आखिर भारतीय उजली चमड़ी के प्रति इतना आसक्त क्यों है ? विदेश और विदेशी क्यों भाता है हमें इतना ? यह बात सम्पूर्ण विश्व जानता है कि हिन्दू ह्रदय से काफी लचीले होते है उन्हें चिकनी चुपड़ी बातो से ही बहलाया जा सकता है, धर्म-निरपेक्ष, भाई-भाई, आदि !इस्कॉन मंदिर को ही ले लीजिये ये अमेरिका के पैसे बनाने के ट्रस्ट , मंदिर जिसमे उन्होंने हिन्दुओ को
रिझाने के लिए हिन्दू देवता को प्रतिष्ठित किया, ये मंदिर भारत में एक कोलगेट कि कंपनी से अधिक पैसा अपने देश अमेरिका भेजते है, दूसरा उदहारण, भारतीय अपने भारतीय होने पर अधिक गर्व करते है शायद पुरे विश्व में सबसे अधिक ये ही ऐसे नागरिक है जो अपने भारतीय होने पर गर्व करते है तभी तो आर्थिक मंदी के दौर जो २००० से शुरू हुआ, अमेरिका और यूरोपियन देशो कि मंदी का अन्वेक्षण करने वाले विद्वानों के मन में यह विचार आया कि भारत बाजार काफी विस्तृत है और अगर हम बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों के शीर्ष पदों पर उन्हें आसीन कर दें तो बात को हरा रंग मिल सकता है और हमें वहा छा जाने से कोई समस्या नहीं रहेगी, सीइओ के पद पर भारतीयों को देखकर कंपनी को भी भारतीय मान लेंगे ? तरकीब काफी बढ़िया थी, भारतीय मूल कि इदिरा नुई को पेप्सी कंपनी ने सीइओ नियुक्त कर दिया और पुरे विश्व के बड़े बड़े समाचारों कि प्रेस विज्ञप्ति (प्रेस - रिलीज ) में छपवाया ये शुभ समाचार, इससे पहले कोई भी पेप्सी के सीइओ ने इतनी सुर्खिया नहीं बटोरी जितनी इंदिरा नुई ने, (मै इंदिरा नुई कि योग्यता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा हूँ, हम यह बात जानते है कि भारतीय में योग्यता काफी होती है बस उसका रंग सांवला होता है) फिर क्या था हमारे चील - गिद्ध रूपी समाचार समूह - उन खबरों पर ऐसे टूट पड़े जैसे गिद्ध कोई मरे हुए जीवो के ऊपर टूट पड़ते है, जी हां मिडिया कहा पीछे रहने वाले था, खूब पैसे बनाये सभी ने ये अचानक आई भारतीयों कि सफलता के तले, फिर तो ताँता लग गया भारतीयों को बड़े बड़े मल्टी-नेशनल कंपनी के पदों पर प्रतिष्ठित करने का जैसे कोई मंदिर में मूर्ति प्रतिष्टित करता हो श्रद्धालुओ के दर्शन के लिए, गौर करने वाली बात हें कि सन २००० से लगाकर ही भारतीयों में इतनी योग्यता कहाँ से आ गयी ?
यहाँ देखे इसी अंतराल में बड़ी बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियों ने भारत में पैर पसारे, और हमारे भारत के स्वदेशी गवर्नर मिस्टर मनमोहन, माला लेकर खड़े है उनके स्वागत के लिए, की
भैय्या आओ और ठप्पा लगाकर अन्दर घुसते जाओ, तब तक बाहर न निकलना जब तक ६० साल पहले वाले हालत ना हो...कोई तकलीफ है तो हमें बताओ.. सवाल है कि विदेशियों के मन में हमारे प्रति क्या सोच है, सभी जानते है कि भारत ने ही पुरे विश्व को गिनती करना सिखाया, ज्ञान दिया है, इसी बात ने सेकड़ो सालो तक भारतीयों को सिर्फ दंभ भरने लायक बनाया, और इस बीच पश्चिम में जबरदस्त उन्नति हुई...और भारतीय ऐसे ही दंभ में रह गए...पश्चिम कि यह सोच है कि भारतीयों का पेट सिर्फ उनकी प्रशंसा करने से भरता है, उनकी संस्कृती कि प्रशंसा करने से, उनके देवताओं कि विदेशी पूजा करते है तो भारतीय उन्हें सर पर बिठा देते है. मनोरंजन जगत ( नाम का मनोरंजन जगत नंगेपन के अलावा क्या है बॉलीवुड में ?) अगर विदेशी के पास होलीवुड है तो हमारा भी तो कोई "वुड" होना चाहिए हें ना ? लो बॉलीवुड हो गया, नहीं तो उन्हें मान्यता कैसे मिलेगी ? अगर
अमेरिकन आइडल, के जेसे थीम वाले कार्यक्रम नहीं बनायेंगे तो काले अंग्रेज कैसे देखेंगे ? रियलिटी कार्यक्रम नहीं देखेंगे काले अंग्रेज तो अकल कैसे आएगी, मनोरंजन कैसे होगा ? ( और मल्टीनेशनल कंपनियों का पेट कैसे भरेगा ?) अगर इंग्लेंड में
