पत्रकारिता और जुड़ीसियरी के गले की हड्डी, इन्साफ की लडाई के प्रणेता :- जस्टिस आनंद सिंह
रविवार, 4 जनवरी 2009
पिछले साल, हां मैं इसे पिछले साल ही कहूँगा कि तमाम भडासी और ब्लॉगर के साथ ब्लॉग पाठक से एक पहेली पूछी थी, तमाम पत्रकार और पत्रकारिता के भीष्म ब्लॉग पढ़ते हैं सो कहने की बात नही कि ये प्रश्न सबसे पहले इन्ही पत्रकारिता के पैरोकार से था जो नि:शब्द कि भांति लाला जी की दूकान के माप तौल करने वाले छोकरे से ज्यादा नही हैं।
जरा फ़िर से गौर से देखिये इन महाशय को और कोशिश कीजिये पहचानने की, नही पहचाना ना........... पहचानेंगे भी नही क्यूँकी लाला जी की पट्टी आंखों पर बंधी है और लाला जी कि हिदायत भी कि इसे मत पहचानो, पहचाना तो पत्रकारिता छोरनी होगी और नि:संदेह हमारे देश में पत्रकारिता तो कोई करता ही नही, व्यवसायिक संस्थान से व्यावसायिकता जो सीख कर आए हैं।
ये महाशय सेना में थे और सेना में लडाई भी लड़ी, फ़िर कानून पढा और बन गए कानूनविद। काबिलियत के बूते न्यायालय के न्यायधीश भी और निष्ठा कानून के साथ न्याय व्यवस्था में के साथ सीमा पर लड़े गए लड़ाई के बाद कानून में शामिल हो कर कानून के विभीषणों के ख़िलाफ़ छेडी एलाने जंग।
आगरा में ये महाशय जज थे जब अपने वरिष्ठ से अधिकार के लिए लड़ बैठे, और अधिकार के लिए लड़ना इन्हें इतना महंगा पड़ा कि देश का सबसे भ्रष्टतम जुड़ीसियरी के अनैतिकता का एक अचूक उदाहरण बन गया। जस्टिस आनंद सिंह को पाँच साल के लिए सपरिवार सलाखों के पीछे डाल दिया गया मगर मीडिया आँख मूंद कर बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के वैमनष्यता का बीज रोपता रहा, पॉँच साल बाद जब आनद सिंह जीत के साथ वापस आए तो जुड़ीसियरी के ख़िलाफ़ जंगे जेहाद यानी कि इन्साफ कि लड़ाई छेड़ दी मगर यहाँ भी जुड़ीसियारी की गंदगी ने इन्साफ के सारे रास्ते बंद कर दिया और इन्साफ के मन्दिर यानी की उच्चतम न्यायालय में जस्टिस साहब को प्रवेश ही नही करने दिया गया।
आज भी जस्टिस आनंद सिंह का परिवार इन्साफ के लिए, कानून के लिए, न्याय के लिए लड़ रहा है भले ही फांके की हालत क्योँ न हो मगर लड़ाई जारी है, मगर हमारे देश के अंधे गूंगे और बहरे पत्रकारिता से कोसो दूर क्यूँकी पत्रकारिता के दूकान के छोकरे अभी भी लाला जी के कहे अनुसार बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के नाम के वाट जो तौल रहे हैं।
जरा फ़िर से गौर से देखिये इन महाशय को और कोशिश कीजिये पहचानने की, नही पहचाना ना........... पहचानेंगे भी नही क्यूँकी लाला जी की पट्टी आंखों पर बंधी है और लाला जी कि हिदायत भी कि इसे मत पहचानो, पहचाना तो पत्रकारिता छोरनी होगी और नि:संदेह हमारे देश में पत्रकारिता तो कोई करता ही नही, व्यवसायिक संस्थान से व्यावसायिकता जो सीख कर आए हैं।
ये महाशय सेना में थे और सेना में लडाई भी लड़ी, फ़िर कानून पढा और बन गए कानूनविद। काबिलियत के बूते न्यायालय के न्यायधीश भी और निष्ठा कानून के साथ न्याय व्यवस्था में के साथ सीमा पर लड़े गए लड़ाई के बाद कानून में शामिल हो कर कानून के विभीषणों के ख़िलाफ़ छेडी एलाने जंग।
