"भड़ास" का नाम बदल कर "भड़ास BLOG करना पड़ा।

बुधवार, 3 जून 2009

हिंदी ब्लागिंग के इतिहास में भड़ास पर अनेक बार अलग तरह के बनी हुई लकीरों से हटकर प्रयोग करे गए। भड़ास शाब्दिक तौर पर कदाचित एकदम गैरसाहित्यिक गंध लिये प्रतीत होता है किंतु इस ब्लाग पर हम सबने पाखंड और ढकोसलों का मुखौटा लगाए हिप्पोक्रेट्स को खूब सताया, ये सताना ऐसा ही है जिस तरह कि कोई आम जन किसी नेता पर बम न फेंक कर जूता फेंक दे। भाषा हमेशा विवादास्पद रही कि भड़ास पर जिस तरह की भाषा का प्रयोग करा जाता है वह अभद्र और अश्लील व गालियों से भरी है, आरोप रहे लेकिन उनके द्वारा जो खुद शराफ़त का ढोंग करते रहे। भड़ास सत्यतः नकारात्मक विचारों का सहज रेचन करके खुद को परिवार और समाज के साथ देश व विश्व के लिए रचनात्मक स्थिति में लाने का तरीका है जो कि ध्यान(मेडीटेशन) की "कैथार्सिस" से प्रेरित है, योग में भी विचार-रेचन, विचार-शून्यता, विचार-स्रजन, विचार-दर्शन आदि स्थितियों को सफ़लता की पायदानों की तरह माना गया है। ये सब कुछ भड़ास पर चलता रहा...........
लेकिन एक दिन अचानक जब भड़ास पर खुद भड़ासियों ने ये पाया कि संचालक ही इस विचार की दिनोंदिन बढ़ती लोकप्रियता के टके कराने के लिये लालची साहूकार बन बैठा है जो कि उसका असली चेहरा था जबकि अब तक तो वह इस ब्लाग को बना कर एक छद्मवेश धरे बैठा था उसे लगने लगा कि भोले भड़ासी मूर्ख हैं। धीरे-धीरे जब वैचारिकता में चीसड़पन स्पष्ट होने लगा और समझ में आने लगा कि संचालक भी एक पाखंडी ही है जो मात्र भड़ासी होने का दिखावा करने वाला एक दुकानदार है जो कि लोगों की भावनाओं को बेचने को तैयार बैठा है। इस विरोधाभास को भड़ासियों ने समझ लिया और जब लालची संचालक ने देखा कि अब अगर ये लोग इस पन्ने पर रहे तो मेरी दाल नहीं गलने वाली तो इसने अपनी तकनीकी क्षमता का प्रयोग करके भड़ास से कई लोगों को बिना किसी चर्चा के चुपचाप हटा दिया और चुप्पी साध गया, किसे पता चलता कि क्या हो गया क्योंकि लालची बनिये जैसे ही एग्रीगेटर्स चलाने वाले भी उसके ही पंटर निकले।
विकट समय आ गया था भड़ासियों, बहुत पीड़ा और क्षोभ में कुछ दिन गये और फिर हिंदी ब्लागिंग के क्षेत्र में हुई सबसे बड़ी भड़ासी क्रान्ति। इस क्रान्ति का बिगुल फूंका हमारे आत्मन भाई श्री रजनीश झा जी ने जिसमें मुनव्वर आपा के साथ मनीषा दीदी और हरभूषण सिंह जैसे लोगों ने जान लगा कर सहकार्य करा। इतना काम करना पड़ा, दिनरात ईमानदारी से लालची बनिये द्वारा चुपके से गला घोंट कर मार डाले गए भड़ास की आत्मा को हम लोगों ने आव्हान करके चुरा लिया जो कि साइबर स्पेस में रोती-कलपती भटक रही थी। लालची बनिया इतना चालाक और धूर्त निकला कि जब उसने देखा कि भड़ास प्राणहीन हो गया है तब उसने उस पर तमाम पाखंड की लीपापोती करके उसकी "ममी" बना डाला और बेचारे सैकड़ों-हजारों नए ब्लागर यही जानते हैं कि यही भड़ास है जबकि वो तो भड़ास की ममी है, भड़ास की आत्मा को जल्द से जल्द एक ब्लाग का शरीर देकर उसे पुष्ट करा। भड़ास पैदा हुआ मासूम सा भगवान मनमोहन किशन कन्हैया की तरह से रहा इसने पैदा होते ही तमाम साइबर स्पेस में विचरते ब्लाग-राक्षसों को डंडा करना शुरू कर दिया; जल्द ही बाल-भड़ास ने एक मजबूत पहचान बना ली और अब बारी थी कंस की तो फिर उसे क्यों छोड़ा जाता। ये तो सहज नैसर्गिक न्याय जैसी बात रही। नये भड़ास को राक्षसों ने घबरा कर कहा कि ये नकली भड़ास है चूं॥चूं... चां॥चां......। बौद्धिक राक्षसों से लेकर मायावी राक्षस तक मुकाबले में आए लेकिन सबकी बजा दी गयी । इस दौरान कुछ पूतनाएं भी सामने आयीं जिन्हें उनका स्तन पान करके प्राण चूसना शुरू करा तो मर जाने से पहले ही भाग खड़ी हुईं। कंस पर हमला तो इतना जोरदार रहा कि उस मायावी ने रूप ही बदल लिया लेकिन भोली जनता उसकी राक्षसी माया में ऐसी उलझी कि समझ ही न पायी कि क्या हो गया जिसके कारण अच्छॆ-खासे ब्लाग "भड़ास" का नाम बदल कर "भड़ास BLOG करना पड़ा। यहां तक माया फैली है कि हिंदी ब्लागिंग पर पहली किताब लिखने वाले इरशाद अली तक पर इस माया का प्रभाव रहा है, उन्होंने तो अपनी किताब का विमोचन तक पाखंडी के हाथों कराया और जब भड़ास के ग्वाल-बालों ने इरशाद बाबू को गेयर में लिया तो उन्होने माना कि उन्हें इस विषय पर जानकारी ही न थी कि भड़ास नामक दो ब्लाग ब्लागर पर मौजूद हैं(वैसे भड़ास पर भड़ासीजन बता चुके हैं कि इस नाम से कई ब्लाग हैं) सच तो ये है कि भड़ास तो भड़ास ही है दूसरा तो एक मायावी ममी है जो कि मिलते-जुलते नाम भड़ास BLOG कोप्रयोग कर रहा है।ये उसकी मजबूरी है कि उसे मरे हुए भड़ास का नाम बदलना पड़ा और फैन आदि लगा कर ठंडक बनाए रखनी पड़ी वरना ममी सड़ जाती और बदबू से सबको सच पता चल जाता। जो सच है वो सबके सामने है उम्मीद है कि अब ब्लागिंग पर जब भी कोई किताब लिखेगा तो इस ऐतिहासिक भड़ास की आत्मा की चोरी व पुनर्जन्म के प्रकरण को अवश्य लिखेगा।
भड़ास अपनी मूल आत्मा व दर्शन के साथ अपने दायित्त्व निभाए जा रहा है चाहे वह अकेला ही क्यों न हो क्योंकि वह जानता है कि अकेले होती है हर नयी शुरूआत अगर शक्ति है पास तुम्हारे तो जमाना देगा साथ.........
जय जय भड़ास

