अलविदा
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
मै और तुम साथ साथ पले और बडे हुये मै सदैव तुम्हारे असितत्व को नकारती रही
तुम छाया की भाति मोन मेरे साथ साथ चलते मुझे छ्लते रहे
मेरे जीवन व्रछ से एक एक दिन पुश्प की भाति अपनी झोली मे चुनती रही
जब भी मेरे पैर लड्खडाए
जीवन विश्वास डगमगाया
तुमने अपने आने का एहसास
दिलाकर मुझे सम्हाला
मुझे उपर से हल्का किया अन्दर से सवारा
धीरे धीरे मेरा भय अपनेपन का एहसास जगाने लगा
दूरिया मिटने लगी तन मन तुम्हारे स्वागत मे
मधुर गीत गुनगुनाने लग
मुझे प्रतिछा हैजब तुम अपने कोमल स्पर्स से मुझे अपनी
वाहो मे समेट कर
अदैत और सुछःम्ता का आभास दोगे
चिर शान्ति और विस्रान्ति दोगे
अलविदा निशेस निशब्द होने के पूर्व इतना ही काफ़ी है
यो तो कहने को न जाने कितना कुछ और अभी बाकी है
4 टिप्पणियाँ:
दीदी,बहुत प्यारा और गहरा लेखन है अंदर तक उतर गया हर शब्द पिघला हुआ सा....
लिखती रहिये।
दीदी इससे पहले आपने अपने गहरे काव्य लेखन से परिचय नहीं कराया क्या बात है? बहुत सुंदर है...
"अलविदा निशेस निशब्द होने के पूर्व इतना ही काफ़ी है"
बहुत ही सुंदर और कोमल भाव है।
जब आप दोबारा पनवेल आना तो अपनी कविताओं का संग्रह ले आइयेगा। बहुत बहुत बहुत.... सुन्दर और कोमल है मुझे रोना आ गया
कृष्ण जी,
बस इतना कहूँगा की स्तब्ध हूँ !!!
शानदार बेहतरीन और पता नही क्या क्या मगर प्रभावित कर गया.
आपके इस छुपे गुण के लिए आपको बधाई.
जय जय भड़ास
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