हरी अनंत हरी कथा अनंता.................. (अतीत के पन्ने से....)

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

:-(सोमवार का दिन हमारा रुपेश भाई से भरत-मिलन का दिन था। मैं ये नाम इस लिए दे रहा हूँ क्यूंकि इसे हमारे दादा ने भरत-मिलन कहा। मैं इस मिलन की चर्चा करता शब्दों को ढूंढ रहा था की हमारे भाई ने पहले ही सब कह दिया मगर वो उनके मन की बात थी और मुझे भी अपना अनुभव अपने इस परिवार से साझा करना था। सो कर रहा हूँ।



कहने सुनने की बहुत सारी बातें मगर अनुभव ऐसा की मानो सच में वर्षों बाद मिलन। दादा ने जो वर्णन हमरे डॉक्टर साब का किया था उसी के अनुरूप मैं भी जेहन में एक परछाई बना कर चला था। मगर अपने डॉक्टर साब तो बड़े छुपे रुस्तम निकले और मेरी सारी अवधारणा के विपरीत एक अल्ल्हड़, मस्त ,बिंदास मगर इंसानियत और मानवता के संवेदना से लबरेज युवा उर्जावान और भाड़ी के भडासी हमारे डॉक्टर रुपेश। पनवेल से घर तक और वापस घर से वाशी तक एक ऐसा युवा तुर्क मेरे साथ था जिसके बारे में आज के समाज में "कल्पना" नाम दिया जा सकता है।



घर पहुँचने पर सर्वप्रथम माता जी के दर्शन और फिर हमारी चर्चा का दौर। मैं मंत्रमुग्ध सा डॉक्टर साहब को सुनता जा रहा था और हमारी चर्चा जो की अविराम है चलती रहेगी। इसी बीच भडास माता हमारी मुनव्वर आपा, अन्नपूर्ण बनकर आयी और चली भी गयी.उनके जाने का कचोट मुझे रहा. बहरहाल हमने साथ भोजन किया और चर्चा "भडास" चालू रहा. मेरे प्रति भाई रुपेश का आत्मविश्वास खुद मेरे कदम डगमगा रहा था मगर भाई की उर्जा ने मुझे भी उर्जा का श्रोत दिया. सच में भडास की सार्थकता पर हमें विचार करना ही होगा की क्या सिर्फ भडास निकालना और इतिश्री। यक्ष प्रश्न तमाम भडासियों के लिए. परन्तु इस मिलन के दौरान जो मेरा अनुभव है वो मुझे कुछ और भी सोचने को प्रेरित करता है।



ट्रेन में मुझे एक "लैंगिक-विकलांग" मिली या यूँ कहिये की वो अपना कार्य कर रही थी और इसी दौरान मैं उन से रु-ब-रु हुआ। उनको देखते ही एक पलक मुझे हमारी मनीषा जी का ध्यान आया और मैं उनसे मुखातिब हुआ। थोरा सा परिचय और उन्होने बताया की वो मनीषा जी की बहन हैं और उनकी भी अभिरुचि लिखने में है और वो कोशिश भी कर रही है. डॉक्टर साब ने बताया की वो मोहतरमा भी पढी लिखी स्नातक हैं मगर समाज की मार उनके लिए बस ये ही साधन है. वापस लौटने तक या यूँ कहें की अभी भी मेरे जेहन में ये ही घूम रहा है की एक विकलांग को विकलांग आरक्षण, महिला को महिला आरक्षण, दलित को दलित ऐव मेव कुछ ना कुछ सभी को मगर "लैंगिक विकलांग" नाम का अभिशाप के लिए क्या............???????



सच में ये भी तो हमारे समाज का ही एक हिस्सा है, हमारे ही बच्चे हैं तो ये भेद-भाव क्यों। दिल का दर और मानसिक ऊहापोह अपने प्रश्न का जवाब खुद पता नहीं मगर ख्वाहिश इन्हें ससम्मान सम्माज में एक मुकम्मल दर्जा हो। शिक्षित, योग्य,काबिल,लायक तो फिर पर्तिस्पर्धा के पैमाने के खोटेपन का शिकार क्योँ।



प्रश्न है भडास परिवार से जो वाकई में अब बरगद हो गया है। बरगद इसलिए क्योँ की इसी की तरह हमारे भडास के सिर्फ डाल,तना,पत्ती ही नहीं अपितु जड़ें भी उसी हिसाब से जमती चली गयी है की हम आपने सार्थकता को इस वेब के पन्ने से अलग समाज के गलियारे में कब ले जाना शुरू करें की हमारी सार्थकता समाज के उन हरेक पहलू में दिखाई दे।



संग ही हमारा अनुरोध है सलाहकार मंडल के आदरणीय सदस्यौं के साथ साथ सम्पूर्ण भडास परिवार से की अपने व्यक्तिगत राय, विचार, और मशविरा जरूर दें की आगे क्या.............

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