दर्द को कोई नाम न दो!

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

दर्द को कोई नाम न दो,
मुझे खुशी की कोई शाम न दो
दर्द को कोई नाम न दो....
दिन के उजाले में सोते हुए
जागते लोगो को मोहब्बत
का कोई पैगाम न दो
दर्द को कोई नाम न दो.....
शाम ढलते ही चिंगारियां
जलाये अधरों पर
ठंडी लाशों को मीठी सी
कोई मुस्कान न दो
दर्द को कोई नाम न दो.....
अँधेरी रात को
सुनसान गलियों में
न जाने कितने दिल
टूटते, बिखरते हैं
इनपर कोई ध्यान न दो
दर्द को कोई नाम न दो....
सम्माननीय पाठक महोदय,
आप सब से ये मेरी व्यक्तिगत गुजारिश है की ये मेरी स्वलिखित रचना है। लेकिन मैं आप सबसे विनती करता हूँ की जिन भी महानुभावों और देवियों को मेरी ये रचना प्रिय लगे। वे इसे इसी भाषा सहित अन्य किसी भी भाषा में अपने- अपने चिट्ठे पर स्वयं के नाम से छाप सकते हैं। रचना गन्दी लगे या कूड़ा समझ में आए तो भी इसकी पुरजोर भर्त्सना करें।
जय भड़ास जय जय भड़ास

4 टिप्पणियाँ:

mark rai ने कहा…

rachna kaphi achhi hai ...ise kuda me to katai nahi feka jaa sakta ..hothon par jarur gungunaya jaa sakta hai ...

दीनबन्धु ने कहा…

मनोज भाई हकीर जैसे लकीर के फ़कीर आपके भाव नहीं समझ पाएंगे। आप कवि हैं और वे मानसिक श्रमिक जैसा कि डा.रूपेश भाईसाहब ने अपनी पोस्ट में लिखा है
जय जय भड़ास

ज़ैनब शेख ने कहा…

मनोज भाई कैसे कवि हैं आप? कम से कम भावनाओं का कापीराइट तो अपने पास रखा करिये
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

भाई सतर्क रहिये, कोई भी ये दावा कर सकता है.
जय जय भड़ास

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