डाक्टर दिनेश शर्मा के विचार !!!
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
डाक्टर दिनेश शर्मा के लिखे विचार जो मेरी एक मित्र डाक्टर पूर्णिमा शर्मा के माध्यम से मेरे पास पहुँची, पढ़ते पढ़ते मुझे लगा की इस विषय को भड़ास के माध्यम से लोगों के साथ साझा करना चाहिए सो जस का तस् मेल आप सभी के लिए..........
जिस प्रकार से दिनोदिन हमारी आत्मकेन्द्रीयता तथा दूसरों की भावनाओं के प्रति असहिष्णुता बढ़ रही है वह वाकई अत्यंत खेद और चिंता का विषय है हम बड़े गर्व से भारतीयता, हिन्दू संस्कारों तथा वैदिक कालीन स्वर्ण युग की बात तो करते हैं पर क्या हम अपने धर्म की आत्मा को समझ भी पाए हैं आज धर्म की आत्मा स्वार्थ तथा दिखावे की दलदल में असहाय सी फंस गयी है
धर्म के नाम पर जितना आडम्बर दिनोदिन बढ़ता जा रहा है, क्या हर युग में ऐसा ही था ? मेरे बहुत से मित्र कहते है कि हर युग में हर धर्म में ऐसी विकृतियाँ स्वार्थी तथा तुच्छ मानसिकता वाले लोगों के चलते आ ही जाती हैं पर धर्म इस सबसे ऊँचा है और रहेगा
माना कि मेरे मित्रों कि बात सही है पर मेरा एक स्वाभाविक सा प्रश्न है और वो यह है कि समय के साथ बजाय evolve होने के मनुष्य की धार्मिक चेतना का ह्रास क्यों कर हो रहा है ?
तथाकथित धर्म गुरु व्यवसायी बन गए हैं सामाजिक सेवा और "धर्म का कल्याण हो" के नारे लगा लगा कर अपना और अपने परिवार का कल्याण करने में लगे हुए है टेलिविज़न और अख़बारों में प्रचार करवाने के बाद तो ये भगवान के बगल में ही बैठे नज़र आते हैं 'त्याग' , 'सत्य' , 'मोहमाया' जैसे शब्द मात्र इनके मुहं में ही रह गए है महंगी गाड़ियों में घूमना, बड़े बड़े वातानुकूलित घरों में रहना, लोंगो से अपनी पूजा करवाना, अनेकों सुंदर महिलाओं से खुले आम गुरु भक्ति की ओट में सम्बन्ध रखना इनका वास्तविक जीवन है
एक ऐसे ही धर्मगुरु जो अक्सर टेलिविज़न पर आँख मूँद कर शांत भाव से बड़े बड़े शब्दों के आडम्बर रच कर प्रवचन करने को देश विदेश में विख्यात है और बड़े गर्व से लाखों शिष्यों का गुरु होने की घोषणा करते है, पैसे को लेकर ऐसे ही मोल भाव करते हैं जैसे शादी के समारोहों में नाचने गाने वाले कलाकार चढावे की रकम की पाई पाई का हिसाब साथ में चलने वाले इनके चमचे इधर से उधर नहीं होने देते
जब हम जैसे पढ़े लिखे समझदार लोग धर्म तथा भगवे वस्त्र के प्रभाव में आकर अपनी बुद्धि को ताक पर रख कर इन आडम्बर करने वाले रंगे सियारों के पिछलग्गू बन जाते है तो अफगानिस्तान और पाकिस्तान में रहने वाले उन बेचारे उज्जड और अनपढों का क्या दोष जो रात दिन ऐसे ही लोगों के प्रभाव में आकर तालिबानी बन रहे है
एक मेरे पडोसी है पडोसी है तो थोडी बहुत बातचीत और नमस्ते नमस्ते अक्सर हो ही जाती है कई बार ऐसे भी समय हम मिल जातें है जब पास वाली एक मस्जिद से नमाज़ से पहले अजान की आवाज़ आ जाती है ऐसे समय ये मेरे धार्मिक बंधु अजीब सा कड़वा मुह बना कर बरबस बोल ही पड़ते है , " भाई साहब सुबह शाम 'इन' लोगों ने loudspeaker पर चिल्ला चिल्ला कर नाक में दम कर रखा है
दो दिन पहले ही मेरे इन मित्र ने माता का जागरण रखा सोसाइटी के तथा शहर के नियमों के हिसाब से रात दस बजे के बाद इन बंधु को loudspeaker बंद कर देना चाहिए था या फिर चुपचाप स्वर धीमा करके घर ही में मातेश्वरी का ध्यान कर लेते पर नहीं इन्होने ऐसा नहीं किया रात बारह बजे तक पूरी आवाज में loudspeaker चला कर फ़िल्मी धुन वाले भजन बजाये, सब की नींद ख़राब की और अंत में जब किसी का वश नहीं चला तो पुलिस को फोन करके शिकायत करने पर भी बड़ी मुश्किल से माने
