मंगलवार, 10 मई 2016



सिकुड़ते वन: बढ़ता मानव संकट
-जयसिंह रावत
यूरोप और अमेरिका में इतनी बर्फ पड़ रही है कि लोग इसे हिमयुग के आगाज का संकेत मान रहे हैं। जबकि भारत में आसमान से इतनी गरमी बरस रही है कि पर्यावरणविद इसे ग्लोबल वार्मिंग का असर बता रहे हैं। अपने भारत में ही पहले तो बारिश ही नहीं हो रही है। अवर्षण से खेती चौपट हो गयी है और लोग पीने के पानी के लिये भी तरस रहे हैं। दूसरी तरफ जब मौसम का मूड बनता है तो आसमान से बारिश के रूप में आफत बरसने लगती है। जून के मध्य में ही अप्रत्याशित रूप से मानसून का धमकना और सीधे स्थाई हिमरेखा (लक्ष्मण रेखा) को लांघ कर केदारनाथ की खोपड़ी पर बरसना मौसम या जलवायु परिवर्तन का संकेत तो है ही लेकिन इस तरह प्रकृति का अप्रत्याशित आचरण उसके कुपित होने का भी स्पष्ट सकेत है। धरती के समस्त जीवधारियों और संसाधनों का स्वंभू मालिक बन बैठा इंसान ऐसा बर्ताव कर रहा है जैसे कि इस धरती पर केवल उसी को जीने का अधिकार हो। इसी दम्भ और लालच का नतीजा आज दैवी आपदाओं के रूप में सामने रहा है।
आबादी में आज हमें मनुष्य समेत जितने भी पालतू जीव दिखाई देते हैं वे कभी जंगली जीव रहे होंगे। इसी तरह गेहूं और दाल-चावल समेत जितने भी अनाज या सब्जियों का सेवन हम करते हैं वे भी कभी कभी जंगली वनस्पतियों की बिरादरी में ही रही होंगी। इसका साफ मतलब है कि आज चांद-तारों पर पहुंचने वाला इंसान और उसकी सभ्यता का मूल वन ही हैं। हमारे ही देश में 1.73 लाख गांव ऐसे हैं जो कि वनों के अन्दर या उनके आसपास रहते हैं और इन गावों में रहने वाली आबादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वनों पर निर्भर है। आदिवासी जीवन की कल्पना तो विना वनों के की ही नहीं जा सकती। जीवन का आधार माने जाने वाले जगलों का आज जिस तरह विनाश हो रहा है, उसे रोका नहीं गया तो मानव विनाश अवस्यंभावी है। जंगल केवल पेड़ों का झुरमुट नहीं बल्कि उसके अन्दर एक भरा पूरा वन्यजीव संसार होता है। जिसे मनुष्य बेरहमी से उजाड़ने पर तुला हुआ है। लेकिन सरकारी प्रचार तंत्र इस भयावह स्थिति की सही तस्बीर पेश करने के बजाय अपने मालिकों को खुश करने के लिये केवल अच्छी-अच्छी तस्बीरें ही पेश करता है।संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1901 से लेकर 1950 तक भारत में 14 मिलियन हैक्टेअर, याने कि 1 करोड़ 40 लाख हैक्टेअर भूमि पर से वनों का नामोनिशन मिट गया था। उसके बाद 1950 से लेकर 1980 तक वन क्षेत्र में 75.8 मिलियन हैक्टेअर की गिरावट आयी। हालांकि उसके बाद चिपको आन्दोलन में चण्डी प्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरणवादियों के प्रयासों से सरकार और आम जनता का ध्यान वृक्षों की सुरक्षा की ओर जाने से वनों के विनाश की गति में काफी कमी दर्ज की गयी।
केन्द्र और प्रदेशों की सरकारों के सभी विभाग अपनी छवि बनाने के लिये हमेशा ही अपने काम की अच्छी-अच्छी तस्बीरें पेश करते हैं। वन विभाग भी केवल शुक्ल पक्ष पेश करने में पीछे क्यों रहे? भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की दोसाल में जारी होने वाली वन स्थिति रिपोर्टों में भी वन क्षेत्र में विस्तार ही दिखाया जाता है। पिछले ही साल केन्द्रीय वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा जारी नवीनतम वनस्थिति रिपोर्ट में वर्ष 2013 के सर्वेक्षण के मुकाबले 5081 वर्ग किमी वनावरण की बृद्धि दिखाई गयी। इस नीवनतम् रिपोर्ट