जैन धर्म क्या है ?
सोमवार, 1 जून 2009
जैन धर्म क्या है ?
किस पारकर का है ?
ये अभी अभी मैंने भड़ास के मंच पर डॉ साहब का लिखा हुआ वक्तव्य पढ़ा /
डॉ साहब भी लगता है की इस पारकर से दी गई जानकारी से दिग्भर्मित हो गए है /
मै कोई धर्म का व्यक्ता तो नही परन्तु अपने धर्म को कुछ हद तक आप सभी के सामने अपनी जानकारी अनुसार बताने की चेष्टा अवश्य करूगा/
जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है । 'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म।
जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-
णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतो को नमस्कार,
सिद्धों को नमस्कार,
आचार्यों को नमस्कार,
उपाध्यायों को नमस्कार,
सर्व साधुओं को नमस्कार।
ये पाँच परमेष्ठी हैं।
तीर्थंकर
जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है |
क्रमांक | तीर्थंकर |
1 | ऋषभदेव जी इन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है |
2 | अजितनाथ जी |
3 | सम्भवनाथ जी |
4 | अभिनंदन जी |
5 | सुमतिनाथ जी |
6 | पद्ममप्रभु जी |
7 | सुपाश्वॅनाथ जी |
8 | चंदाप्रभु जी |
9 | सुविधिनाथ जी इन्हें पुष्पदन्त भी कहा जाता है |
10 | शीतलनाथ जी |
11 | श्रेंयांसनाथ जी |
12 | वासुपूज्य जी |
13 | विमलनाथ जी |
14 | अनंतनाथ जी |
15 | धर्मनाथ जी |
16 | शांतिनाथ जी |
17 | कुंथुनाथ जी |
18 | अरनाथ जी |
19 | मल्लिनाथ जी |
20 | मुनिसुव्रत जी |
21 | नमिनाथ जी |
22 | अरिष्टनेमि जी इन्हें नेमिनाथ भी कहा जाता है |
23 | पाश्वॅनाथ जी |
24 | महावीर स्वामी जi इन्हें वर्धमान भी कहा जाता है |
सम्प्रदाय
दिगम्बर
दिगम्बर मुनि (श्रमण)वस्त्र नहीं पहनते है। नग्न रहते हैं । दिगम्बर पंथ मैं पाच भागो मैं विभक्त है।
- मुर्तिपुजक- *चतुर्थ*पंचम*कासार*भोगार*शेतवाळ
- मंदीरमार्गी-
- तेरापन्थी
श्वेताम्बर
श्वेताम्बर सन्यासी सफ़ेद वस्त्र पहनते हैं और श्वेताम्बर भी तीन भागो मे विभक्त है।
- मूर्तिपूजक
- स्थानकवासी
धर्मग्रंथ
समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है १ प्रथमानुयोग् २ करनानुयोग ३ चरर्नानुयोग ४ द्रव्यानुयोग
षट्खण्डागम, धवला टीका, महाधवला टीका, कसायपाहुड, जयधवला टीका, समयसार, योगसार् प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसार, बारसाणुवेक्खा, आप्तमीमांसा, अष्टशती टीका, अष्टसहस्री टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, भगवती आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, द्रव्यसङ्ग्रह, अकलङ्कग्रन्थत्रयी, लघीयस्त्रयी, न्यायकुमुदचन्द्र टीका, प्रमाणसङ्ग्रह, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चयविवरण, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भद्रबाहु सन्हिता
दर्शन
अनेकान्तवाद
स्याद्वाद
जीव और पुद्गल
जैन आत्मा को मानते हैं । वो उसे "जीव" कहते हैं । अजीव को पुद्गल कहा जाता है । जीव दुख-सुख, दर्द, आदि का अनुभव करता है और पुनर्जन्म लेता है ।
मोक्ष
जीवन व मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।
चारित्र
छह द्रव्य
जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल।
नव तत्त्व
जीव, अजीव, पुन्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष,
नौ पदार्थ
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष।
चार कषाय
क्रोध, मान, माया, लोभ।
चार गति
देव गति, मनुष्य गति, तिर्यञ्च गति, नर्क गति, (पञ्चम गति = मोक्ष)।
चार निक्षेप
नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप।
ईश्वर
जैन ईश्वर को मानते हैं।लेकिन इश्वर को सत्ता सम्पन्न नहि मान्ते इश्वर सर्वे शक्तिशलि त्रिलोक का ग्याता द्रश्त्ता है पर त्रिलोक का निओयात्रक नाहि|
पाँच महाव्रत
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह
सम्यक्त्व के आठ अंग
निःशङ्कितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन / उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य.
