Political Pests are Biting Rare Resources of Uttarakhand

बुधवार, 29 नवंबर 2017


उत्तराखण्ड के संसाधनों पर राजनीतिक दीमक
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में दीवाली के अवसर पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को मलाईदार और हनकदार ओहदों की पहली खेप मिलने की चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। प्रदेश कर्ज के बोझ तले डूबता जा रहा हैं, संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैैं और राजनीतिक दीमक उन संसाधनों को चाटने के लिये उतावले हुये जा रहे हैं। इधर सरकार के पास विकास के नाम पर चार आने भी नहीं है। केन्द्र और राज्य के करों के अलावा करेत्तर राजस्व से भी सरकार और उसके कर्मचारियों का खर्च नहीं चल पा रहा है और इसके लिये भी सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा है।
प्रदेश के 2,31,835 राजपत्रित और अराजपत्रित कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग की सिफारिश से बढ़े हुये वेतनमान देने से राज्य पर फिलहाल लगभग 3200 करोड़ का बोझ बढ़ गया है। पिछले छह महीनों में ही सरकार ने वेतन आदि के लिये लगभग 1800 करोड़ कर्ज ले लिये। वर्तमान बजट में वेतन भत्ते और मजदूरी आदि पर 31.01 प्रतिशत राशि का प्रावधान रखा गया है। अनुदान और राज सहायता पर 12.91 प्रतिशत राशि खर्च होने का अनुमान है।10.71 प्रतिशत पेंशन और 13.59 प्रतिशत अन्य व्ययों के लिये प्राविधानित किये गये हैं। सरकार ने मात्र 13.59 प्रतिशत राशि निर्माण या विकास कार्यों पर खर्च करने का प्रावधान रखा है जिसके लिये सरकार के पास धन ही नहीं है। राज्य सरकार के चालू बजट पर गौर करें तो उसकी दयनीय माली हालत का पता चल जाता है। सरकार ने वेतन मद में 16131.81 करोड़ रुपये रखे हुये हैं। इसके अलावा भारी भरकम कर्ज के ब्याज के रूप में ही सरकार को 4409.95 करोड़ तथा कर्ज की किश्त के रूप में 2640.23 करोड़ की रकम चुकानी होगी। कुल मिला कर इन्हीं मदों के लिय सरकार को हर हाल में 23181.99 करोड़ की जरूरत होगी। इसमें अभी निगम कर्मियों को सातवें वेतन के लाभ का आंकलन शामिल नहीं है। जबकि सरकार को अनुमान है कि उसे 13780.28 करोड़ अपने कर राजस्व से तथा 7113.48 करोड़ केन्द्रीय करों से हिस्से के रूप में मिलेंगे। इस आंकलन को जोड़ा जाय तो कुल रकम 23362.47 रुपये बैठती है। इतनी ब़ड़ी रकम जुटने की संभावना इसलिये भी नहीं है, क्योंकि मोबाइल दुकानों से घर-घर शराब पहुंचाने के बाद भी अपेक्षित रकम मिलने की उम्मीद नहीं है। इसी तरह अदालत और एनजीटी के हस्तक्षेप से खनन आदि की रायल्टी से भी बहुत कम राजस्व मिलने का अनुमान है। विमुद्रीकरण के कारण रियल इस्टेट में जो मन्दी आयी है उससे स्टांप ड्यूटी से भी कोई खास रकम आने की उम्मीद नहीं है। चलो माना कि सरकार को अपेक्षित रकम मिल भी गयी तो भी उसे पूरे बजट के लिये रु0 39957.79 करोड़ की जरूरत है। जबकि सारे जोड़ घटाने और आयबृद्धि की खुशफहमी के बाद भी केवल 23362.47 करोड़ की आय की ही उम्मीद है। शेष 16595.32 करोड़ कहां से आयेंगे? इस गैप को पूरा करने के लिये कम से कम 8010.00 करोड़ रुपये का कर्ज बाजार से उठाने का इरादा है। अगर इतने छोटे से राज्य की सरकार हर साल 8 हजार करोड़ से अधिक के कर्ज उठायेगी तो आने वाले समय में इस राज्य के दिवालियेपन की सहज ही कल्पना की जा सकती है। लेकिन सत्ता के दलालों और इस राज्य की फूटी किश्मत पर लगे दीमकों को तो ‘‘पौंड ऑफ फ्लैश’’ मतलब जीवित इंसान के किसी भी हिस्से से एक पौंड गोश्त निकालने की उतावली हो रही है, भले ही वह इंसान मर क्यों जाय!
अभी निगम कर्मियों को भी सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन वृद्धि देनी है जिसकी मार सरकार पर अरबों रुपयों के रूप में पड़ेगी। विकास कार्य केवल घोषणाओं तक सीमित हैं। और सत्ताधारी दल के लोग मलाईदार ओहदों के लिये लपलपा रहे हैं। चूंकि मुख्यमंत्री सहित तमाम बड़े नेताओं के कृपापात्र बाहरी लोग सलाहकार और कोर्डिनेटर जैसे मलाईदार पदों पर बैठ चुके हैं इसलिये अब पार्टी के उन कार्यकर्ताओं और नेताओं का पदों के लिये ब्यग्र होना और चुनावों की मेहनत का पारितोषिक पाने की लालसा पालना स्वाभाविक ही है जिनके प्रयासों से पार्टी सत्ता में पहुंची है। देखा जाय तो राजनीतिक दलों के लेबल भले ही अलग-अलग हों मगर अन्दर मैटीरियल एक ही होता है। पिछला अनुभव बताता है कि राजनीतिक जीवों को प्रदेश की वित्तीय दुर्दशा की नहीं बल्कि अपने ऐशो आराम की चिन्ता अधिक होती है। ये राजनीतिक जीव उत्तराखण्ड की आर्थिकी और उसके संसाधनों पर दीमक और जोंक का काम कर रहे हैं। एक-एक दायित्वधारी पर सरकार के करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस प्रदेश के विकास की ठोस  बुनियाद तो अवश्य रखी मगर उस बुनियाद पर उन्होंने लालबत्तीधारी दीमकों की बांदी भी जरूर चिपका दी। फिर भी तिवारी के जमाने में एक दायित्वधारी को ढाइ हजार रुपये मानदेय और एक सीमित मात्रा में गाड़ी का पेट्रोल मिलता था। राज्य के सबसे ईमान्दार नेता के रूप में प्रचारित भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने वह मानदेय 8 हजार और 10 हजार कर दिया। यही नहीं उनकी कारों के पेट्रोल की सीमा भी हटा दी। दुर्भाग्य देखिये कि विधायकों को लालबत्ती या मंत्रियों के जैसे ठाठ देने के लिये लगभग सौ मलाईदार पदों को लाभ की श्रेणी से हटा दिया गया है। यह संवैधानिक पाप केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि भाजपा भी करती रही है। शुक्र है कि अदालत ने संसदीय सचिव पद को भी मंत्रिमण्डल का हिस्सा मान लिया। वरना अब तक मंत्री पद के दावेदार दर्जनभर विधायकों को संसदीय सचिव पद पर भी एडजस्ट कर दिया गया होता।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून

मोबाइल-9412324999

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