आगरा में ये महाशय जज थे जब अपने वरिष्ठ से अधिकार के लिए लड़ बैठे, और अधिकार के लिए लड़ना इन्हें इतना महंगा पड़ा कि देश का सबसे भ्रष्टतम जुड़ीसियरी के अनैतिकता का एक अचूक उदाहरण बन गया। जस्टिस आनंद सिंह को पाँच साल के लिए सपरिवार सलाखों के पीछे डाल दिया गया मगर मीडिया आँख मूंद कर बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के वैमनष्यता का बीज रोपता रहा, पॉँच साल बाद जब आनद सिंह जीत के साथ वापस आए तो जुड़ीसियरी के ख़िलाफ़ जंगे जेहाद यानी कि इन्साफ कि लड़ाई छेड़ दी मगर यहाँ भी जुड़ीसियारी की गंदगी ने इन्साफ के सारे रास्ते बंद कर दिया और इन्साफ के मन्दिर यानी की उच्चतम न्यायालय में जस्टिस साहब को प्रवेश ही नही करने दिया गया।
आज भी जस्टिस आनंद सिंह का परिवार इन्साफ के लिए, कानून के लिए, न्याय के लिए लड़ रहा है भले ही फांके की हालत क्योँ न हो मगर लड़ाई जारी है, मगर हमारे देश के अंधे गूंगे और बहरे पत्रकारिता से कोसो दूर क्यूँकी पत्रकारिता के दूकान के छोकरे अभी भी लाला जी के कहे अनुसार बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के नाम के वाट जो तौल रहे हैं।
4 टिप्पणियाँ:
रजनीश भाई, जज साहब का नाम सुन कर टिल्लू और कल्लू किस्म के पत्रकारों को तो बुखार आ जाता है और जो घाघ हैं वो उस तरफ मुंह करके भी नहीं सोते कि कही अगर सपने में जज साहब देख गये तो हवा तंग हो जाएगी,इनके नाम से ही बड़े बड़े न्यूज चैनल वालों को टट्टियां लगने लगती हैं.....लाला जी और वणिक सोच के लोग तो वैसे भी ऐसी बातों से दूर भागते हैं आजादी की लड़ाई से आज तक किसी बनिए नें किसी धरने मोर्चे या आंदोलन में हिस्सा क्यों नहीं लिया बस इस लिये कि उसे तो बेचने से मतलब काले को बेचे क्या गोरे को बेचे... देश बेचे या दाल चावल...मां-बहन बेचे या खुद को....
जय जय भड़ास
रजनीश भाई,मुबारक हो एक काला टीका और लग गया आप की खूबसूरती को लाला जी की बुरी नजर से बचाने के लिये कि आप अपनी तकनीकी योग्यता का दुरुपयोग पंखों वाली भड़ास से बच्चे चुराने में कर रहे हैं...
हा..हा...हा...:)
लेकिन आपकी सदस्यता रद्द करने के एलान के बिलकुल ऊपर आपकी पोस्ट लगी है ये लाला जी बेचने खरीदने और मिलावट करके तौलने में इतना व्यस्त हो गये हैं कि पगलाए सा व्यवहार कर रहे हैं:)
जज साहब के बारे में पंखों वाली भड़ास पर लिख कर कुछ होने वाला नहीं था क्योंकि वहां क्या हो चुका है ये सारे ब्लागर जान रहे हैं
जय जय भड़ास
भाईसाहब आप यकीन मानिये कि किसी भी ब्लागर या पत्रकार में इतनी हिम्मत नहीं है कि हमारे इतने प्रयासों के बाद भी जज साहब के बारे में जाने या लिखे जबकि पंखों वाली भड़ास के पंडित जी भी दिल्ली में ही रहते हैं लेकिन वो बच्चे के जन्म, जनेऊ,शादी और श्मशान की ही पत्रकारिता करेंगे;जजसाहब के घर की तरफ तो मुंह भी नहीं कर सकते ऐसे मुखौटेधारी पोंगे.....
जय जय भड़ास
रजनीश भाई,
जज साहब के बारे में पत्रकार, ब्लोगर और पंखाधारी ब्लोगरों से उम्मीद मत रखिये, ये लोग अपने हित के लिए किसी का भी वध कर सकते हैं, राजनेता से ज्यादा शातिर और क्षद्म लोगों कि जमात है इन स्वम्भू बुद्धिजीवियों की.
अभिमनुय कि तरह अकेले धर्म युद्ध लड़ रहे जस्टिस साहब के लिए बस हमें ही आवाज बुलंद करनी होगी, जुडीसियरी में फैले हुए व्याप्त भ्रष्टाचार को जज साहब से बेहतर कौन जन सकता है, और दलालों कि पत्रकारिता कभी भी दलालों के लिए मुंह नहीं खोलेगी, जलिए हम जज साहब की लड़ाई में एक शहीद होने वाले सिपाही तो बन ही सकते हैं.
जय जय भड़ास
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