अहिंसा पर ज़ोर
अहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है । सभी जैन शाकाहारी होते हैं ।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है हिंसा न करना। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना । मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है/ अहिंसा परमो धर्म: (अहिंसा परम(सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है।यदि उपरोक्त जानकारी आप को जैन धर्म को समझने मे किसी भी पारकर का संशय उत्पन करती है तो किर्पया उस के निदान के लिए अवश्य बताय
12 टिप्पणियाँ:
अमित भाई यकीन मानिये कि मैं किसी धर्म में विश्वास नहीं रखता जो इंसानियत से परे हो फिर दिशाभ्रम होने का प्रश्न ही नहीं है। ये पोस्ट मात्र एक सवाल जैसी है जो उन बंदों ने मेरे आगे रखा इसमें मेरा कोई निजी दुराग्रह नहीं है। मैं तो टार्जन की तरह हूं बस एक पशु जैसा मानव जैसा बनाने वाले ने बनाया मैं धर्म जैसे विषय पर और ईश्वर जैसी जटिल पहेली पर बात करने के लायक खुद को नहीं पाता हूं,मरने के बाद सत्य देख लूंगा जीते जी एक ही बात देखी है कि इस ग्रह पर जितनी हत्याएं धर्म जैसे करुणा के विषय के कारण हुईं हैं और किसी कारण से नहीं हुईं जब से मानव विकसित हुआ। तो भाई मैं तो धर्म विषयक चर्चा से ही बाज़ आया....
जय जय भड़ास
अमित भाई आप सवालों के जवाब देने आगे आए इसके लिये धन्यवाद स्वीकारिये क्योंकि जिनसे सवाल करा गया था वो तो कन्नी काट गए, खैर जाने दीजिए। आप बस इतना बता दीजिए कि भारत में कानूनी तौर पर अल्पसंख्यक सिख,ईसाई,मुस्लिम आदि सभी अपने-अपने धर्म ग्रन्थों की शपथ लेते हैं लेकिन जैन भी अल्पसंख्यक हैं लेकिन अदालत में जाते ही हिंदू धर्म के कानूनी तौर पर स्वीकारे गए धर्मग्रन्थ भगवदगीता की शपथ लेते हैं तब वे हिंदुओं का एक सम्प्रदाय हो जाते हैं और अदालत से बाहर आते ही फिर जैन बन जाते हैं ये क्या चक्कर है इसका उत्तर अवश्य दीजिये लेकिन ये मत कहियेगा कि गीता तो सबका ग्रन्थ है वगैरह-वगैरह....। सीधा उत्तर हो न कि गोलमाल घुमा फिरा कर दिया हुआ। अगर आपको गीता स्वीकार है तो क्या भगवान राम व क्रष्ण आदि हिंदू मानयताओं के आराध्य पूज्यनीय हैं? इस विषय पर अभी बहुत कुछ बाकी है आशा है आप दुखी व परेशान न होंगे बल्कि संयत रह कर इस मंच का सदुपयोग करेंगे। ये सवाल मेरा है इस पर डा.रूपेश जैसे व्यक्ति को मत बीच में लाइये उन्होंने तो मात्र पोस्ट अपनी तरफ से कर दी थी। यदि अन्य कोई भी इस चर्चा में हिस्सा लेना चाहे तो सीधे ईमेल द्वारा बिना भड़ास का सदस्य बने पोस्ट करके अपने विचार bharhaas.bhadas@blogger.com पर मेल कर दे
जय जय भड़ास