में देश का वनावरण 21.34 प्रतिशत दिखाया गया है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की सन् 1999 के बाद की तमाम रिर्पोटों पर गौर करें तो उनमें वनावरण में निरन्तर वृद्धि नजर आती है। सन् 1999 की वन स्थिति रिपोर्ट में जहां वनावरण 19.39 प्रतिशत दिखाया गया था वहीं 2015 की रिपोर्ट में वनावरण बढ़ कर 21.34 प्रतिशत हो गया। जिसमें 2.61 प्रतिशत घनघोर वन और 9.59 घने वनों के साथ ही 9.14 प्रतिशत खुले वन बताये गये हैं। विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1972 से 1978 के बीच भारत में वनावरण 17.19 प्रतिशत था। इस प्रकार हर दो साल बाद आने वाली इन रिर्पोटों में वनावरण में निरन्तर वृद्धि तो नजर आती है मगर जब इन रिपोर्टों को गौर से देखा जाता है तो इनमें जंगलों की असली तस्बीर नजर आती है। 1999 की रिपोर्ट में देश में सघन वन 11.48 प्रतिशत दिखाये गये हैं। जबकि 2015 तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे घनघोर जंगल सिकुड़ कर 2.61 प्रतिशत ही रह गये। विभाग के पैमाने के अनुसार सघन वन वे होते हैं जिनमें 70 प्रतिशत से अधिक वृक्षछत्र या कैनोपी होती है। 40 से लेकर 70 प्रतिशत तक वृक्षछत्र वाले वन मामूली घने वनों में तथा 10 से लेकर 40 प्रतिशत तक छत्र वाले वन खुले या छितरे वनों की श्रेणी में आते हैं। दरअल यही घनघोर जंगल वन्यजीवन के असली आश्रयदाता हैं। इन घने वृक्षछत्रों के नीचे ही एक भरा-पूरा वन्यजीव संसार फलता-फूलता है। उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में  बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष और इन संघर्षों में होने वाली मौतों में वृद्धि का असली कारण भी इन सघन वनों में निरन्तर ह्रास होना ही है। प्राकृतावास छिनने और शिकार में कमी के चलते गुलदार जैसे खूंखार जीव वनक्षेत्रों को छोड़ कर बंगलूरू और मेरठ जैसे शहरों में घुस कर उत्पात मचा रहे हैं।
घनघोर या सघन वनों के बारे में भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्टों को अगर ध्यान से देखें तो सन् 1999 की रिपोर्ट में जहां इस तरह के वन 11.48 प्रतिशत बताये गये हैं वहीं इनका आकार 2001 में 12.68 प्र.., 2003 में 1.23 प्र.. 2009 में 2.54 प्र.. और 2011की वन स्थिति रिपोर्ट में 2.54 प्र.. बताया गया है। इस तरह 1999 से लेकर 2015 तक सघन वनों में भारी गिरावट साफ नजर रही है। इससे भी चिन्ता का विषय यह है कि उत्तराखण्ड और मीजोरम जैसे राज्यों में केवल सघन वन बल्कि सम्पूर्ण वनावरण घट रहा है। यह सरकारी रिपोर्ट बताती है कि सन् 2013 से लेकर 2015 के बीच मीजोरम में 306 वर्ग किमी, उत्तराखण्ड में 268 वर्ग किमी, तेलंगाना में 168 वर्ग किमी, नागालैण्ड में 78 वर्ग किमी और अरुणाचल में 73 वर्ग किमी वनावरण घट गया। कुल मिला कर नवीनतम वन स्थिति रिपोर्ट में देश के 16 राज्यों में वनावरण में गिरावट का झुकाव बताया गया है। इन राज्यों में 2 साल के अन्दर ही 1180 वर्ग किमी वनावरण गायब हो गया है। वनावरण घटने वाले राज्यों में अरुणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, मीजोरम, नागालैंण्ड, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड और दादर नागर हवेली शामिल हैं। इनके अलावा ऐसे भी राज्य हैं जहां कुल मिलाकर वनावरण तो बढ़ा है मगर सघन या घनघोर जंगल घट गये हैं। ऐसे राज्यों में जम्मू-कश्मीर, 0 बंगाल और मध्यप्रदेश भी शामिल हैं।  कुल मिला कर देखा जाय तो केवल दो सालों के अन्दर देश के देश के 80 जिलों में वनावरण घट गया।
