अजीबोगरीब बूढ़ा
मंगलवार, 12 नवंबर 2024
जब ऑस्ट्रेलिया के एक छोटे कस्बे के एक नर्सिंग होम के बूढ़ों के वार्ड में एक वृद्ध ने आखिरी सांस ली तो यह मान लिया गया कि उसके पास कीमती कुछ भी नहीं है.
बाद में, जब नर्सें उसके बचे खुचे
सामान को खांगाल रही थीं तो उन्हें यह कविता मिली. कविता की विषय वस्तु और
शैली से वे इतनी ज़्यादा प्रभावित हुईं कि उन्होंने इसकी फोटो प्रतियां करके
अस्पताल की सारी नर्सों को भेजी.
उनमें से एक नर्स यह कविता मेलबोर्न ले गई. उस बूढ़े की अगली पीढ़ी के नाम
यह वसीयत अब तक वहां की पत्रिकाओं के क्रिसमस विशेषांकों में और मानसिक स्वास्थ्य
विषयक पत्रिकाओं में कई दफा प्रकाशित हो चुकी है. इस कविता पर एक स्लाइड प्रस्तुति
भी तैयार की जा चुकी है.
और इस तरह यह बूढ़ा, जिसके पास दुनिया को देने के लिए कुछ भी नहीं था,
इण्टरनेट पर बहु पठित इस इस अनाम कविता के रचियता
के रूप में जाना जा रहा है.
क्या देख रही हो नर्स? क्या देख रही हो?
जब मेरी तरफ़ देखती
हो तो क्या सोचती हो तुम?
एक अजीबोगरीब बूढ़ा
...कोई ख़ास अक्लमंद भी नहीं,
जो नहीं जानता कि
क्या करे और क्या न करे...कहीं दूर ताकता.
जो बिखेर देता है खाने-पीने की चीज़ें और नहीं देता है
कोई जवाब
जब तुम ज़ोर से कहती
हो उसे...’कोशिश तो करके देखो!’
और लगता है जैसे
उसका ध्यान ही नहीं जाता कि क्या कर रही हो तुम.
हमेशा ही खोता रहता
है वो अपनी चीज़ें – कभी मोजा तो कभी जूता.
वो जो कभी तुम्हें
रोकता है और कभी नहीं, करने देता है
तुम्हें अपनी मनमानी-
उसे नहलाने में या
खिलाने में. कितना लम्बा तो होता है उसका
दिन?
यही तो सोच रही हो ना तुम! यही तो नज़र आता है ना तुम्हें!
अपनी आंखें खोलो
नर्स! नहीं देख रही हो तुम मुझे.
यहां शांत बैठा
मैं,
तुम्हारी आवाज़ पर
हिलता-डुलता और तुम्हारे इशारों पर
खाता-पीता,
बताता हूं तुम्हें
कि कौन हूं मैं.
मैं हूं दस साल का
एक बच्चा.. मेरे भी हैं मां-बाप,
भाई-बहन – जो करते
हैं प्यार एक दूसरे से.
सोलह साल का एक
लड़का - लगे हैं पंख जिसके पैरों में
देखते हुए ख़्वाब कि
जल्दी ही मिलेगा उसे उसका प्रेम
और फिर बीस में आकर वो बना दूल्हा.......मेरा दिल धड़क
रहा है बहुत ज़ोर से.
याद आ रही हैं वो
कसमें जो खाई थी मैंने.
और अब मैं हूं
पच्चीस का और है मेरा भी एक बेटा
जो चाहता है कि मैं
उसकी उंगली पकड़ कर दिखाऊं उसे राह और दूं एक सुरक्षित सुखी घर.
मैं हुआ अब तीस का
और तेज़ी से बड़ा हुआ मेरा बेटा,
बन्धे हुए रिश्तों
के मज़बूत बन्धन में.
मैं हुआ चालीस का
और और मेरे बच्चे बड़े होकर चले गए हैं
मुझसे दूर
लेकिन पास है मेरी
पत्नी... करती फिक्र इस बात की कि न छाए उदासी मुझ पर.
पचास में एक बार
फिर बच्चे खेल रहे हैं मेरे इर्द गिर्द
फिर हम घिरे हैं
बच्चों से, अपने प्यारे बच्चों से.
अंधियारे दिन आए
हैं... छोड़ गई है मेरी पत्नी.
मैं ताकता हूं
भविष्य को और थरथराता हूं डर से.
मेरे बच्चे पाल
पोस रहे हैं अपने छोटे बच्चों को
और मुझे याद आ रहे
हैं वे बरस और वो प्यार जो मैंने था जिया.
अब हो गया हूं मैं
बूढ़ा और निर्दयी है प्रकृति!
बेवक़ूफी है उड़ाना
मज़ाक बुढ़ापे का.
खण्ड खण्ड होती है
देह और अलविदा कहते हैं लावण्य़ और ऊर्जा.
पहले जहां था दिल
अब वहां है एक पत्थर.
लेकिन उस पुराने
खण्डहर में अब भी रहता है एक युवक
और अक्सर मेरा
टूटा-फूटा दिल खिल उठता है
याद करके वो
खुशियां.........और वो ग़म.
मैं फिर से कर रह
हूं मुहब्बत और फिर से जी रहा हूं ज़िन्दगी.
बीत गई ज़िन्दगी
बहुत जल्दी....
मान लिया है मैंने
इस सच को कि कुछ भी तो नहीं होता है अजर अमर.
तो खोलो अपनी
आंखें लोगों...खोलो और देखो.
नहीं हूं मैं एक
अजीबोगरीब बूढ़ा.
ध्यान से देखो....
यह हूं मैं!
अगली
दफ़ा जब भी किसी बूढ़े से आपकी मुलाक़ात हो, हो सकता है कि उसके बूढ़े शरीर के भीतर
छिपे बैठे युवा मन को आप अनदेखा कर जाएं.
तब इस कविता को ज़रूर याद करें. एक दिन हम सबका भी यही हश्र होना है!
(मूल कविता: फिलिस
मैककॉर्माक, रूपांतरण – डेव ग्रिफिथ).
हिन्दी अनुवाद: डॉ
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
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