सवा अरब भारतीयों में से अक्ल केवल अन्ना, भूषण द्वय, केजरीवाल, संतोष हेगड़े और किरन बेदी में ही है

मंगलवार, 16 अगस्त 2011


आधुनिक भारत के तथाकथित दूसरे महात्मा गांधी की जिद है कि वो तो चांद खिलौना लेकर ही मानेंगे नहीं तो भूखे ही मर जाएंगे। उनके आमरण अनशन को दम दे रही मंडली भी यह सिद्ध करने पर आमादा है कि सवा अरब भारतीयों में से अक्ल केवल अन्ना, भूषण द्वय, केजरीवाल, संतोष हेगड़े और किरन बेदी में ही है व भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का लाइसेंस भी इन्हीं लोगों के पास है। इसलिए अब इस मंडली की जिद है कि संसद को बंधक बनाकर अपनी मर्जी का लोकपाल लेकर ही मानेंगे। लेकिन समस्या यह है कि सरकार चलाने वाले भी कम शातिर दिमाग़ नहीं हैं उन्होंने बाबा रामदेव की हवा तो लाठी चलाकर निकाल दी पर अन्ना तो बिना लाठी के ही फुस्स हो गए। अब जब सरकार लोकपाल कानून बना ही रही है तो अन्ना अब भूखे मरने को क्यों तैयार हैं?
पहला सवाल तो यही है कि अन्ना मंडली पूरी राजनीतिक जमात को ही गालियां दे रही है और तमाशा यह है कि जनलोकपाल मांग भी उसी जमात से कर रही है? याद होगा कि जब जंतर मंतर पर दो राजनेता पहुंच गए थे तो अन्ना मंडली ने उन्हें अनशन नाट्य स्थल पर घुसने नहीं दिया था और जब आइसा से जुड़ी कविता कृष्णन राजघाट पर उनके एक दिवसीय उपवास पर बोलने के लिए खड़ी हुई थीं तो उन्हें बोलने नहीं दिया गया था। यानी भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की आजादी की जो स्वतंत्रता देता है यह मंडली उसकी घोर विरोधी है। दूसरे जब यह मंडली राजनेताओं की बात सुनने तक से परहेज कर रही है तो राजनेता ही उनके हर आदेश को सिर्फ इसलिए मान लें क्योंकि इंडिया अगेंस्ट करप्शन को देश के कई बड़े काॅरपोरेट घरानों का समर्थन और आर्थिक मदद हासिल है?
इस मंडली का दंभ देखिए वह अपनी साइट पर कहती है- ”जाहिर है कि नेता एक अच्छा लोकपाल बिल नहीं ला सकते। क्योंकि अगर एक सख्त लोकपाल कानून बना तो देश के आधे से अधिक नेता दो साल में जेल चले जायेंगे और बाकी की भी दुकानदारियाँ बंद हो जाएंगी। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि हम यानी देश के आम लोग इस कानून को बनवाने की पहल करें।“ क्या अन्ना मंडली के पास इस बात का कोई उत्तर है कि अगर सारे राजनेता चोर ही हैं तो यह मंडली अभी पिछले दिनों इन चोरों के दरवाजे पर नाक रगड़ने और मत्था टेकने क्यों गई थी? दरअसल इस तरह का माहौल बनाने के पीछे काॅरपोरेट घरानों का षडयंत्र है, वे चाहते हैं कि जनता में राजनीति के प्रति इतनी अधिक अरुचि पैदा कर दो कि उसे यह आभास होने ही नहीं पाए कि उसकी जि़न्दगी का एक एक पल राजनीति से निर्धारित होता है। आप बस में किराया देते हैं, उसे राजनीति तय करती है, आपके बच्चे का एडमिशन होना है उसे राजनीति तय करती है, आप सड़क पर चलते हैं उस सड़क को भी राजनीति तय करती है। इसलिए अन्ना केजरीवाल की आड़ में छिपे काॅरपोरेटी षडयंत्र को समझना होगा कि जब जनता राजनीतिक रूप से अशिक्षित होगी तभी देश के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ये काॅरपोरेट घराने बेरोक-टोक कर पाएंगे।
दूसरी बात कानून बनाना संसद् का काम है और संसद् को बंधक बनाकर कोई कानून नहीं बनाया जा सकता। लेकिन अन्ना मंडली तो इस बात पर आमादा है कि उसने जो ड्राफ्ट बनाया है वह दुनिया का श्रेष्ठतम ड्राफ्ट है और उसे ही संसद् पारित करे। यह तरीका शुद्ध रूप से राष्ट्रद्रोही और लोकतंत्र विरोधी है। संसद् में केवल सरकार की ही मर्जी नहीं चलती बल्कि वहां विपक्ष भी अपनी बात रखता है। जब अन्ना को भारतीय जनता पार्टी समर्थन दे ही रही है तो उनके चेलों को चाहिए कि वे भाजपा से कहें कि संसद् में वह संशोधन प्रस्ताव लाए। जब मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू प्रसाद यादव मिलकर पांच साल से महिला आरक्षण विधेयक को संसद् में पास नहीं होने दे रहे तो क्या इतनी बड़ी भारतीय जनता पार्टी चाहे तो अन्ना की सारी मांगें मनवाकर उनकी मर्जी का कानून संसद् से पास नहीं करवा सकती? इसलिए अन्ना को जंतर मंतर पर भूखे मरने के बजाए अशोक रोड पर अपना मजमा लगाना चाहिए और भाजपा पर दबाव बनाना चाहिए कि वह उनकी मर्जी का लोकपाल बनवाए।
