HIMALAYAN POPULACE IS EQUALLY IMPORTANT TO MAINTAIN ECOLOGY OF HIMALAYAS

मंगलवार, 8 सितंबर 2015


हिमालय के साथ हिमालयवासियों की चिंता भी जरूरी
-जयसिंह रावत
अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक फैला पर्वतराज हिमालय आज केवल पर्यावरणविदों अपितु आपदा प्रबंधकों की भी चिन्ता का विषय बना हुआ है। कहीं बाढ़ तो कही भूस्खलन और जलवायु परिवर्तन से उपजी नयी समस्याएं स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि नगाधिराज की तबियत निश्चित रूप से नासाज है और किसी महाविनाश से पहले ही इसके इलाज की तत्काल जरूरत है। लेकिन हिमालय के प्रति उठ रही चिंताएं तब तक निरर्थक ही हैं जब तक कि हम हिमालय और हिमालय की गोद में बसे करोडों ़लोगों के अन्तर्सबंधों को भी इस चिंता में शामिल नहीं करते। वास्तव में हिमालयवासी भी एशिया का ऋतुचक्र तय करने वाले हिमालय के पारितंत्र के ही अभिन्न अंग हैं। इसलिये हिमालय और हिमालयवासियों की वेदनाओं को हम अलग-अलग चस्मों से नहीं देख सकते।
नगाधिराज हिमालय आकार में जितना विराट है, अपनी विशेषताओं के कारण उतना ही अद्भुत भी है। कल्पना कीजिये अगर हिमालय होता तो दुनिया और खासकर एशिया का राजनीतिक भूगोल क्या होता? एशिया का ऋतुचक्र क्या होता? किस तरह की जनसांख्यकी होती और किस तरह के शासनतंत्रों में बंधे कितने देश होते? विश्वविजय के जुनून में दुनिया के आक्रान्ता भारत को किस कदर रौंदते? गंगा होती, सिन्धु होती और ना ही ब्रह्मपुत्र जैसी महानदियां होतीं। अगर ये नदियां ही होती तो गंगा-जमुनी महान संस्कृतियां कहां से पैदा होती? फिर तो संसार की महानतम् संस्कृतियों में से एक सिन्धु घाटी की सभ्यता भी होती। उस हाल में गंगा-यमुना के मैदान का क्या हाल होता? दरअसल हिमालय हमारे भारत का भाल ही नहीं, अपितु हमारी ढाल भी है और यह केवल एशिया के मौसम का नियंत्रक है, बल्कि एक जल स्तम्भ भी है। यह रत्नों की खान भी है तो गंगा के मैदान की आर्थिकी को जीवन देने वाली उपजाऊ मिट्टी का श्रोत भी है। सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र या कराकोरम से लेकर अरुणाचल की पटकाइ पहाड़ियों तक की लगभग 2400 कि.मी. लम्बी यह पर्वतमाला विलक्षण विविधताओं से भरपूर है। इस उच्च भूभाग में जितनी भौगोलिक विविधताएं हैं, उतनी ही जैविक और सांस्कृतिक विविधताएं भी हैं। देखा जाए तो यही वास्तविक भारत भाग्य विधाता है। हिमालय की यह विशिष्ट नैसर्गिक विविधता इस क्षेत्र तथा इससे कहीं आगे तक रहने वाले लोगों के जीवन तथा उनके रोजगार के साधनों के संरक्षण के लिये महत्वपूर्ण है।
अफगानिस्तान से लेकर भूटान और मिजोरम तक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इस समूचे क्षेत्र को भूकंपीय दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही लोकल वार्मिंग से ग्लेशियरों के निरंतर पीछे हटने की बात वैज्ञानिक कर रहे हैं। इसके साथ ही आबादी वाले क्षेत्रों तक हिमखंड स्खलन (एवलांच) की घटनाएं बढ़ रही है। ग्लेशियर पीछे खिसकेंगे तो वनस्पतियां भी ऊंचाई वाले शुष्क मरुस्थलों की ओर बढ़ेंगी जो कि वनस्पति विहीन होते हैं। वनस्पतियां ऊपर चढ़ेंगी तो मानसून भी केदारनाथ की आपदा की ही तरह स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र (क्रायोस्फीयर) की ओर बढ़ेगा। मौसम चक्र में परिवर्तन से समय से पहले ही मानसून आने से हिमाचदित क्षेत्रों की बर्फ के तेजी से गलने से केदारनाथ की जैसी अकल्पनीय बाढ़ जायेगी। शीत ऋतु में हिमरेखा तीन हजार मीटर से भी नीचे तक उतर आती है और वर्षा ऋतु आने से पहले अपने पूर्व निर्धारित 5 हजार मीटर की ऊंचाई तक लौट जाती है। अगर वापसी के समय निचले स्थानों पर ही उस पर समय से पहले आने वाला मानसून टूट पड़े तो केदारनाथ की जैसी त्रासदियों की संभावना रहती है।