ब्रिटेन गोट टेलेंट रियलिटी कार्यक्रम होता है तो हमें भी टेलेंट के आगे इंडिया लगाकर ऐसा कार्यक्रम शुरू करना पड़ेगा ना ? भले ही उन्होंने हमें कही का ना छोड़ा हो अतीत में, "
लेकिन अब इंडिया ग्लोबल हो रहा है" ऐसा काले अंग्रेज मानते है, अब जिसका बेटा रियलिटी कार्यक्रम में फाइनल में है और माँ बाप गर्व से तालिया बजा रहे है जरा उनके पास जाकर कोई यह कह कर तो देखे कि "
भैय्या ये तो विदेशी संस्कृती है, बेटे को लेकर घर जाओ" देखो कही वे आपको थप्पड़ न रसीद कर दे, "
अरे भई ये क्या बडबडा रहे हो" "
भारत कि संस्कृती", "
भारत का गौरव", "
सभ्यता"ये क्या लगा रक्खा है, "बिजनस कि बात करो ना , दीखता नहीं हमारा बेटा कितना नाम कमा रहा है ?",पूरी उम्र जिन माँ बाप ने कभी लज्जा का नियम नहीं तोडा उसका बेटा रियलिटी में उन्ही के सामने नंगी, चड्डी बनियान पहने बाजारू लडकियों के साथ नाच रहा है, माँ भी शर्म के मारे, जेसे कोई नहीं देखने लायक सपना जबरदस्ती देख रही है,
अरे नाचेगा नहीं तो, डिरेक्टर उसे नहीं लेंगे, यही तो थीम है लोगो का मनोरंजन (
संस्कृती को तहस नहस करने का धीमा षड्यंत्र ) करने की, मुझे बताओ की इस रियलिटी के कार्यक्रम में कितने लोग फाइनल के बाद अपनी जिंदगी को सवार पाते है, और कितनी संख्या में ये पढाई, घर-बार, छोड़ कर आते है, गाँव - गाँव से,
"मै मेरा गाँव का नाम रौशन करूँगा, अपने देश का नाम रौशन करूँगा, मेरे पिताजी गरीब है, माँ बीमार है " वगेरह वगेरह...अरे तुम ये गाने गाकर देश का नाम कैसे रौशन करोगे, दुनिया को हिंदी आती है क्या ? और वैसे भी इंडियन आइडल और फाइनल में जाने के लिए खुबसूरत होना भी जरुरी है,
नहीं तो फेअर एंड लवली वाले एड नहीं देंगे हमें ! अब एक भाई मुंबई में नए नए आये है बड़ी कंपनी में काम करने के लिए, और जाते है "
पर्सनलिटी डेवेलोपमेंट" में अंग्रेजी सीखने, और गाँव के गंवार-पन की चादर हटाने के लिए, नहीं तो नौकरी कहा से मिलेगी, लाख कोशिशे की लेकिन पढाई ऐसी हिंदी में की, कि अंग्रेजी पल्ले ही नहीं पड़ती, अब ट्रेन में भी जाते है साहब तो मन मारकर अंग्रेजी पेपर खरीदना ही पड़ता है आखिर जींस पेंट कि इज्जत का तो ख्याल रखना पड़ेगा ना, "डेनिम जींस है, फोरेन ब्रांड है", भले ही अंग्रेजी पेपर पढ़ते ही सर दुखने लगता हो... ,
क्या आप कोशिश करते है स्वदेश को बचाने की ? या आप अभी भी नहीं सुधरे है गुलाम रहकर भी या फिर हर पीढ़ी को गुलामी सहन करनी ही पड़ेगी भारत में ? ,
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.... अडोब कंपनी के सी इ ओ -
शांतनु नारायण, २००७ में ,
मोटोरोला कंपनी के सीइओ -
संजय झा, २००८ में, ,
पेप्सी कि सीइओ
इंदिरा नुई , २००७ में पदासीन हुए ,
सिटी ग्रुप के सीइओ
विक्रम पंडित, २००७ में पदासीन हुए ,
कोग्निजेंट टेक्नोलोजी के सीइओ
फ्रांसिस्को डिसुजा, २००७ में पदासीन हुए ,
अपोलो म्यूनिख के सीइओ
अंटोनी जेकब , २०१० में पदासीन हुए ,
मास्टर कार्ड के सीइओ
अजय बग्गा , २०१० में पदासीन हुए ,
स्टैंडर्ड एंड पुअर ( मेक्ग्राव हिल ) के सीइओ देवेन शर्मा , २००२ में पदासीन हुए ,
डीबीसी ग्रुप के सीइओ पियूष गुप्ता, २००९ में पदासीन हुए ,
क्वेस्ट डाइग्नोसिस्ट के सीइओ सूर्य मोह्पत्र, २००४ में पदासीन हुए ,
हर्मन इंटरनेशनल के सीइओ दिनेश पालीवाल, २००८ में पदासीन हुए ,
वोडाफोन के सीइओ अरुण शरिन, २००३ में पदासीन हुए ,
डच बैंक के प्रबंधक बोर्ड में अंशु जैन २०१० में पदासीन हुए ,
और बहुत से नाम है, जिनकी बुद्धि सिर्फ २००० - से ही चमकी....????
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