सोनी भाई आप ने कहा की जैन भी अलाप्संखायक है , जी बिलकुल सही कहा है , जहा तक मेरी जानकारी है , देलही मे जैन भाई ये कानूनी रूप से हो गए है , रही बात अदालत मे जाते ही भगवत गीता की शपथ लेन की तो उस मे कोई भी अदालत अब गीता को ही लेने के लिए नहीं कहती है , यदि आप जैन धर्म की किसी धार्मिक पुस्तक का उपयोग करना चाहते है (शपथ लेने के लिए तो आप कर सकते है ) / आप का कहना की भगवन राम या कृषण स्वीकार है की नहीं , तो मै उस के जवाब मे आप को कुछ जैन साहित्य पड़ने का अनुरोध करुगा / रही बात भाई बुरा मानने की , दोस्त यदि हम सब लोग सिर्फ धर्म की बातो पर लड़ेगे तो हम और आप जैसा मुर्ख कोई नहीं है , लड़ने से पहले हमे उन ग्रंथो को पढना चहिये / ताकि हम सब बातो को जानने के बाद ही कोई बात कहे ना की कुछ समाज विरोधी तत्वों द्वारा फैलाये गई अफवाहों को हवा दे कर वमंसय फैले
यदि डॉ साहब आप को किसी बात से बुरा लगा हो तो मे उस के लिए दिल से खेद parkat करता हु , लकिन मेरा कोई भी इरादा किसी को भी , किसी भी रूप मे , गलत कहना नहीं था , मे सिर्फ जैन धर्म के बारे मे किसी भी को bharanti दूर करना चाहता हु
इस विवाद पर डॉ.रूपेश जी ने जो कहा उसमें आनंद आ गया कि इस ग्रह पर धर्म के नाम पर जितनी हत्याएं हुई हैं उससे अधिक अन्य किसी वजह से नहीं। मैं किसी धर्म,मत या सम्प्रदाय के बारे में टिप्पणी करने से डरती हूं क्योंकि अभी मैं दिमागी तौर पर डॉ.रूपेश जी की तरह मार खाने के लिये तैयार नहीं हूं। बस इतना बताना चाहती हूं कि डॉ.रूपेश जी के घर पर एक गुजराती लिपि में छपी पुस्तक "जैन धर्म सउथी प्राचीन अने जीवंत धर्म" मैंने देखा था लेकिन ज्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि भाई के घर पर तो इतनी किताबें हैं कि वे किताबों से ही घिरे रहते हैं। अमित भाई धर्म बड़ा ही संवेदनशील विषय है आप जैन धर्म समझने-पढ़ने को कहेंगे,गुफ़रान भाई इस्लाम पढ़ने-समझने को कहेंगे,मुनेन्द्र भाई सनातन धर्म और बेहद उलझा हुआ हिंदू धर्म जानने समझने का आग्रह करेंगे और इसी में छोटी सी जिंदगी बीत जाएगी,इंसानियत की बातें सभी करते हैं लेकिन आप सब देखिये कि आप सब में कितना स्पष्ट विरोधाभास है अगर आप सब इंसानियत की बात पर एक हैं तो फिर इतनी भिन्नता क्यों है?आवरण बेहद पतला लेकिन अभेद्य है इस दुराग्रह का इसके पार जा पाना बस डॉ.रूपेश जी के बस में ही जान पड़ता है जो इतनी सरलता(ढिठाई)से कह सकते हैं कि वे टार्ज़न जैसे हैं :)
जय जय भड़ास
सुल्ताना बहन हम सब मे कोई भी विरोधाभाष नहीं है ,
सब लोग यहाँ पर बड़े ही मानसिक रूप से दुरुस्त है ,
धर्म जैसा विषय किसी को भी लड़ने के लिए तैयार नहीं कर सकता ,
यदि आप कुछ कहेगी तो भी कोई धर्म वही रहेगा जो है ,
और यदि मै भी कुछ कहुगा तो भी वही रहेगा , बात सिर्फ नजरिये की है ,
मै तो मानता हु की हम सब का धर्म इंसानियत ,
प्रेम ,
विस्वाश ,
दया ,
स्त्रियों के परती सम्मान ,.
