कैसे साकार होगी उत्तराखण्ड में अटल आयुष्मान योजना ?

मंगलवार, 1 जनवरी 2019


कैसे साकार होगी उत्तराखण्ड में अटल आयुष्मान योजना ?
23 लाख परिवारों के लिये शेख चिल्ली की घोषणा
-जयसिंह रावत
Jay Singh Rawat Author and journalist
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने आगामी लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से दो कदम आगे बढ़ कर आयुष्मान योजना में केन्द्र सरकार द्वारा चुने गये गरीब परिवारों से पांच गुना अधिक परिवारों को महंगे से महंगे अस्पतालों में सालाना 5 लाख रुपये तक मुफ्त इलाज की घोषणा तो कर दी, मगर इस असंभव कार्य को संभव बनाने के लिये उनके हाथ कौन सा जादुयी चिराग लग गया, इसकी जानकारी प्रदेश की जनता तो रही दूर उनके मंत्रियों और नौकरशाही को भी नहीं है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की जयन्ती पर गत 25 दिसम्बर को उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने ‘‘अटल आयुष्मान योजना’’ की शुरुआत कर दी। भारत सरकार ने आयुष्मान योजना का नाम बदल कर ‘‘प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’’ कर दिया है मगर उत्तराखण्ड सरकार अब भी आयुष्मान पर ही कायम है। यही नहीं केन्द्र सरकार ने इस योजना के तहत वर्ष 2011 की आर्थिक-सामाजिक जनगणना के आधार पर राज्य में केवल 5.37 लाख परिवारों को चयनित किया है, जिसका व्ययभार जब तक चल सकेगा केन्द्र सरकार ही वहन करेगी। लेकिन ठीक लोकसभा चुनाव से पहले देश का पहला राज्य कहलाने की वाहवाही लूटने के लिये राज्य की त्रिवेन्द्र सरकार ने राज्य की दयनीय आर्थिक स्थिति को तथा राज्य की विशेष भोगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना सभी 23 लाख परिवारों को साल में 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज सरकारी और निजी अस्पतालों में भी कराने की योजना लांच कर दी। शेष 19 लाख परिवारों के लोगों का  महंगा मुफ्त इलाज कहां से होगा, इसका रोड मैप सरकार के पास नहीं है। सामान्यतः सबसे खर्चीला इलाज कैंसर और न्यूरो सर्जरी का होता है। राज्य में कैंसर रोगियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2011 में राज्य में 11,240 थे जो कि 2015 में बढ़कर 11,796 तक पहुंच गये। इन्हीं के इलाज के लिये राज्य सरकार को 589.80 करोड़ चाहिये। इस पहाड़ी राज्य में सड़क दुर्घटनाएं बहुत होती है। वर्ष 2016 में ही कुल1591 सड़क हादसे हुये थे जिनमें 962 लोग मारे गये और 1735 घायल हुये। इनमें शहरों में रोजमर्रा होने वाली दुर्घटनाएं शामिल नहीं है। इन दुर्घटनाओं में हेड इंजरी ज्यादा होती हैं, जिनके लिये न्यूरो सर्जरी की जरूरत होती है जोकि बहुत महंगी है। इनके अलावा पहाड़ों में चट्टान और पेड़ों से गिरने की घटनाएं बहुत होती हैं जिनमें अधिकंाश महिलाएं होती हैं और ज्यादातर बिना इलाज के दम तोड़ देती है।
उत्तराखण्ड के चालू वित्तीय वर्ष के 45,585 करोड़ के बजट में वेतन, ऋणों पर ब्याज, ऋणों की किश्तें, पेंशन आदि पर 27,206 करोड़ रुपये प्रतिबद्ध खर्च होने का अनुमान है। चाहे बाकी काम हो या हों मगर कर्मचारियों को वेतन आदि देने के जैसे ये कमिटेड या प्रतिबद्ध खर्चे तो सरकार को करने ही होंगे। जबकि राज्य सरकार को अपने करों, करेत्तर मदों और केन्द्र सरकार से केन्द्रीय करों में 42 प्रतिशत के अंश को मिला कर कुल 26,725.36 करोड़ का राजस्व मिलने का अनुमान है। यह आमदनी भी तब है, जबकि हर एक मद से शतप्रतिशत वसूली हो जाय, जो कि संभव नहीं होती है। इसलिये सरकार को हर साल वेतन आदि के लिये भी कर्ज लेना होता है। राज्य के 45 हजार करोड़ के बजट को  9510 करोड़ रुपये का कर्ज लेकर भी पूरा किया जाना है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि जिस सरकार के पास अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देने के लिये धन नहीं होता वह सरकार 5 लाख के विपरीत 23 लाख परिवारों का सालाना 5 लाख तक का इलाज का खर्च कैसे वहन करेगी। वैसे भी मात्र 18 सालों में इस राज्य पर लगभग 50 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है जिसका ब्याज ही हर साल लगभग 4906 करोड़ तक पहुंच गया है।