मानव दबाव के चलते देश में जहां घने वन लगातार सिकुड़ रहे हैं वहीं खुले वनों का विस्तार हो रहा है। दरअसल सरकारी मशीनरी कुल वनावरण का हवाला देकर वनावरण में कोई नुकसान होने का दावा कर रही है, जबकि वास्तव में यह परिवर्तन कोई शुभ होकर जंगलों के विनाश की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है। क्योंकि वनों के पतन की एक प्रक्रिया में सघन वन, कम सघन में और कम सघन वन, खुले या छितरे वनों में परिवर्तित हो जाते हैं और अन्ततः खुले वन वृक्ष विहीन हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि जिन राज्यों में कुल वनावरण नहीं घटा मगर सघन वन घट गये हैं तो वहां वनों के विनाश की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। वन सर्वेक्षण विभाग आसमान से उपग्रहों के जरिये धरती के चित्र लेता है जिसमें लैंटाना की तेजी से फैल रही झाड़ियां भी ग्रीन कवर के रूप में शामिल हो जाती है।
भारत दुनिया के 17 मेगाबायोडाइवर्सिटी (वृहद जैव विविधता) वाले राष्ट्रों में से एक गिना गया है। भारत में भी जैव विधिता के 4 हॉटस्पॉट हैं जिनमें पूर्वी हिमालय एक है। इस पूर्वी हिमालय में उत्तर पूर्व के राज्य शामिल हैं जहां झूम खेती याशिफ्टिंग कल्टीवेशनऔर विकास की अन्य जरूरतों के लिये बड़े पैमाने पर वनों का विनाश हो रहा है। वनों के विनाश का मतलब जैव विविधता का विनाश ही होता है। हिमालय देश की छत है और अगर छत ही सुरक्षित हो तो फिर उसके नीचे की पर्यावरणीय असुरक्षा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सन् 2013 से लेकर 2015 तक की दो साल की अवधि में ही उत्तर पूर्व के आठ राज्यों में 628 वर्ग किमी वनावरण गायब हो गया है। यह स्थिति केवल दो सालों की नहीं है। वहां दशकों से झूम खेती और वनों के व्यावसायिक दोहन के चलते बड़े पैमाने पर वनों का विनाश हो रहा है। इसी तरह पहाड़ी जिलों में भी वनावरण घटने की प्रवृत्ति निरन्तर जारी है। इन हिमालयी एवं अन्य पहाड़ी इलाकों में देश की अधिसंख्य जनजातीय आबादी बसती है। यद्यपि वनों के विनाश से सभी प्रभावित होते हैं, परन्तु इसका दुष्प्रभाव आदिवासियों पर सर्वाधिक होता है। आदिवासियों का जीवन पूर्णतः वनों पर निर्भर होता है। इनकी दैनिक जीवन की अधिकांश आवश्यकताएं भी वनों से ही पूरी होती हैं। वन्य-प्राणियों का आखेट तथा वनों से एकत्रित फल कंदमूल इनका भोजन होता है। इनके आवास, वृक्षों की शाखाओं की टहनियों से तैयार किए जाते हैं। उत्तर पूर्व में सेकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी उप जातियां निवास करती हैं, जिनका जीवन पूरी तरह वनों पर ही निर्भर होता है। इसलिये वनों को बचाना इस दुर्लभ होती जा रही जनजातीय सास्कृतिक विविधता और विलक्षण धरोहर को बचाने के लिये भी जरूरी है।
सन् 1988 की वन नीति के अनुसार पर्यावरण के सही सन्तुलन के लिये मैदानी क्षेत्रों में कुल भूभाग का एक तिहाई याने कि 33 प्रतिशत और पहाड़ी क्षेत्रों में दो तिहाई भूभाग वनाच्छादित होना चाहिये। लेकिन देश में 11 राज्य ऐसे हैं जहां का वनावरण निर्धारित मानकों से काफी कम है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जैविक विविधता के लिहाज से गरीब राज्य विकास के मामले में सबसे समृद्ध हैं। इनमें गुजरात भी शामिल है जिसका वनावरण महज 14 प्रतिशत रह गया है। इसी तरह राजस्थान और उत्तर प्रदेश का वनावरण 16 प्र. और महाराष्ट्र का 21 प्रतिशत ही रह गया है। जबकि पर्याप्त वनावरण वाले राज्य गरीब हैं।
