना फेंकते हैं कि बस आप लपेटते चले जाइए और बिना वीज़ा व पासपोर्ट के ही अमेरिका तक की दूरी नाप डालिए। मिश्रीलाल के इसी फेंकू गुण से प्रभावित होकर शहर के सभी लोग इन्हें हर खास आयोजन में संचालन की जिम्मेदारी दे देते हैं। इससे दोनों का भला हो जाता है। यदि सम्मेलन या आयोजन में अपेक्षा से कम लोग इकट्ठे हों और माइक संभालने वाले वक्ता भी व्यस्त हों तो फेंकू बड़ा काम कर जाते हैं। मिश्रीलाल एक बार माइक संभालते हैं और किसी विषय पर इतना फेंक देते हैं कि किसी अन्य वक्ता की जरुरत ही नहीं पड़ती और सभा का समापन मिश्रीलाल के संचालन से ही हो जाता है।
जैसे ही इस कवि सम्मेलन का हाथ से लिखा निमंत्रण पत्र घर पर पहुंचा, मेरी श्रीमती जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। क्योंकि, उन्हें लगा कि आज शाम को मेरा भोजन इस सम्मेलन में ही हो जाएगा और उन्हें रोज़ की तरह 25 रोटियां नहीं बनानी पड़ेंगी। सबके घर में खटपट होती है मियां-बीबी के बीच मन-मुटाव होता है, मेरे साथ भी ठीक वैसा ही है, पर कारण, वहीं रोज़ की 25 रोटियां। क्योंकि मेरी बीबी को लगता है कि यदि मैं 25 रोटियां नहीं खाता तो सबसे आदर्श पति बनने के सारे गुण मुझमें थे। पर इन 25 रोटियों और 500 ग्राम चावल ठूसने की मेरी आदत ने मेरा वैवाहिक जीवन लगभग बिगाड़ दिया। पर आज श्रीमती खुश थीं कि चलो कम से कम 1 दिन तो आराम मिलेगा। अब आप समझ चुके होंगे कि मेरी श्रीमती मेरे साथ किस तरह गुज़ारा कर रही हैं वह भी इस भीषण मंहगाई के दौर में। सोचिए, सोचिए सोचने पर कोई टैक्स थोड़े ही लगता है!
शाम को जैसे ही दरवाज़े पर पहुंचा तो सामने से पत्नीश्री की मुस्कुराहट देखकर मन में विस्मय हो चला कि आज क्या होने वाला है? उन्होंने एक सांस में पूरी बात बतायी और निमंत्रण पत्र थमाते हुए बोलीं कि समय मत बर्बाद करो, सम्मेलन में जाने का टाइम हो गया है। मैंने कहा-अरे थोड़ा सांस तो लेने दो, अभी-अभी तो आया हूं और अभी चला जाऊं। पत्नी ने मन ही मन सोचा कि सांस लेने में ही 100 ग्राम चीनी फांक जाते हो। पता भी है चीनी कितनी मंहगी हो गयी है। खैर मैं भी ठहरा ठेठ कवि, मन में कविताओं की कोंपलें फूटने लगीं। मंहगाई और लुगाई से त्रस्त जीवन में ऐसे विचार आने लगे जैसे कभी अरस्तू, शुकरात को आये होंगे। खूब सज-धजकर मैं कवि सम्मेलन में पहुंचा था। वहीं सिसकीनाथ जी के बगल में बैठा, उनके वक्तव्य के खत्म होने का इंतज़ार कर रहा था। तभी पूरे हॉल में सिसकियों का सैलाब आया और लगा मानो सब कुछ थम गया है।
सिसकीनाथ जी अपनी बात रख चुके थे और अन्य कवियों को आमंत्रित करने के लिए मिश्रीलाल माइक थाम चुके थे। मिश्रीलाल बोले- दोस्तों जब मैं पैदा हुआ तो हमारे पिताजी को मिठाई बांटनी पड़ी। उस ज़माने में काफी सर्च करने के बाद 'मिश्री' ही सबसे सस्ती मिठाई मिली थी। जिसे बांटकर मेरे पिताजी ने मेरे आने को सेलिब्रेट किया था। पर यदि आज़ वे जिन्दा होते उन्हें बड़ा दु:ख होता। क्योंकि चीनी की मंहगी कीमत और मिश्री में हो रही मिलावट से परेशान हो जाते। उस समय सस्ती मिश्री मिली थी, इसलिए खुश होकर उन्होंने मेरा नाम मिश्रीलाल रख दिया था। ले-देकर मिश्रीलाल मंहगाई के प्रभाव व अपने नाम की सार्थकता समझाकर मुझे पुकारने लगे...
बोले अब आपके सामने आ रहे हैं एक ऐसे सख्श जो रोज़ मंहगाई की त्रासदी से दो चार होते हैं और संयोग से उनका नाम भी है मंहगूराम! हालांकि कवि मंहगूराम हैं बड़े सस्ते! और यहां इस मंच पर 'फ्री' में आये हैं। भोज़न के लिए भी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि आपकी सुविधा के लिए मैं बताना चाहूंगा कि कार्यक्रम के अंत में होने वाला प्रीतिभोज का कार्यक्रम नितांत नीजी कारणों से रद्द कर दिया गया है। तो स्वागत है कवि मंहगूराम का...इधर भोजन न मिलने की बात सुनते ही मेरी हालत खराब हो गयी थी। सांसे तो थीं, पर चलने में कष्ट हो रहा था। दिल की धड़कनें डूबने लगीं, पैरों में लगा जान ही नहीं है और आवाज़ तो कंठ से बाहर आने का नाम ही नहीं ले रही थी। रोज़ 25 रोटियां तोडऩे वाला सख्श भूखे पेट, मंहगाई पर भला क्या बोलेगा?
सभा में आये सभी लोगों को निराशाभरी नज़रों से देखते हुए व लडख़ड़ाते कदमों से मैं माइक तक तो पहुंच गया। पर कंठ से स्वर नहीं फूट रहे थे। हॉल में बैठे लोग हल्ला मचाने लगे, लोगों को लगा था मैं मंहगाई पर कुछ अच्छा खासा भाषण दूंगा, मगर मैं तो भोज़न में बारे में सोच-सोचकर व्यथित हो चुका था। पेट के चूहे आज़ समय से पहले ही दौडऩे लगे थे, शायद उनको भी दावत उड़ाने का मानसिक संदेश मिल चुका था। लेकिन यहां तो सब उल्टा हो गया, सभा थी, कवि थे, मंहगाई थी पर कोई नहीं था तो वह था भोज़न! सब मुझसे कुछ सुनना चाह रहे थे, पर मैं बोल नहीं पा रहा था। हॉल में हल्ला इतना बढ़ गया कि मैं घबरा गया। पर थोड़ी बहुत हिम्मत जुटाकर मैं सिर्फ यहीं बोल पाया-खामोश! मैं मंहगाई हूं भाई...(मंहगाई बोलती नहीं महसूस होती है)।
जय भड़ास जय जय भड़ास
1 टिप्पणियाँ:
महाभयंकर महाभड़ासाना अंदाज़...
सिसकी श्री :)
अच्छा है
जय जय भड़ास
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