3 टिप्पणियाँ:

अजय मोहन ने कहा…

आपने अच्छा करा कि ये लेख लिखा वरना इरशाद अली ही क्या तमाम लोग इस बात को नहीं जानते कि भड़ास के संचालक रजनीश के.झा और डा.रूपेश श्रीवास्तव हैं यशवंत सिंह का भड़ास से कोई लेना-देना नहीं है। भड़ास के पुनर्जन्म की कथा वाकई दिलचस्प है
जय जय भड़ास

दीनबन्धु ने कहा…

जानते सब हैं लेकिन कुटिलतापूर्ण चुप्पी साधे हैं पक्के हरामी किस्म के लोग हैं,हिन्दी ब्लागिंग में कोई हवा भी छोड़ता है तो समीर लाल और उनके जैसे तमाम लोगों को खबर हो जाती है लेकिन भड़ास के इस ऐतिहासिक प्रकरण पर बोलने के लिये उन्हें कोई तेल तो लगाएगा नहीं। टिप्पणी करने या पोस्ट लिखने में तो एक दूसरे की सहलाने की नीति का पालन करा जाता है
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

गुरुदेव जो पुराने भडासी हैं वो यशवंत को जानते हैं, उसके कुकर्मून को जानते हैं उसकी कुटिलता को जानते हैं और ये ही वजह है की पुराने कद्दावर भडासी ने भडास blog से कन्नी काटी और लिखना तो दूर पढ़ना भी छोड़ दिया, मगर इस कुटिल यशवंत को देखिये जो आज भी उन पुराने धुरंधरों के नाम को बेच कर ब्लॉग के नयी पौध को मुगालता दे रहा है,

भड़ास कबी जरिए अर्थ के लिए नहीं था, ये एक विचार था, क्रांती था और है सामजिक चेतना जगाने का और समाज में सभी के लिए एक स्वर में आवाज बुलंद करने का और उसमें हम पहले भी सफल हुए थे आगे भी रहेंगे बस मुखौटे वाले संडास को बेच कर संडास फार मीडिया नमक चकला चलते रहेंगे,

जय गुरुदेव
जय जय भड़ास

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