सेल्समेन

रविवार, 27 सितंबर 2009

घास के विराट मैदानों की तरह

फैली सर्द रात के सन्नाटे

को चीरती है

- जैसे लकडहारे चीरतें हैं लकड़ी

-उसकी माँ की चीख

और हम सब बड़ जातें हैं

पोस्ट - मार्टम कक्ष मैं

मेरे सामने ही होता है शव विच्छेदन

और निकलती है उसमें से

-ढेरों मन गालियाँ

-दुस्तर लक्ष्य

-अंतहीन दबाव

-असंखय गुटकों के पाउच

-"कुत्तों से सावधान ""सेल्समेन आर नोट एलाऊड की पट्टियाँ"

तिरस्कार से बंद होते दरवाजों की आवाज

और ..........................और...............................और

एक कोने मैं दबे कुचले सहमे माँ के कुछ सपने ;

"आखिरी बार कब हंसा था ?

"मरने से कुछ देर ही पहले "

गीली रात ढलती है

भौर उमग रही है

रोशनियाँ पीली पड़ने लगती हैं

प्रणव सक्सेना "अमित्रघात "
amitraghat.blogspot.com

2 टिप्पणियाँ:

Chhaya ने कहा…

bahot hi hard hitting poem hai. i really like it. very sensitively written yet it packs a punch that takes the breath away.

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ ने कहा…

प्रणव भाई आनंद आ गया। वैसे तो भड़ास कविताओं का मंच नहीं है लेकिन आपकी कविताएं ढर्रे से अलग हैं।
जय जय भड़ास

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