कौन सा पुण्य इन्हें प्राप्त हुआ होगा इतने सारे लोगों को कष्ट पहुंचा कर, उनकी नींद में खलल डाल कर
कहीं ऐसा तो नहीं कि मूर्खता में गढ़ी अपनी बेसिर पैर की सामाजिक मान्यताओं को ही हमने अपनी धार्मिक परंपरा मान लिया हो और अब उनसे चाह कर भी पीछा न छुडा पा रहे हों पिछले दिनों एक परिचित ने अपने यहाँ हवन पूजा का आयोजन किया मुझे भी निमंत्रण था यद्यपि ऐसे मौको पर मै लोगों के यहाँ जाने से बचता हूँ पर क्योंकि उनका बहुत ज्यादा आग्रह था तो जाना पड़ा बड़ा समारोह था काफी लोग आमंत्रित थे कुछ नेताओं तथा मंत्रियों को भी बुलाया गया था जलपान के साथ साथ अत्यंत विस्तृत भोजन की भी व्यवस्था थी सब कुछ शुद्ध देसी घी की खुशबू से महक रहा था पंडित लोग अकेले बैठे मंत्रोच्चार कर रहे थे मेरे परिचित की धर्मपत्नी महंगी साडी तथा जेवरों से लदी फंदी इधर उधर अतिथियों का स्वागत करती, उनके चाय नाश्ते का इंतजाम करती घूम रही थी मैं भी बैठ गया मित्र का कहीं अता पता नहीं था पूछा तो पता लगा की बाहर मंत्री जी की प्रतीक्षा में एक पांव पर खड़े हैं
कौन सी धार्मिक परंपरा या संस्कारों का निर्वाह हो रहा था यहाँ ?
एक और परिचित की धार्मिकता की बात करता हूँ मेरे ये परिचित सिवाय मंगलवार के हर रोज़ मांस तथा मदिरा का सेवन करते है यह उनका अपना जीवन है, भोजन रूचि है तथा व्यक्तिगत प्राथमिकता है बहुत अच्छे तथा सज्जन व्यक्ति है भोजन तथा खाने पीने की रूचि के आधार पर किसी के व्यक्तित्व को आंकना बिलकुल भी स्वस्थ परंपरा नहीं है अगर ऐसा ही तो हिटलर से अच्छा मनुष्य कोई हो ही नहीं सकता था संभवतः आपको पता ही होगा कि हिट्लर पूर्णतः शाकाहारी तथा teetotaler था
खैर तो बात हो रही थी मेरे परिचित की मंगलवार के दिन इन मित्र की मांस खाने तथा शराब पीने की चाह इतनी बढ़ जाती है की रात के बारह बजने का इंतज़ार करते रहते है जैसे ही घडी की सुइंया बारह बज कर एक मिनट बजायेंगी, मेरे ये परिचित चाहे घर में हो या किसी restaurant में , तुंरत अपनी 'सात्विकता' को नमस्कार कर देंगे
एक और किस्सा सुनिए मेरे एक सम्बन्धी कि पत्नी अत्यंत सहज, सरल तथा धार्मिक विचारों वाली महिला है उन्होंने कहीं सुन लिया या पढ़ लिया कि ब्रहस्पतिवार के दिन शेव करने से लक्ष्मी जी का ह्रास होता है मेरे ये सम्बन्धी जो खासे खुले विचारों के सज्जन हैं , धर्मपत्नी के विचारों से प्रभावित हुए क्योंकि संयोग से उन्ही दिनों इनकी आर्थिक संपन्नता भी धीरे धीरे बढ़ रही थी इश्वर कृपा से उन्ही दिनों मुझे भी उनके यहाँ प्रवास का सौभाग्य प्राप्त हुआ ब्रहस्पतिवार आया तो उनकी धर्मपत्नी का आग्रहपूर्ण निवेदन मुझे भी जारी हुआ कि भाई साहब आप आज शेव मत करना मेरी उस दिन दोपहर में flight थी वो तो फरमान सुना कर अपने दफ्तर चली गयी और बंदा पशोपश में फंस गया कि शेव बनाऊं या नहीं उनकी अनुपस्थिति में चोरी से शेव करना मेरे चरित्र से मेल नहीं खाता था सो हवाई अड्डे पर पहुँच कर शेव बनानी पड़ी !
मेरा प्रश्न इनके व्यव्हार के बारे में नहीं, इनके तथाकथित संस्कारों के बारे में अवश्य है इसमें इनका कोई दोष है भी नहीं जैसा इन्होने देखा , सुना उसी को सही मानकर अपना लिया निश्चित रूप से किसी शास्त्र में तो इन्होने ऐसा पढ़ा नहीं होगा क्योंकि ऐसा लिखा भी नहीं हुआ है कहीं जहाँ कहीं पढ़ा होगा वो किसी अधकचरे दिमाग की ही खोज होगी !