वनों के विनाश के लिये एक नहीं बल्कि अनेक कारण जिम्मेदार होते हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों में परम्परागत झूम खेती या स्थानान्तरण खेती तो वनों के विनाश का मुख्य कारण है ही, लेकिन इसके साथ ही इन राज्यों की अन्य विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिये भी वनों का कटान किया जा रहा है। असम और उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में वनों का बड़े पैमाने पर व्यावसायिक दोहन अंग्रेजों के जमाने से होता रहा है। कुछ राज्यों में विकास परियोजनाओं के लिये वन भूमि का बड़े पैमाने पर हस्तान्तरण होता रहा है। उत्तराखण्ड जैसे राज्य में वन अधिनियम लागू होने के बाद सन् 1980 से लेकर 2007 तक 32052.9246 हैक्टेअर वनभूमि गैर वानिकी उपयोग के लिये हस्तान्तरित की जा चुकी थी। हिमाचल और कर्नाटक जैसे राज्यों में वन माफिया भी वनकर्मियों की मिलीभगत से वनों का बड़े पैमाने पर विनाश करता रहा है।
अगर सरकार की तरफ से वनों को बचाने के ईमान्दार प्रयास होते तो सम्भवतः मानवीय विकास की जरूरतों को पूरा करने के साथ ही वानिकी और गैर वानिकी क्षेत्रों में नये पेड़ लगा कर सन्तुलन कायम रखा जा सकता था। वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1951 से लेकर 2007 तक देश में कुल 39.89 मिलियन ( 3 करोड़ 98 लाख) हैक्टेअर में वृक्षारापेण हुआ। अगर सचमुच इतना वृक्षारोपण हुआ होता तो आज भारत में प्रतिव्यक्ति वनावरण में इतनी कमी नहीं होती। वनावरण में कमी का मतलब वन्यजीवन का संकट ही होता है। विश्व में प्रति व्यक्ति वनक्षेत्र उपलब्धता 0.64 हैक्टेअर है जबकि भारत में प्रतिव्यक्ति वनक्षेत्र उपलब्धता मात्र 0.08 ही है। संयुक्तराष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट (1990) के अनुसार भारत में वृक्षारोपण की सफलता बहुत कम है। यहां रोपे गये पौधों में से औसतन 65 प्रतिशत ही जीवित रह पाते हैं। वृक्षारोपण के नाम पर भ्रष्टाचार के चर्चे आम हैं। उत्तराखण्ड में भड़की वनाग्नि का सबसे अधिक प्रकोप उन वन क्षेत्रों में नजर रहा है। जहां पिछली बार वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण किया गया था। इसलिये आशंका व्यक्त की जा रही है कि वनीकरण वाले क्षत्रों में कहीं भ्रष्ट कर्मचारियों ने ही आग लगा दी हो। वैसे भी उत्तराखण्ड जैसे राज्यों के जंगलों में नये पेड़ भले ही उग पाये हों मगर वन कर्मियों और अफसरों की अट्टालिकाएं अवश्य ही देहरादून जैसे नगरों में जरूर जंगलों की तरह उग आयी हैं।
मनुष्य जन्म से ही प्रकृति की गोद में अपना विकास जीवन व्यतीत करता रहा है। वन और धरती पर चारों तरफ फैली हरियाली मानव के जीवन को केवल प्रफुल्लित करती है, अपितु उसे सुख-समद्धि से संपन्न करके उसे स्वास्थ्य भी प्रदान करती है। देखा जाए तो हमें सब कुछ प्रकृति द्वारा ही दिया गया है। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा निर्मित और प्रकृति से ही हमें प्राप्य हैं। आज प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जिस तरह से और जिस स्तर पर किया जा रहा है, उससे पर्यावरण को निरंतर खतरा बढ़ता जा रहा है।
-जयसिंह रावत


पत्रकार
-11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
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