गौरी की हत्या पर देहरादून के पत्रकार नेता खामोश क्यों ?

बुधवार, 6 सितंबर 2017

गौरी की हत्या पर देहरादून के पत्रकार नेता खामोश क्यों ?

हमारे उत्तराखण्ड के बारे में कहा जाता है कि जितने कंकर उतने शंकर। मतलब यह कि जितने पत्थर उठाओ उतने तरह के देवता मिल जायेंगे। लेकिन चूंकि मैं एक पत्रकार हूं इसलिये मैं इस धारणा को भी उसी चस्में से देख कर कह सकता हंूं कि इस राज्य में जितने पत्थर उतने पत्रकार और उतने ही पत्रकार संगठन भी निकल आयेंगे। एक छोटे से राज्य में हजारों की संख्या में पत्रकार और सेकड़ों की संख्या में पत्रकार संगठन हो गये हैं। लेकिन जब एक वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की बर्बरता से हत्या होती है तो किसी के मुंह से उफ तक नहीं निकलती है। कुछ पत्रकार हैं जो अपने स्तर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के खिलाफ नकारखाने की तूती की तरह बोल रहे हैं। लेकिन वे पत्रकार संगठन जो कि पत्रकारों के नाम पर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं वे खामोश हैं। देहरादून और उत्तराखण्ड के पत्रकार संगठनों का असली चेहरा यही है। चूंकि मैं पत्रकारों की ट्रेड यूनियनों से सम्बन्धित रहा हॅंू और देशभर में उत्तराखण्ड के पत्रकारों की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये लड़ता रहा हूं। इसलिये मुझे देहरादून के पत्रकार नेताओं की इस उदासी पर दुख होता है। ये सत्य है कि गौरी लंकेश वामपंथी विचारों की पत्रकार थी और भाजपा और खासकर हिन्दूवादी संगठनों की आलोचना करती थीं। मैं यह भी मानता हूं कि हमारे राजनीतिक विचार हमारी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने चाहिये। लेकिन अगर वह एक विचारधारा विशेष के लिये समर्पित थीं भी तो क्या उसे इस तरह मारा जाना चाहिये था? अगर वह पत्रकार नहीं भी होती तो क्या किसी विरोधी विचारधारा वाले की जुबान इस तरह बंद की जानी चाहिये? मुझे बेहद खेद और शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारी देहरादून की पत्रकार विरादरी में गौरी की मौत पर कुछ लोगों के मन की खुशी छिपने से नहीं छिप पा रही है। देहरादून के पत्रकार संगठनों का गौरी की हत्या पर चुप रहना उनके मौन के उल्लास का ही परिचायक है। मैं मानता हूं कि अगर केरल में आरएसएस के लोगों का दमन हो रहा है तो वह भी निंदनीय है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि उसके बदले में कोई गौरी लंकेश की मौत का जश्न मना ले। देहरादून के तथाकथित पत्रकार नेताओं का गौरी लंकेश की मौत पर खामोश हो जाना उनके असली चरित्र और मानसिक स्तर को उजागर करता है। मैं नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट का प्रदेश अध्यक्ष रहने के साथ ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य रहा हूं। मैं उस तथाकथित प्रगतिशील संगठन इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य होने के नाते उससे जुड़े एक प्रदेश स्तरीय संगठन का अध्यक्ष भी रहा हूं। सन् सत्तर के दशक से लेकर अब जबकि कि मैं एक तरह पत्रारिता के संगठनों की राजनीति से सन्यास ले चुका हूं, मैंने कई संगठनों में काम कर अपने साथियों के हितों के लिये काम किया और खासकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये देश विदेश में उठ रही आवाजों का साथ दिया। इसीलिये मुझे देहरादून के पत्रकार नेताओं के इस रवैये पर बेहद हैरानी हो रही है। ये लोग प्रेस क्लब की नेतागिरी और सरकार से मिलने वाले विज्ञापनों के लिये तो मर मिट जायेंगे मगर एक पत्रकार की निर्मम हत्या पर जुबान नहीं खोलेंगे। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो तो संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त हमारे मौलिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। उत्तराखण्ड राज्य बन चुका है और देहरादून राजधानी बन गया है मगर हम अभी भी कस्बाई पत्रकारिता की मानसिकता से उबर नहीं पाये हैं। खेद है कि हम अभी भी हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई, मैदानी, पहाड़ी, ठाकुर और ब्राह्मण की मानसिकता की पत्रकारिता से नहीं उबर पाये हैं।

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