मन्दिर मस्जिद बैर कराती, प्रेम कराती मधुशाला
गुरुवार, 22 जनवरी 2009
कालजयी लेखक और कवि स्वर्गीय हरिबंश लाल बच्चन की ने अपनी कृति मधुशाला में कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो शास्वत सत्य भी है। कवि ने अपनी कल्पना में समाज को ढाल कर रख दिया है, जरुरत है तो पंक्तियों में लिखी भावों को समझाने की। शायद ही कोई बन्दा ऐसा मिल जाय जो इन बातों से सरोकार नही रखता है। ब्लॉग पढ़ने के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ की आज इस मौके पर क्यूँ न अपने पुरखों की कुछ नसीहतों को याद कर लिया जाय। पेश है बच्चन साहेब की मधुशाला से कुछ पंक्तियाँ -
मुसलमान औ हिंदू है दो
एक मगर उनका प्याला
एक मगर, उनका मदिरालय
एक मगर, उनका प्याला ।
रहते एक न जब तक
मन्दिर , मस्जिद में जाते,
लड़वाते हैं मन्दिर मस्जिद
मेल कराती मधुशाला ।
दुनिया वालों किंतु किसी दिन
आ मदिरालय में देखो ,
दिन को होली, रात दिवाली
रोज़ मानती मधुशाला।
इन पंक्तियों पर लोग पी एच दी कर रहे हैं। न जाने कितनी शोध पुस्तिकाएं लिखी जा चुकी है। फिर भी मधुस्शाला का रस आज भी विद्यमान है। लोग आते हैं अपने हिसाब से दुबकी लगाते हैं और चले जाते हैं। लेकिन मधुशाला की अहमियत आज भी वही है जो बरसों पहले थी। तात्पर्य यह है की वह हम लोग ही तो हैं जो हिंदू को हिंदू और मुसलमान को मुसलमान, दलित को दलित और जानवर को जानवर कहते हैं। क्या इंसान को इंसान कहने में कोई बुराई है? या हम इंसान को इंसान कहना ही नही चाहते । फैसला सभी को करना है की हमें इंसान बनकर जीना चाहिए या कुछ और ............
4 टिप्पणियाँ:
भाई,अचानक आपने मधुशाला खोल दी भड़ास के पन्ने पर तो नशा हो गया प्रेम का और मैं भूल गया कि मैं चमार जाति से हूं जिन्हें राजनैतिक सोच के अनुसार ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि से नफ़रत करना होता है। जब से भड़ास की खुमारी छाई है नफ़रत के लिये जगह नहीं बची है और न ही सक्सेस मंत्रा जैसे लोगों के उकसावे में आता हूं एक नई सोच का उदय हुआ है इस मंच से वरना इतनी उम्र मैं भी इन महानुभाव की तरह ऐसे ही मुद्दों में उलझा हुआ था
जय जय भड़ास
सच जानो भाई ये सब शुद्ध बेवकूफ़ी है मैं अपने अपराधी जीवन में कितनी बार हिंदू, मुस्लिम,सिख और क्रिश्चियन होने का नाटक करता रहा लेकिन हर बार पाया कि बस इंसान ही हूं ये सब चोंचले हैं...
जय जय भड़ास
क्या बात है मनोज भाई कहीं व्यस्त थे? अच्छा लगा मधुशाला की पंक्तियां भड़ास पर इस प्रसंग पर देख कर.... मैंने डा.रूपेश के घर इसे पढ़ा है जितनी बार पढ़ो नयी सी लगती है।
धन्यवाद
जय जय भड़ास
मनोज भाई आपने साम्प्रदायिकता की आग में मधुशाला से निकाल कर जो लाइने डाल दी हैं उससे मजा आ गया।
जय जय भड़ास
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