 केदारनाथ की जल प्रलय को हिमालय के पर्यावरणीय असंतुलन का सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है। इस आपदा के लिये समय से पहले मानसून के धमकने और केदारनाथ से भी कहीं ऊपर चोराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने को जिम्मदार माना जाता है। जबकि इतनी ऊंचाई वाले स्थाई रूप से हिमाच्छादित क्षेत्र या क्रायोस्फीयर में वर्षा होने का पिछला कोई रिकार्ड नहीं है। प्रकृति के नियमानुसार वहां पहुंची नमी सीधे वर्फ में बदल कर शिखरों पर बिछ जाती है। यही बर्फ सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की नदियों को पानी देती है। अगर हिमालय का पारितंत्र गड़बड़ा गया तो प्रकृति की यह जलापूर्ति व्यवस्था भी गड़बडा़ जायेगी और इस असंतुलन से सूखा और केदारनाथ की बाढ़ जैसी विपदायें जायेंगी जिनसे केवल हिमालयवासी बल्कि चीन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और भूटान की आबादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित होगी। एक अनुमान के अनुसार इस क्षेत्र में विश्व की 50 से लेकर 60 प्रतिशत तक आबादी निवास करती है। भारत में ही हिमालय से उद्गमित ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु के बेसिनों में देश का 43 प्रतिशत क्षेत्र आता है और देश की सभी नदियों के प्रवाहमान और भूमिगत जल राशि का 63 प्रतिशत इन तीनों नदियों में है। इन नदियों को सदानीरा बनाये रखने में हिमालय के पूर्व से लेकर पश्चिम तक में फैले लगभग 9575 छोटे बड़े ग्लेशियरों, हिम तालाबों, बुग्यालों और जंगलों का महत्वपूर्ण योगदान है।
हिमालय का पारितंत्र (इको सिस्टम) डगमगाने से भारतीय हिमालय की गोद में बसे राज्यों में से जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के अलावा असम के हिमालयी क्षेत्र कार्बी एन्लौंग और दिमा हसाओ तथा पश्चिम बंगाल के हिमालयी जिले दार्जिंलिंग सहित कुल 4,67,90,642 की आबादी (2011 की जनगणना) सीधे प्रभावित होती है। इसलिये इन साढ़े चार करोड़ से अधिक लोगों का भविष्य और अस्तित्व सीधे-सीधे हिमालय से और हिमालय के पारितंत्र का सीधा संबंध इस आबादी से जुड़ा हुआ है। इन हिमालयी राज्यों में सैकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी कहीं अधिक उपजातियां मौजूद हैं और इनमें से सभी का अपना-अपना जीने का तरीका है। अगर इन पर्वतवासियों के कारण हिमालय का पारितंत्र प्रभावित हो रहा है तो हिमालय भी सीधे-सीधे इनके जनजीवन को प्रभावित कर रहा है। इसलिये हिमालय की वेदना को इनकी वेदना से अलग नहीं किया जा सकता। हिमालयी क्षेत्र प्राकृतिक तथा मानवजनित विभीषिकाओं की दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है तथा यहां के निवासियों पर ऐसी घटनाओं का खतरा निरंतर बना रहता है।
दरअसल विषम भौगोलिक परिस्थितयों के कारण इस हिमालयी क्षेत्र के निवासियों की अपनी कुछ विशिष्ट कठिनाइयां भी हैं। इनका जीवन कठिन होने के साथ ही यहां औद्योगिक विकास के अवसरों में कमी के कारण रोजगार के अच्छे अवसरों का भी नितांत अभाव है। हिमालयी राज्यों के ऊपर पर्यावरण संबंधी विशिष्ट नियंत्रण के कारण भी यहां आधारभूत संरचना का विकास भी सीमित हो जाता है। भारत सरकार कीउत्तर पूर्व की ओर देखोयालुक नॉर्थ ईस्टनीति के तहत हिमालय के उस हिस्से पर सरकार विशेष ध्यान देने लगी है। उत्तर पूर्वी राज्यों के लिये केन्द्र सरकार में अलग मंत्रालय बन चुका है। उसे डोनर मंत्रालय भी कहा जाता है। इसी प्रकार उस हिमालयी क्षेत्र के लिये उत्तर पूर्व परिषद ( एनईसी) जैसी संस्था भारत सरकार और उत्तरपूर्वी राज्यों के बीच सीधी कड़ी का काम कर रही है। विशेष संवैधानिक प्रावधानों और सामरिक महत्व के कारण जम्मू-कश्मीर को पहले से ही विशेष दर्जा मिला हुआ है। अब केवल उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ही ऐसे हिमालयी प्रदेश रह गये हैं जिनको विकास की दृष्टि से हिमालयी बिरादरी से अलग-थलग रखा गया है। जबकि इनका पर्यावरणीय और सामरिक महत्व किसी से कम नहीं है। इन राज्यों के हिमालय के पर्यावरण के संरक्षण में विशेष योगदान या अपने विकास की कीमत पर पर्यावरण की चौकीदारी का ग्रीन बोनस देने से भी भारत सरकार कतरा रही है।
जयसिंह रावत-
पत्रकार
-11  फ्रेंड्स एन्क्लेव,
शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल 09412324999
jaysinghrawat@gmail.com






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