NANDA RAAJ JAAT, A FEUDAL DRAMA

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

नंदा राजजात कब बनेगी लोकजात?
-जयसिंह रावत
नंदा देवी राजजात का सैकड़ों सालों का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रवाह 21वीं सदी के दूसरे दशक तक पहुंच गया है। सदियों से चली रही इस यात्रा ने समय के साथ कदमताल करते हुए कई असंगत होती गयी परंपराएं छोड़ी दीं तो कुछ नयी परंपराओं को आत्मसात कर लिया। लेकिन अब भी थोकदारी, राजशाही और जातिवादी परंपराएं इसे लोकतंत्र की लोकजात बनने से रोक रही हैं। यही नहीं इस विशुद्ध धार्मिक आयोजन में आध्यात्मिकता पर तमाशा भारी पड़ता जा रहा है। हिमालय के अतिसंवेदनशील क्षेत्र में एक धार्मिक यात्रा को विशाल जनसमूह में बदलकर अकल्पनीय आपदा को न्योता दिया जा रहा है। डॉ. शिव प्रसाद डबराल जैसे इतिहासकारों के अनुसार धार्मिक मनोरथ की पूर्ति और इस यात्रा को सफल बनाने के लिए प्राचीनकाल में नरबलि की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 1831 में प्रतिबन्धित कर दी गयी। उसके बाद अष्टबलि की प्रथा काफी समय तक चलती रही। डॉ. डबराल और डॉ. शिवराज सिंह रावत निसंग के अनुसार नरबलि बंद होने के बाद इस यात्रा में बकरियों और भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही, मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया। पहले इस यात्रा में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध था, लेकिन सन् 2000 की यात्रा में बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी इसमें भाग लिया। लेकिन इन सुधारों के बावजूद इसमें कुछ ऐसी सामंतवादी परंपराएं अब भी शेष रह गयीं हैं, जो कि लोकतांत्रिक माहौल से मेल नहीं खातीं। आयोजन समिति के महामंत्री भुवन नौटियाल तथा उनके पिता देवराम नौटियाल के लेखों के अनुसार यात्रा में अभक्ष्य जातियों के प्रवेश पर भी रोक है। वे अभक्ष्य जातियां कौन सी हैं, इसका खुलासा आयोजन समिति ने अभी तक नहीं किया है। इसमें अनुसूचित जातियों के शामिल होने पर सरकार और उसके द्वारा प्रोत्साहित आयोजन समिति की खामोशी काबिलेगौर है। सदियों से इस हिमालयी यात्रा के पीछे हिमालय पुत्रों और पुत्रियों की अपनी आराध्या नंदा के प्रति आस्था के अलावा इसमें लोगों की प्रकृति प्रेम और कैलास दर्शन की भावना भी निहित थी। आज जिस तरह इसे महाकुंभ बता कर एक विशुद्ध धार्मिक आयोजन को जनसैलाब का रूप दिया जा रहा है, वह अति संवेदनशील हिमालयी ईको सिस्टम के लिए हितकर तो नहीं माना जा सकता है। खास कर तब जबकि हिमालय पर मानव चढ़ाई के कारण केदारनाथ के ऊपर बाढ़ रही हो। जब हिमाच्छादित क्षेत्रों में बादल फट रहे हों। ऐसी स्थिति में समझा जा सकता है कि हिमालय पर इस तरह अत्यधिक भीड़ जुटाना कितना जोखिमपूर्ण हो सकता है। कभी कन्नौज नरेश यशधवल ने भी अपने लाव-लश्कर के साथ इसी तरह हिमालय पर चढ़ाई की थी। उसने दुस्साहस का अंजाम भुगता। आज रूपकुंड में जो नर कंकाल पड़े हुए हैं वे उसी यशधवल या यशोधवल के लाव-लश्कर के माने जाते हैं। इस यात्रा को महाकुंभ की तरह प्रचारित करना और उसे महाकुंभ बनाने का प्रयास करना यशधवल के दुस्साहस जैसा ही माना जा सकता है।