एक मुस्लिम परिवार में पैदा होने वाला सामान्य व्यक्ति जैसे अरबी भाषा में लिखी अपनी पुस्तकों की बातों को किसी मूर्ख मुल्ला या मौलवी से सुन कर उसे ही अंतिम सत्य मानकर स्वीकार कर लेता है , वैसे ही अधिकांशतः सामान्य हिन्दू भी पंडितों तथा धर्म गुरुओं के अधकचरे ज्ञान को ही धर्म का मानदंड मान लेता है
बात यहीं तक रहती तो भी ठीक थी पर समस्या तब पैदा होती है जब हम अपनी इन अधकचरी तथा बचकानी मान्यताओं को दूसरों पर थोपना शुरू कर देते हैं मुझे पता नहीं इसलाम में यह हिंसा या उग्रवाद कहाँ से और कब आ गया मैंने हज़रत पैगम्बर मोहम्मद का जीवन वृत्त जैसा पढ़ा, उस से मुझे ज्ञान हुआ उनके शांत, क्षमाशील और उद्दात्त व्यक्तित्व का उनका अधिकांश जीवन एकांत में हिरात की शांत गुफाओं में तपस्या करते बीता उनका विरोध करने वाले अधिकांशतः ऐसे लोग थे जो अपने स्वार्थ के चलते भिन्न भिन्न प्रकार के आडम्बर करके सामान्य जन साधारण को गुमराह करते थे वे नहीं चाहते थे कि किसी भी व्यक्ति की बुद्धि में इश्वर से सीधे साक्षत्कार का विचार भी आए जब कोई वश नहीं चला और अपनी ही जान पर बन आई तब बहुत मजबूरी में अनमने मन से पैगम्बर को पहली बार जीवन के बावनवें साल में तलवार उठानी पड़ी आज इसलाम धर्म के अनुयायियों ने दस बारह साल के बच्चो के हाथों में बम और बंदूकें किस इस्लामी मान्यता के आधार पर थमा दी है कौन पूछे और किस से पूछे ?
जहाँ धर्म का नाम आ गया वहां तर्क तथा प्रश्नों की गुंजाईश समाप्त हो जाती है दुर्भाग्य से हिन्दू धर्म में जहाँ तर्क, वितर्क तथा शास्त्रार्थ की एक स्वस्थ परंपरा थी, वहां भी वैसी ही मानसिकता पनपने लगी है गो रक्षा आन्दोलन की बढ़ चढ़ कर बात करने वाले एक भारी भरकम संत जी से मैंने जब एक वाजिब सा प्रश्न किया कि अपने उत्तर भारत में दूध कि आपूर्ति में बड़ा भाग तो भैंसों का है , फिर उनकी रक्षा के लिए आप क्यों नहीं बोलते जब कि दिन रात लाखों निरीह भैंसे सरकारी बूचड़ खानों में कट रही है , तो संत जी का मालपूडा क्रोध में मुहं से बाहर आ गया शुक्र है उनके पास तलवार नहीं थी वर्ना मेरा भी डेनियल पर्ल जैसा हाल होता
शादी विवाह के समारोहों में कुछ ऐसी सामाजिक धार्मिक परम्पराओं का शिकार वर तथा वधु पक्ष के लोगों को होना पड़ता है , जिनका कोई आधार ही नहीं है अचानक कहीं से कोई उपेक्षित सा रिश्तेदार प्रकट हो जाता है और "ऐसा होता है" कि ओट में वर , वधु और उनके माता पिता से ऐसे ऐसे कृत्य कराने लगता है , जिन पर आप न तो प्रश्न ही कर सकते हैं और न ही ऐतराज़ आप में यह पूछने का साहस ही नहीं होता कि आप प्रश्न कर सकें कि आपने यह सब कहाँ पढ़ा या सुना है ? उल्टे सबको लगता है कि अच्छा हुआ ये आ गए वर्ना हमें तो कुछ पता ही नहीं था
2 टिप्पणियाँ:
रजनीश भाई इन मुद्दों पर बोलने का जिगरा हरेक के पास नहीं होता... जो घर बारै आपनौ चले हमारे संग...
जो भी गलत करना कराना करवाना होता है उस पर अगर धर्म की मोहर लगा कर बाजार में लाया जाए तो सहज हो जाता है कमीनापन करना। हमारे डा.रूपेश श्रीवास्तव कुछ दिन पहले याद होगा कि ऐसे ही मामले में हिंदू धर्म के ठेकेदारों द्वारा बहुत प्रताड़ित करे गए थे उस उत्पीड़न में पुलिस लाकअप में बंद रखा जाना और लात-घूंसो से मारा जाना तक था लेकिन जो भड़ास को जी रहा है उसे बदला नहीं जा सकता। डाक्टर दिनेश शर्मा जी भी डाक्टर रूपेश श्रीवास्तव के ही दूसरे अपररूप हैं
जय जय भड़ास
भाई डा.शर्मा ने जो भी कहा मैं उनसे पूर्णतः सहमत हूं डेनियल पर्ल बन पाने का साहस सबमें नहीं होता
जय जय भड़ास
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