लोकतन्त्र ’सर्वश्रेष्ठ’ शासन पद्धति !

गुरुवार, 8 जनवरी 2009


लोकतन्त्र ’सर्वश्रेष्ठ’ शासन पद्धति !


१. एक मुख्यमन्त्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाता है तो अपना सारा ’राजपाट’ अपनी पत्नी को सौंप जाता है।
२. एक व्यक्ति को गली मुहल्ले के स्कूल में चपरासी की नौकरी नहीं मिल पाती। पर चलो कोई बात नहीं, वह इलेक्शन तो लड़ ही सकता है। जीत जाये तो शिक्षा मन्त्री भी बन सकता है। उसके बाद कोई भी विश्वविद्यालय उसे डाक्टरेट की मानद उपाधि देने में गर्व अनुभव करेगा।
३. हर सरकारी, गैर सरकारी कर्मचारी को अपना वेतन बढ़वाना हो, व्यवसायी को, उद्योगपति को सरकार से अपनी मांगें मनवानी हों तो उसे हड़ताल करनी पड़ती है तब कहीं जाकर सरकार के कानों पर जूं रेंगती है। पर अगर विधायकों को, सांसदों को अपना वेतन बढ़ाने का मूड हो तो कोई मज़ाक में भी प्रस्ताव रख दे तो सर्वसम्मति से पास हो जाता है।
४. सड़क पर हम हर रोज़ पुलिस कर्मियों को आते जाते वाहनों से रिश्वत बटोरते देखते ही रहते हैं। कोई पुलिस कर्मी से पूछ बैठे कि भाई ये क्या कर रहे हो, बिना रिश्वत घर नहीं चलता क्या? उसका जवाब होगा - ये सारी कमाई मेरी अकेले की नहीं है। इसमें थानेदार का भी हिस्सा है। थानेदार से पूछने चलिये कि भाई, आप क्यों रिश्वत लेते हैं? वो कहेगा कि मुझे ये पोस्टिंग फ्री में थोड़ा ही मिली है। इसके लिये नीलामी होती है। भारी भरकम रकम पुलिस अधीक्षक को देकर ये सीट मिली है। पुलिस अधीक्षक से पूछने लगें कि भाई आपकी इतनी अच्छी भली नौकरी है। आपको भी रिश्वत चाहिये होती है क्या? वह कहेगा कि अगर मैं मुख्यमंत्री को हर महीने एक बड़ी रकम न पहुंचाऊं तो मुझे ऐसे स्टेशन पर फेंक दिया जायेगा कि बीवी बच्चों की शक्ल देखने को भी तरस जाऊंगा।
हे भगवान ! कहां खत्म होगा ये सिलसिला ? चलो, माननीय मुख्यमन्त्री से पूछें कि आपका इतना मान है, सम्मान है, जनता आपका इतना आदर करती है। क्या आपको भी रिश्वत की कमाई की दरकार है? जवाब मिलेगा - इलेक्शन क्या फ्री में लड़े जाते हैं? पहले पार्टी टिकट के लिये लाखों दो। टिकट मिल जाये तो भी, करोड़ों रूपये खर्च होते हैं एक इलेक्शन में। फिर इलेक्शन जीतना काफी होता है क्या? सरकार बनानी हो तो विधायक खरीदने पड़ते हैं। पता भी है, एक एक विधायक कितने पैसे मांगता है? आये हैं रिश्वत की बात करने! कभी सरकार बना कर देखो तो आटे दाल का भाव पता चल जायेगा।
५. बीस पच्चीस दोस्तों ने मिल कर बड़े अरमानों से एक क्लब बनाया। सोचा था कि सब मिल जुल कर कुछ अच्छे काम किया करेंगे। साल भर तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा । फिर, जैसा कि लोकतन्त्र का नियम है, मौका आया नई टीम चुनने का। इलेक्शन की प्रक्रिया और चुनाव प्रचार शुरु हुआ। खुद को दूसरे से बेहतर साबित करना था इसलिये आरोपों - प्रत्यारोपों का दौर शुरु हुआ। अलग अलग गुट बने । प्रतिस्पर्द्धा कटु से कटुतर होती चली गई। हारने वाले गुट को अपने अहं की संतुष्टि के लिये यह उचित ही लगा कि एक नया क्लब बना लिया जाये! इसी प्रकार एक से दो फाड़ हुए, दो से चार, चार से आठ! सहयोग और भाईचारे के लिये क्लब बनाया था पर जो अपने खास दोस्त हुआ करते थे, अब उनसे भी बोलचाल बन्द हो चुकी है!
६. छोटी से छोटी जिम्मेदारी की नौकरी चाहिये हो तो भी उसके लिये कुछ न कुछ न्यूनतम योग्यता चाहिये होती है। पर लगता है कि सरकार चलाना सबसे सरल काम है जिसमें किसी भी शैक्षणिक योग्यता की दरकार नहीं है। वाह रे हमारा संविधान और वाह रे हमारा लोकतन्त्र ! फिर भी हम रट्टू तोते की तरह एक ही रट लगाये चले जा रहे हैं कि लोकतन्त्र शासन की व जीवन की सर्वश्रेष्ठ पद्धति है !

3 टिप्पणियाँ:

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ ने कहा…

सुशांत भाई,बड़ा गहरा लेखन है आशा है कि दिशा मिलेगी लोगों को...... अच्छा लगा आपको पढ़ कर.....
जय जय भड़ास

हरभूषण ने कहा…

हर आदमी के पास गलत काम करने की कोई ना कोई बजह है। और यह बजह उसके पेट पर आकर रुक जाती है। लेकिन वो भूल जाता है कि वो खाने के लिये जिन्दा नही है जीने के लिये खाना है.....
अपना सुधार संसार का सबसे बड़ा सुधार है।
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

भाई,
बढिया भड़ास है, पेले रहिये
जय जय भड़ास

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