आज राजजात के दौरान कुछ लोग rाकमल जैसे दुर्लभ पुष्पों पर टूट पड़ रहे हैं तो कुछ लोग इस धार्मिक यात्रा की आड़ में रेड डाटा बुक में शामिल सालमपंजा जैसी दुर्लभ और प्रतिबंधित जड़ी-बूटियों को उखाड़ लेते हैं। समुद्रतल से 16000 फुट की ऊंचाई पर स्थित रहस्यमयी झील के नाम से विख्यात रूपकुंड से मानव कंकालों और पुरातात्विक महत्व की अनमोल वस्तुओं को उठा कर ले जाने पर कोई रोक-टोक होने से उत्तराखंड का यह अमूल्य पुरातात्विक खजाना आज दुनिया की विभिन्न प्रयोगशालाओं में पहुंच चुका है। कंकालों के साथ ही वहां कभी आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूड़ियां आदि सामग्री बिखरी पड़ी थी, जो कि अब बहुत कम दिखाई देती हैं। नन्दा देवी राजजात के बारे में प्रख्यात इतिहासकार डॉ. शिप्रसाद डबराल ने उत्तराखंड यात्रा दर्शन में लिखा है कि नन्दा महाजाति खसों की आराध्य देवी है। शिवराज सिंह रावत आदि इतिहासकरों के अनुसार राजजात का मतलब सामन्ती यात्रा या राजा की यात्रा हो कर राजराजेश्वरी की यात्रा से है। जबकि इतिहास से अनजान मीडिया और राज्य सरकार इसे एक गांव विशेष के ठाकुरों की बेटी मान रहे हैं। उत्तराखण्ड में नंदा देवी के 60 से अधिक मंदिर हैं। गौरतलब है कि जहां से नंदा राजजात निकल रही है वहां प्राचीन काल में नंदा का मंदिर तक नहीं था। यह जोहार से लेकर नीती माणा तक के हिमालयवासी भोटिया समुदाय की आराध्या है। वैसे भी प्राचीन काल से कुरुड़ की देव डोली ही यात्रा की अगुवाई करती रही है, लेकिन उसे स्वयंभू राजाओं ने मीडिया और सरकार की मदद से पीछे धकेल दिया है। कुरुड़ की नंदादेवी के पुजारी गौड़ ब्राrाण आज भी नंदा राजजात को किसी जाति विशेष की देवी मानने को तैयार नहीं हैं। इतिहास भी उन्हीं के पक्ष में जाता है। इससे पहले सन् 1987 में आयोजित राजजात में भी कांसुवा और नौटी की नन्दा देवी की जात तथा कुरुड़ की नन्दा देवी की जात अलग-अलग चली थी। उस समय भी नौटी की राजजात सरकार द्वारा वित्त पोषित थी और उसके पीछे चल रही कुरुड़ की जात परम्पराओं और आस्थाओं द्वारा पोषित थी। देखा जाए तो हिमालय दर्शन के लिए हिमालय की यात्रा तो ठीक है, मगर सामूहिक रूप से हिमालय पर चढ़ाई की सोच खतरनाक हो सकती है।

0 टिप्पणियाँ:

प्रकाशित सभी सामग्री के विषय में किसी भी कार्यवाही हेतु संचालक का सीधा उत्तरदायित्त्व नही है अपितु लेखक उत्तरदायी है। आलेख की विषयवस्तु से संचालक की सहमति/सम्मति अनिवार्य नहीं है। कोई भी अश्लील, अनैतिक, असामाजिक,राष्ट्रविरोधी तथा असंवैधानिक सामग्री यदि प्रकाशित करी जाती है तो वह प्रकाशन के 24 घंटे के भीतर हटा दी जाएगी व लेखक सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी। यदि आगंतुक कोई आपत्तिजनक सामग्री पाते हैं तो तत्काल संचालक को सूचित करें - rajneesh.newmedia@gmail.com अथवा आप हमें ऊपर दिए गये ब्लॉग के पते bharhaas.bhadas@blogger.com पर भी ई-मेल कर सकते हैं।
eXTReMe Tracker

  © भड़ास भड़ासीजन के द्वारा जय जय भड़ास२००८

Back to TOP