पूर्व की हरीश रावत सरकार ने राज्य में मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की थी। जिसमें प्रदेश के 6.19 लाख बीपीएल परिवारों के अलावा कुल 12.5 लाख परिवारों को चिकित्सा कवर दिया गया था। लेकिन जब बीमा कंपनी को राज्य सरकार ने भुगतान नहीं किया तो कंपनी ने गत वर्ष नवम्बर में योजना ही बंद करा दी थी। इस पर जब भारी बबाल मचा तो राज्य सरकार को मजबूरन से उसे पुनः चालू करना पड़ा। इसी प्रकार राज्य कर्मचारियों के लिये यूहेल्थ कार्ड योजना भी निजी अस्पतालों को समय से भुगतान किये जाने पर अस्पतालों ने कर्मचारियों का निशुल्क इलाज बंद कर दिया था। कर्मचारियों द्वारा होहल्ला मचाने पर सरकार ने अस्पतालों का उधार चुकाया। सरकार द्वारा समय से भुगतान होने पर इसी वर्ष नवम्बर में प्रदेश में चलने वाली जीवीके 108 एम्बुलेंस सेवा भी बिना पेट्रोल के ठप्प हो गयी थी। ऐसी स्थिति बार-बार आती रहती है। राज्य सरकार ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिये भी कैशलेश चिकित्सा सुविधा के लिये 2010 में शासनादेश जारी किया था जोकि आज तक लागू नहीं हुआ।
राज्य की चिकित्सा, शिक्षा और आजीविका उत्तराखण्ड की तीन सबसवे बड़ी समस्याएं रही है। खास कर इन्हीं समस्यओं के समाधान के लिये राज्य के लोगों ने अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग की थी और इन्हीं कारणों से पहाड़ों से पिछले 10 सालों में 3946 गावों से 1,18,981 लोग पहाड़ों से स्थाई रूप से पलायन कर गये। लेकिन 18 साल बाद भी ये ज्वलंत समस्याएं जहां की तहां खड़ी है। राज्य के मैदानी क्षेत्रों में गरीबी तो है मगर साधन सम्पन्न लोगों के लिये चिकित्सा सुविधाओं का अभाव नहीं है। लेकिन राज्य के 84.37 प्रतिशत पहाड़ी भूभाग में स्थिति काफी चिन्ताजनक है। गत 5 दिसम्बर को सीमान्त जिला चमोली के जिला अस्पताल गोपेश्वर से घूनी गावं की नन्दा देवी को एम्बुलेंस मिलने पर यात्री बस से हायर सेंटर श्रीनगर गढ़वाल भेजी गया। नन्दा देवी को बस में ही प्रसव पीड़ा उठने पर कण्डक्टर ने नीचे उतार दिया तो उसने सड़क किनारे ही बच्चे को जन्म दे दिया। इसी साल राज्य सरकार की नाक के नीचे दून महिला अस्पताल में गत 17 सितम्बर को एक गर्भवती महिला ने फर्श पर तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। इस अस्पताल में शय्याओं के अभाव में गभवती महिलाओं को फर्श पर भी जगह दी जाती है। सितम्बर में ही टिहरी के डामकोट गांव की अनीता देवी ने एम्बुलेंस के अभा वे सड़क पर बच्चे को जन्म दिया। इस साल जुलाइ में सीमान्त जिला चमोली के सीमान्त ब्लाक जोशीमठ के देवग्राम की महिला ने 4 किमी पैदल चलने के बाद सड़क पर बच्चे को जन्म दे दिया। जनजातीय चकराता ब्लाक में सड़कों पर प्रसव की कई घटनाएं हो चुकी है। मार्च के महीने में चम्पावत एवं पिथौरागढ़ जिलों में दो-दो महिलाओं ने सड़कों पर बच्चों को जन्म दिया। पहाड़ के दुर्घटनाओं में घायल और गंभीर रोगी कई बार मैदान के अस्पतालों में पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। पहाड़ के अस्पतालों में तो डाक्टर होते हैं और ना ही आवश्यक उपकरण मौजूद रहते हैं। प्रदेश मुख्यालय में भी एक सही ढंग से सुसज्जित ट्रॉमा सेंटर नहीं है। जहां कथित ट्रॉमा सेंटर बनाये गये हैं वहां आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र डोइवाला में सरकारी अस्पताल को निजी क्षेत्र में देने के बाद स्थिति और भी खराब हो गयी है। राज्य में डाक्टरों एवं पैरा मेडिकल आदि के 7090 चिकित्सा कर्मियों के पद श्रृजित हैं जिनमें से 1606 पद खाली हैं। इन खाली पदों में पुरुष डाक्टरों के 698 तथा महिला डाक्टरों के 179 पद खाली हैं। जो महिला-पुरुष डाक्टर या और विशेषज्ञ उपलब्ध हैं वे देहरादून जैसे मैदानी और शहरी इलाकों में ही तैनात हैं। पुरुष डाक्टरों के सामने संकोची पहाड़ी महिलाऐं अपना असली दर्द नहीं बता पातीं। कई जगह पुरुष डाक्टर ही प्रसव भी कराते हैं। राज्य में केवल 36 प्रतिशत महिलाओं को संस्थागत प्रसव सुविधा मिल पाती है शेष प्रसव दायियों के भरोशे होते हैं, जिस कारण लाख में से लगभग 188 महिलाएं प्रसव के समय दम तोड़ देती हैं।
-जयसिंह रावत
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com

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