रविवार, 17 जून 2012


दैनिक जागरण १७ जून २०१२    सम्पादकीय पृष्ठ  
संत समाज और राजनीति
--आर. विक्रम सिंह 
गंगा विमुक्ति अभियान के तहत संतगण का दिल्ली कूच का आ ान आश्चर्यजनक है। सरकारों को समझाने से पहले गंगा स्वच्छता के प्रति आम लोगों, देश की धर्मप्राण जनता को जागरूक किया जाए, जो उत्साह से तिथि-त्योहारों पर गंगा स्नान करने आती है। उन मोहल्लों के निवासियों को भी जागरूक करें जिनका सीवर बेरोकटोक गंगा में खुलता है। सरकारें तो सीवर सफाई की महंगी योजनाएं बना सकती हैं या कानून बना सकती है। यही उनकी सीमाएं हैं। गंगा सफाई में समाज की भूमिका महत्वपूर्ण है। समाज हमारे संतों का राजनीतिज्ञों की तुलना में कहीं अधिक सम्मान करता रहा है। हमारे संतों, बाबाओं, धर्मगुरुओं की प्रारंभिक चिंता तो समाज की होनी चाहिए। देखा जाए कि क्या हमारा संत समाज सामाजिक व्याधियों यथा जाति-पांत, नारी शोषण, दहेज, बाल विवाह आदि कुरीतियों के विरुद्ध क्या कभी कोई अभियान चला सका है? इस सबके बीच गंगा प्रदूषण मुक्ति के लिए संत समाज का प्रयास देर से ही सही, लेकिन स्तुत्य कदम है। पहले अनशन फिर दिल्ली कूच-इस अभियान से राजनीति की सुगंध उठ रही है, वरना गंगा की बुरी दशा तो गत पचास वर्षो से देखी जा रही थी। पिछले दिनों बेनियाबाग, वाराणसी में बड़ी संख्या में गणमान्य संत-महात्मागण गंगा संबंधी बैठक में उपस्थित हुए। सत्ताओं को तो कोसा गया, लेकिन कोई सार्थक कार्ययोजना सामने नहीं आ सकी। राजनीति से अलग हट कर गंगा-प्रदूषण की बात करें तो वहीं वाराणसी में बहुत से नाले शहर का सीवर गंगा में डालते हैं। अगर उनमें से एक नाले का भी उत्प्रवाह गंगा में जाने से रोकने के लिए हमारे संत महात्मागण वाराणसी नगर-वासियों को प्रेरित कर सकते तो सार्थकता की दिशा में कुछ तो प्रयास होता। यह भी सामने आता कि सरकारों के साथ ही गंगा प्रदूषण के दोषी तो अंतत: हम जनता जनार्दन ही हैं। चूंकि हम लोग वोटर हैं इसलिए कोई नेता तो हमें दोषी बताने से रहा। संतों को किसका भय है? वे तो नगर-नगर अलख जगाकर गंगा के अपराधियों, दोषियों को लताड़ लगा सकते थे। अब दिल्ली कूच का राजनीतिक एजेंडा किस प्रकार गंगा मुक्ति में सहायक होगा, यह समझ पाना बड़ा दुष्कर है। हमारे संतगण अगर आश्रम छोड़ राजनीति की ओर चल पड़े तो धर्म, अध्यात्म का क्या होगा? चुनावी राजनीति की कालेधन पर निर्भरता चिंता का विषय है। यह कालाधन अर्थव्यवस्था की समस्या है, अध्यात्मिक-सामाजिक समस्या नहीं है। इसका समाधान अर्थशास्ति्रयों, राजनीति विज्ञानियों एवं प्रतिबद्ध राजनीतिक चिंतकों को निकालना है। संतगण यदि राजनीतिक खेमेबंदी में आए तो जिंदाबाद के साथ उनके खिलाफ भी नारे लगेंगे। संतगण सामाजिक विसंगतियों का मुद्दा क्यों नहीं उठाते? कोई संत खड़ा होकर यह क्यों नहीं कहता कि जातिवाद का जो जहर इस राष्ट्र को नष्ट कर रहा है उसके विरुद्ध अलख जगाई जाए, जातियों