मीडिया तो मीडिया ब्लॉग ने भी साथ छोड़ा।
सोमवार, 19 जनवरी 2009
जब टी वी पत्रकारिता पर सरकार के सेंसर लगाने की बात आई तो बाजारवाद में घुर विरोधी बने ये चैनल के कर्ता धर्ता पत्रकारिता की दुहाई के साथ सरकार के साथ विपक्ष और अन्य समुदाय के साथ लड़ाई पर उतारू हो आई। सेंसर की ख़बरों पर नजर रखे हुए मैं जब इसकी छानबीन करने के लिए इन्टरनेट के माध्यम से तकरीबन सौ से ज्यादा टी वी, अखबार और जन संपर्क से जुड़े हुए चौबीस से तीस साल के लोगों से बातचीत किया जिनमे आई बी 7, आज तक, इंडिया टी वी, इंडिया न्यूज़ स्टार और जी न्यूज़ के अलावे न्यूज़ 24 और कई पी आर कंपनियों में कार्यरत लोगों ने भी अपने विचार रखे और सभी का एक स्वर में कहना कि " हमने प्रबंधन की पढाई नही की है,सामजिक सरोकार और लोगों के लिए संवाद के माध्यम से कुछ कर गुजरने की ललक ने पत्रकारिता कारुख करवाया। मगर संस्थान में आने के बाद पता चला कि हमें पत्रकारिता नही बल्की बाबूगिरी करनी हैजिससे हमारे संस्थानों के पाठक और दर्शक में बढोत्तरी हो सके। अगर ये पत्रकारिता है तो नि:संदेहसरकार को सेंसर लगाना चाहिए"
बीते दिनों पंखे वाली भड़ास से हमारी सदस्यता समाप्त कर दी गयी, मगर पता ना होने की वजह से तत्क्षण ही मेरा पोस्ट भी उसके ठीक ऊपर आया जो न्याय और इन्साफ के लिए सरकार और कानून से देश की लड़ाई लड़ रहा हमारा सिपाही जस्टिस आनंद सिंह से जुडा हुआ था। टी वी पत्रकारिता और अखबार के बाद अब ख़बरों के पैरोकार ने भी आनंद सिंह को ख़बर बनाने से इनकार कर दिया, ये ही तो बाजारवाद है। जो बिकता है वो चलता है आम लोगों की भावनाओं का रोज ही बलात्कार हो किसे फिकर है।
ये वो ही आनंद सिंह हैं जो कभी जज हुआ करते थे और कानून के नुमाइंदे ने ही व्यक्तिगत रंजिश के कारण इन पर देशद्रोह का मुकदमा चला कर उसमें पाँच साल के लिए इनको सपरिवार सलाखों की पीछे भेज दिया, पत्रकारिता के पैरोकार के लिए कोई ख़बर नही थी। आनंद सिंह ने बा-इज्जत बड़ी होकर अपने मान सम्मान के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जो वस्तुतः: आम लोगों से जुडा हुआ था जो की मीडिया के इन पैरोकार के लिए कोई ख़बर नही थी। इन्साफ के मन्दिर में जज को साजिश कर अंदर जाने नही दिया गया और इनको गैरहाजिर बता कर याचिका खारिज कर दिया गया और पत्रकारिता के लिए ये कोई ख़बर नही थी।
संजय दत्त और मान्यता की शादी, बे शादी, चुनाव सरीखे पर पुरे दिन लोगों का जीना हराम करने वाले के लिए ये पत्रकारिता है, बिहार में बाढ़ के पानी को पहले दिखाना मगर उसके बाद भीषण तबाही, भुखमरी, बिमारी, और शासन कोई ख़बर नही ये हमारी पत्रकारिता है।
निश्चय ही जो बिकाऊ है उस पर सरकार का नियंत्रण होना ही चाहिए। अगर पत्रकारिता आम जन की आवाज है तो इस पर प्रतिबन्ध का लोग भी विरोध करें मगर अगर बाजार की बोल चाल में एक व्यवसाय तो सरकार का नकेल जरुरी हो जाता है। आज के पत्रकारों को वरिष्ट पत्रकार खुशवंत सिंह के शब्दों में कुछ इस तरह से परिभाषित किया गया है कि Journalisam is Food, Film, Fashion and Fuck the Editor. अब पत्रकार ख़ुद निर्धारित कर लें कि क्या वो इस स्वतन्त्रता के हक़दार हैं ?
2 टिप्पणियाँ:
रजनीश भाई,मैंने तो पत्रकार की परिभाषा जो पढ़ी है वह बनिये किस्म के लोग स्वीकार ही नहीं पाते,कहा गया है "पतनात त्रायते इति पत्रकारः" लेकिन जो खुद ही पतित है गिरा हुआ नीच और भड़वा दलाल है वह क्या घंटा पत्रकारिता के आदर्श अपनाएगा इसलिये जस्टिस आनंद सिंह से संबंधित पोस्ट हटा देना ही इन चिरकुटों के हित में है,जस्टिस आनंद सिंह का नाम उस वेब पेज पर रहा तो बनियागिरी प्रभावित होती है भाई....
जय जय भड़ास
गुरू! आपने जिन चूतियों से उम्मीद लगायी थी कि वे पत्रकार हैं वे तो साले इंसान भी न निकले ठीक से..... वैसे ब्लाग का नाम चीरफाड़ रख लेने से अगर लोग सर्जन बन जाएं तो फिर क्या बात है.... फाड़ने के लिये दम चाहिये और साथ ही इतना विवेक कि जो काटा-पीटा जा रहा है उसका परिणाम जनहित में होगा। फाड़े रहिये
जय जय भड़ास
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