शिक्षा एक बहस

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

आज भी किसी भी देश के लिए ये सबसे बड़ी उपलब्धि होती है की उसके सारे लोग शिक्षित हों, और इस लिहाज से अफ़सोस के साथ यही कहना पड़ता है की हम लाख कोशिशों , न जाने कितनी योजनाओं , कितना पैसा, और कितना सारा श्रम के बावजूद आज भी सिर्फ़ पचास प्रतिशत के आसपास हैं, और जो हालत हैं उसे देख कर तो ये लगता भी नहीं है की निकट भैविश्य में हम किसी भी तरह सरवोछ प्रतिशत तक पहुँच सकेंगे।लेकिन इससे अलग एक और विचारणीय पहलू ये है की क्या सचमुच ही जो पढ़ लिख गए हैं उन्हें हम शिक्षित मान लें। दरअसल मेरे कहने का मकसद ये है की इन आकडों पर नजर डालिए, आज घर टूटने यानि तलाक का प्रतिशत सबसे ज्यादा पढ़े लिखे परिवारों में ज्यादा है, अपराध की दर भी ग्रामीण क्षेत्रों , जहाँ निरक्षरता ज्यादा है वहां कम है और शहरों में ज्यादा है, आत्महत्या की दर सबसे अधिक उसी राज्ये की है जिस राज्ये के साक्षरता दर सबसे अधिक है । साक्षर्ती के साथ स्वाभाविक रूप से भ्रष्टाचार, मर्यादाहीनता, उछ्स्न्ख्लता, और वे सब दोष भी समाज को कमिल रहे हैं जो नहीं मिलने चाहिए। इसके अलावा, शिक्षा आज ख़ुद एक नियायामत न होकर विशुद्ध व्यापार बन कर रह गयी है। और दुःख की बात तो ये है की चाहे तरीका अलग हो मगर सरकारी और निजी शिक्षा संस्थान दोनों ही आज औचित्यहीन, से बन गए हैं। हमारे शिक्षक कभी देश के प्रबुध्ह वर्ग के अगुवा हुआ करते थे, आजादी की लड़ाई और उसका महत्व यदि अगली पीढी को समझ में आया था तो वो सिर्फ़ इन्ही के कारण, आज के हालातों में उनसे कोई बड़ी अपेक्षा करना तो बेमानी होगा, किंतु जो भी जितना पारिश्रमिक उन्हें मिल रहा है उसके अनुरूप तो उनके दायित्व निर्वहन की अपेक्षा की ही जा सकती है ।दरअसल अब समय आ गया है की हमें अपनी पूरी शिक्षा प्रणाली, शिक्षा पद्धत्ति, बरसों से चली आ रही किताबों , पढाने के तरीकों , और उस पढ़ाई की सार्थकता पर नए सिरे से सोचना और समझना होगा। आज यदि हम इतिहास पढ़ रहे हैं तो अच्छी बात है, किंतु क्या ये जरूरी है की पही कक्षा से लेकर स्नातकोत्तर तक हम उन्ही अध्यायों के बार बार पढ़ते रहे, और उसके बाद उस ज्ञान का कोई औचित्य नहीं हो कम से कम रोजगार पाने के लिए तो नहीं ही। आज भी क्यूँ नहीं हमारे बच्चे अपनी शुरुआती कक्षाओं में ये तय कर सकते की उन्हें, आगे जाकर चित्रकार बनाना है, या मकेनिक, कोई खिलाड़ी बनना है या लेखक, और फ़िर उसी के अनुरूप उसकी आगी की पढ़ाई हो। ये ठीक है की बुनियादी शिक्षा तो सबक लिए अनिवार्य होनी चाहिए मगर उसके बाद के निर्णय ख़ुद उस बच्चे के।मगर दिक्कत ये है की जिस देश में देश के संचालकों का शिक्षित होना कोई जरूरी नहीं है उस देश में पढ़ाई की अहमियत कोई जबरन क्यूँ समझे।इन हालातों में तो मुझे यही लगता है की यदि आप चाहते हैं की आपकी अगली पीढी संस्कारवान हो, कम से कम उतनी तो जरूर ही की वो इस देश की इस समाज की और ख़ुद आपकी अहमियत समझे, और आपको अपने बुढापे में बेघर कर देने जैसी नौबत में न पहुचाये तो स्कूली शिक्षा के साथ उनमें वो संस्कार लाने की कोशिश करें जो देश को एक बेहतर भैविश्य दे सके

1 टिप्पणियाँ:

दिव्या रूपेश ने कहा…

अजय भाईसाहब आपका लिखा पूरी तरह सत्य है यदि इस दिशा में विचार नहीं करा गया तो सचमुछ भविष्य अंधकार में ही समझें
जय जय भड़ास

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