बच्चो के पर्ती प्यार ,
बुजुर्गो के लिए सेवा से भरा हो तो वो धर्म है अन्यथा वो धर्म ही नहीं है
भाई अमित जैन (जोक्पीडिया ),
हमारे मित्र रुपशजी के ब्लोग पर जैन धर्म कि आपने जो व्याख्या कि वो सटीक के साथ साथ वर्तमान समय के लिऐ प्रासगिक भी लगी। वैसे दुनिया को हजारो साल पुराने जैन धर्म के बारे मे भली भॉती जानकारी होगी ही इसमे कोई सन्देह नही। फिर भी आपने जो प्रयास किया किया वह हम सभी के लिऐ उपयोगी मगलकारी साबित हो ईश्वर से मेरी यह ही प्रार्थना है। वैसे भाई रुपेशजी के विचारो से एवम लेखनी से मै प्रभावित हू।
अमितजी मै आपके अवलोकनार्थ सन्त विनोबा भावे द्वारा "जैन धर्म-सार" पर किया गया कार्य एवम उनके एक सन्देश के अन्श भेज रहा हू पढकर आत्मसात करे-शेषकुशल- लिखते रहे ऐसी मेरी शुभकामानाऐ।
आपका अपना
महावीर बी सेमलानी
-----------------------------
विनोबा भावेजी का सन्देश
---------------------------
महोदय,
जैन-धर्म-सार ग्रन्थ के आरम्भ में सन्त विनोबाजी ने अपने निवेदन में कहा है -"कि सर्व-धर्म-समन्वय और दिलों को जोड़ने की दृष्टि से उन्होंने धम्मपद नवसंहिता तैयार की, ऋग्वेद-सार, मनु-शासनम्, भागवत-धर्म-सार, अष्टादशी, कुरान-सार, ख्रिस्त-धर्म-सार आदि धर्म-ग्रन्थों का सार निकाला है, उसी तरह से जैन-धर्म का सार भी निकले, ऐसी उनकी तीव्र भावना बहुत दिनों से थी।"
उसके अनुसार उनके दिशा-दर्शन में जैन-समाज के प्रमुख साधक-तपस्वी श्री जिनेन्द्र वर्णीजी ने अखण्ड परिश्रम करके जैन-धर्म-सार ग्रन्थ का संकलन तैयार किया है।
विज्ञान ने दुनिया छोटी बना दी, और वह सब मानवों को नजदीक लाना चाहता है। ऐसी हालत में मानव-समाज संप्रदायों में बँटा रहे, यह कैसे चलेगा? हमें एक-दूसरे को ठीक से समझना होगा। एक-दूसरे का गुणग्रहण करना होगा।
अतः आज सर्वधर्म-समन्वय की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। इसलिए गौण-मुख्य-विवेकपूर्वक धर्मग्रंथों से कुछ वचनों का चयन करना होगा। सार-सार ले लिया जाय, असार छोड़ दिया जाय, जैसे कि हम संतरे के छिलके को छोड़ देते हैं, उसके अन्दर का सार ग्रहण कर लेते हैं।
इसी उद्देश्य से मैंने `गीता' के बारे में अपने विचार `गीता-प्रवचन' के जरिये लोगों के सामने पेश किये थे और `धम्मपद' की पुनर्रचना की थी। बाद में `कुरान-सार', `ख्रिस्त-धर्म-सार', `ऋग्वेद-सार', `भागवत-धर्म-सार', `नामघोषा-सार' आदि समाज के सामने प्रस्तुत किये।
मैंने बहुत दफा कहा था कि इसी तरह जैन-धर्म का सार बतानेवाली किताब भी निकलनी चाहिए। उस विचार के अनुसार यह किताब श्री जिनेंद्र वर्णीजी ने तैयार की है। बहुत मेहनत इसमें की गयी है। यह आवृत्ति तो सिर्फ विद्वद्जन के लिए ही निकाली जा रही है।
जैसे हिन्दुओं की `गीता' है, बौद्धों का `धम्मपद' है, वैसे ही जैन-धर्म का सार सबको मिल जायगा।