तीसरी और अहम बात अगर अन्ना और केजरीवाल ने राज्य सत्ता को चुनौती देने का जो रास्ता चुना है वह सही है तो किशन जी और गणपति का रास्ता क्यों गलत है? माओवादी भी राज्य सत्ता को लगातार चुनौती दे रहे हैं और अन्ना और केजरीवाल भी दे रहे हैं। माओवादियों के पास कम सम कम एक जेनुइन काॅज़ राज्य सत्ता को चुनौती देने के लिए है तो कि वे शोषित और वंचित तबके की बेहतरी और उसके अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य सत्ता को चुनौती दे रहे हैं लेकिन अन्ना और केजरीवाल की मंडली के पास तो ऐसा कोई जेनुइन काॅज़ भी नहीं है?
चैथी बात अन्ना मंडली का दावा है कि उसने कपिल सिब्बल के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र चांदनी चैक में जनमत संग्रह किया और उसमें 85 फीसदी लोग अन्ना के जनलोकपाल के समर्थन में हैं। तो ऐसे जनमत संग्रह तो हुर्रियत कांफ्रेंस और जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) कश्मीर में पिछले कई वर्षों से कराते आने और उसमें सौ फीसदी कश्मीरियों के भारत से नाराजगी का दावा करते आ रहे हैं तो क्या उनके जनमत संग्रह को भी वैधता प्रदान कर दी जाए? आखिर वह कौन सा तर्क है जिसके आधार पर अन्ना मंडली के जनमत संग्रह को पूरे देश की आवाज़ मान लिया जाए?
पांचवी बात अन्ना मंडली ने अपने इस जनमत संग्रह में 72000 लोगों से प्रश्न किए जाने का भी दावा किया है। हम उनके दावे पर कोई ऐतराज नहीं जता रहे हैं लेकिन जरा इस बात को भी अन्ना- केजरीवाल और भूषण को बताना चाहिए कि इन 72000 लोगों में से कितने लोगों ने बताया कि उन्होंने अपनी पूरी उम्र में प्रधानमंत्री या किसी मंत्री को रिश्वत दी? और कितने ऐसे लोग थे जिन्होंने यह बताया कि उन्होंने चपरासी, सिपाही और क्लर्क को रिश्वत दी? फिर जनता किसके भ्रष्टाचार से त्रस्त है? प्रधानमंत्री के या चपरासी और क्लर्क के?
वैसे भी प्रधानमंत्री को रिश्वत देने की हैसियत आम आदमी की नहीं होती है उसे रिश्वत तो वही काॅरपोरेट घराने दे सकते हैं जो इंडिया अगेंस्ट करपश्न को चंदा दे रहे हैं। आम आदमी तो इस करप्शन से परेशान है कि 50 पैसे का लक्स किस तरह तेरह रुपए का बिक जाता है, किसान से दस रुपए किलो खरीदा गया गेहँ जब आटा बनकर कारगिल फूड्स के पाॅलीपैक में आ जाता है तो बीस रुपए किलो हो जाता है। अगर इस भ्रष्टाचार पर प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने पर रोक लग सकती हो, कारगिल फूड्स का आटा बारह रुपए किलो बिक सकता हो, सीमेंट का कट्टा सौ रुपए का बिक सकता हो तब तो हमें अन्ना मंडली का समर्थन देश के संविधान के खिलाफ जाकर भी करना चाहिए और अगर ऐसा नहीं है तो अन्ना जी ज़रा धीरे चलो, ये पब्लिक है सब जानती है।

साभार- हस्तक्षेप डॉट कॉम

लेखक : श्री अमलेन्दु उपाध्याय


3 टिप्पणियाँ:

मुनेन्द्र सोनी ने कहा…

सही बात कही अमलेन्दु जी ने,मैं सहमति रखता हूँ
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

यही तो बात है की यहाँ हर कोई नेता बनना चाहता है इसे ही तो अपनी ढपली और अपना राग बजाना कहते हैं ...... ये पब्लिक है सब जानती है।

मैं आपसे सहमत हूँ

बेनामी ने कहा…

ulloo ks patha hai tu 1 No ka

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