रोना, हंसना, परिवार बनाना (अतीत के पन्ने से.......)
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
कुछ दिन पूर्व मैने अपनी एक संस्मरण की पोस्ट डाली थी, मुंबई में भडास परिवार के मिलन से लेकर नए और अबूझ लेकिन अपने से रिश्तों की दास्ताँ थी, रुपेश भाई का प्यार तो मुनव्वर आप का स्नेह, हरभुशनभाई का आत्मिक व्यवहार मगर सबसे जुदा हमारी मनीषा दीदी का प्रेम ऐसा की जैसे वो हमारी माँ हो या बड़ी बहन या फ़िर ऐसा रिश्ता की अधिकार के साथ हम एक दुसरे पर लाड प्यार या फ़िर गुस्सा भी कर सकें।
मेरा ये पोस्ट कहने को तो सिर्फ़ एक स्वजन मिलन कार्यक्रम जैसा था मगर सच कहें तो रिश्तों की नींव थी जो निश्चित ही बेहद मजबूती के साथ डाली गयी। मगर इस पोस्ट को डालने के बाद ही हमारी मनीषा दीदी ने एक प्यारा सा मेल मुझे कर दिया, कहने को सिर्फ़ ये का मेल है मगर मानवीय संवेदना का अथाह सागर, सच कहूं तो इसे कई बार पढ़ा और बार बार पढ़ा, अभी भी पढता हूँ और जब ये मेल आया तभी विचार की इसे भडास पर डालूँ , गुरुवार से सलाह भी लिया मगर एक छोटे भाई को भेजे इस निजी पत्र को सार्वजानिक करुँ या ना करुँ के ऊहापोह में रहा। मेल पढ़ें.......
भाई,
आपने जो तस्वीरें भड़ास पर डाली हैं उन्हें देख कर एक बार मैं रूपेश दादा से लिपट कर रो ली क्योंकि एक मेरा वो बायोलाजिकल परिवार था जो मुझे कब का भूल चुका है और एक आप लोग हैं जिनसे मेरा कोई रक्त संबंध न होने पर भी लगता है कि जन्म जन्म का साथ है। आज भाई के घर पर ही रुक गयी हूं।आपको बहुत सारा प्यार,अच्छे से नौकरी करो और खूब नाम कमाओ ताकि आपकी ये बहन आप सब पर गर्व कर सके।
प्रेम सहित
मनीषा दीदी
ये मेरी वो बहन है जो लैंगिक विकलांग है, समाज जिसे अछूत समझती है और जिम्मेदारी से भागने वाले हमारे समाज के मठाधीश का समाज के इन बच्चों के लिए कोई दायित्व नही मगर मेरे लिए ये मेरी बहन का केसा ख़त है जिसमे वर्णित संवेदना मुझे अभी के सम्पूर्ण मनुष्यों में नही नजर आती, एक छोटा सा संवाद छोटी सी मुलाक़ात मगर रिश्ते का जोड़ ऐसा की जैसे हमारी कई जन्मों की पहचान हो।
सच कहूं तो इसे सामने रखने का कार्य सिर्फ़ इसलिए की आज के समाज में सच्चे अर्थों में मेरे लिए तो मनीषा दीदी ही सबसे अपनी हैं क्यूंकि ऐसा प्रेम नि : स्वार्थ भाव मुझे नही लगता की आपको अपने घरों में भी मिलेगा।
दीदी हम आपके साथ हमेशा हैं।
आपके चरणों में इस छोटे भाई का चरणवंदन
आपका छोटा भाई
रजनीश के झा
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