`बुद्ध और महावीर भारतीय आकाश के दो उज्ज्वल रत्न हैं। .......बुद्ध और महावीर दोनों कर्मवीर थे। लेखन-वृत्ति उनमें नहीं थी। वे निर्ग्रन्थ थे। कोई शास्त्र-रचना उन्होंने नहीं की। पर वे जो बोलते जाते थे, उसीमें से शास्त्र बनते जाते थे, उनका बोलना सहज होता था। उनकी बिखरी हुई वाणी का संग्रह भी पीछे से लोगों को एकत्र करना पड़ा।"
बरसों तक भूदान के निमित्त भारतभर में मेरी पदयात्रा चली, जिसका एकमात्र उद्देश्य दिलों को जोड़ने का रहा है। बल्कि, मेरी जिन्दगी के कुल काम दिलों को जोड़ने के एकमात्र उद्देश्य से प्रेरित हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन में भी वही प्रेरणा है। मैं आशा करता हूँ, परमात्मा की कृपा से वह सफल होगी।
विनोबा भावे
ब्रह्म-विद्या मन्दिर, पवनार
१-१२-'७३
आदरणीय महावीर जी
प्रणाम
भड़ास एक लोकतांत्रिक मंच है जिस पर लोग बातचीत के द्वारा एक बेहतर समाज और राष्ट्र का निर्माण कर सकें,धार्मिक विवाद समाप्त हो सकें ऐसा सत्प्रयास जारी रहता है। इस मंच की लोकतांत्रिक स्थिति तो इतना अधिक स्पष्ट है कि शायद आप और अमित भाई भी जानते हों कि मेरे ही इस ब्लाग पर मुझ पर माफ़िया डान दाउद इब्राहिम से धन पाने का आरोप खुल कर एक सदस्य ने सिर्फ़ इसलिये लगाया था क्योंकि शायद वे भ्रमित थे कि मैं मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिये भड़ास का दुरुपयोग कर रहा हूं। अमित भाई ने विकिपीडिया से लेकर जो जानकारी प्रस्तुत करी है साधुवाद के पात्र हैं। यदि कोई वैचारिक मतभेद हैं तो उन्हें चर्चा और विमर्श से ही सुलझाया जा सकता है बम और बंदूक से समस्याएं हल नहीं होती हैं। आपका प्रेम भड़ास और मुझ पर बना रहे व आप समय-समय पर मार्गदर्शन देंगे साथ ही विमर्श में हिस्सा लेंगे इस बात का पूर्ण विश्वास है
जय जय भड़ास
आदरणीय महावीर जी ,
विनोबा भावेजी का सन्देश भेजने के लिए हार्दिक धन्यवाद ,
आपका
अमित जैन
धर्म का अर्थ - मनुष्य द्वारा सत्य, न्याय एवं नीति (सदाचरण) को धारण करके, कर्म करना धर्म है ।
असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म होता है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है ।
ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । वर्तमान न्यायपालिका भी यही कार्य करती है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
धर्म सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
धर्म एवं ‘ईश्वर की उपासना, दान, पुण्य द्वारा मोक्ष’ एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है । धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।
वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।
एक टिप्पणी भेजें