के समापन का आंदोलन खड़ा कर दिया जाए। समाज में अंतरजातीय विवाहों के स्वीकार की व्यवस्था यदि धर्म नहीं देगा तो कौन देगा? गत अनेक शताब्दियों से अनेक कारणों से बहुत से सनातन धर्मावलंबी अन्य धर्मो के अनुयायी हो गए हैं, क्या हमारे साधु-संत इन लोगों की वापसी की कोई व्यवस्था देंगे? अगर आप समाज और धर्म के सवालों से नहीं जूझेगें तो फिर आपके धर्म-नेता होने का औचित्य क्या है? संपूर्ण देश में संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार, भारत की समस्त भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि के प्रोत्साहन का कार्य हमारे धर्म और संस्कृति के लक्ष्य क्यों नहीं बनते? अगर संत समाज धर्म, समाज के मुद्दों को छोड़ कर राजनीति की ओर उन्मुख होगा तो राजनीतिक समझौतों की बाध्यताएं उन्हें कहीं का न छोड़ेंगी। संत समाज जातिवाद के समापन का ही बीड़ा उठा ले तो यह समाज, देश की बड़ी सेवा होगी। यदि अंतरजातीय विवाहों को सामाजिक एकता की आवश्यकता के रूप में स्वीकार कर धार्मिक मान्यता दी जा सके तो यह बिखर रहे समाज, राष्ट्र के सशक्तीकरण में महान् योगदान होगा। आजादी के लिए गांधी का राष्ट्र-जागरण अभियान जन आंदोलन के रूप में प्रारंभ हुआ था। सामाजिक लक्ष्य, जैसे कि महिला उत्थान, दलित उत्थान, स्वदेशी का प्रसार, शिक्षा का प्रसार आदि-आदि उनके एजेंडे के महत्वपूर्ण बिंदु रहे हैं। गांधी कोई चुनावी लक्ष्य लेकर नहीं चल रहे थे। पूना पैक्ट के बाद गांधी सक्रिय राजनीति छोड़ देश भर की दलित बस्तियों में सामाजिक आंदोलन की रामधुन गाते रहे। हमने गांधी का अनशन तो पकड़ लिया, लेकिन उनके सामाजिक कार्यक्रमों को सरकारों के खाते में डाल दिया। जाग्रत संत समाज ने तो मध्यकाल के बर्बर दौर में भी जाति प्रथा के विनाश का आंदोलन चलाया था। संत सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास नानक ने विषमताओं को दूर करते हुए समाज को एकीकरण का मार्ग सुझाया। हिंदू-मुसलमानों के सहअस्तित्व के पीछे नानक, कबीर का बहुत बड़ा योगदान है। अनशन तो राजनीतिक हथियार है। कष्ट होता है जब संत समाज राजनीतिक लक्ष्यों के तहत अनशन पर बैठते हंै, मंचों से राजनीतिक व्याख्यान देते हैं। अर्थव्यवस्था से कालेधन की समाप्ति जरूरी है। इससे अधिक जरूरी हजारों वर्षो से चले आ रहे जाति-वर्णवाद का समापन है। गांधी, जयप्रकाश ने सत्ता की आकांक्षाएं नहीं पाली थीं। लोहिया, अंबेडकर सत्ता के लिए समझौतापरस्त नहीं बने। ये राजनीति में रहते हुए भी संत के समान थे। फतेहपुर सीकरी में अकबर के दरबार में बुलाए जाने पर संत हरिदास ने कहा था-भगत कौ का सिकरी सो काम.. अर्थात संतों को सत्ता से क्या लेना-देना है? अब अगर संतों ने सीकरी की राह देख ली तो यह धर्म और समाज का बड़ा दुर्भाग्य होगा। (लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं) 

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