किन्नरों की मांग चुनाव आयोग ने मानी, अब बारी सरकार की !!
मंगलवार, 17 नवंबर 2009
चुनाव आयोग ने लंबे समय से लटक रही एक माग को स्वीकार करते हुए अब अपने फार्मो और अन्य सभी कागजातों पर स्त्री-पुरुष के कालम के साथ इतरलिंगियों के लिए 'अन्य' विकल्प देने को मान लिया है।
किन्नरों और कुछ अन्य सामाजिक सगठनों द्वारा लंबे समय से यह माग की जा रही थी कि किन्नर या ट्रांसजेंडर को उनकी अपनी पहचान मिले। जहा चुनाव आयोग का यह कदम स्वागत योग्य है, वहीं यह भी स्पष्ट है कि अभी अन्य स्तरों पर यह लड़ाई लड़ी जानी बाकी है। देशभर में कहीं भी चाहे वह शिक्षण संस्थान हो, संपत्तिसंबंधी कागजात हों या अन्य कोई भी लिखा-पढ़ी का काम हो, उसमें स्त्री-पुरुष के साथ तीसरे विकल्प की भी स्वीकार्यता होनी बाकी है।
पिछले साल तमिलनाडु के उच्च शिक्षा विभाग ने एक निर्देश जारी कर इस दिशा में एक अहम पहल ली थी, जिसके अंतर्गत तीसरे सेक्स के सदस्यों को, जिन्हें किन्नर समुदाय के तौर पर संबोधित किया जाता है, सहशिक्षा यानी को-एजुकेशन वाले शिक्षा संस्थानों में प्रवेश देने का निर्देश दिया गया था। किन्नर समुदाय के समाज में एकीकरण की समस्या के मद्देनजर इस कदम की तमाम शिक्षाविदें ने प्रशसा की थी।
मदुरै के कामराज विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा। पी मुरथमुथु ने प्रस्तुत निर्देश के बारे में प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि वे अन्य दूसरे इंसानों की तरह ही होते हैं। उनकी यौनिक पहचान को स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। यह कदम उन्हें आगे बढ़ाने में मददगार साबित होगा।
इस पुरुष प्रधान समाज में मर्द की मर्दानगी किस्सा-कहानी, मुहावरे और व्यवहार में सिर चढ़कर बोलती है। उल्टे हिजड़ा शब्द गाली के बराबर है। वे इंसान समझे ही नहीं जाते हैं। लोगों की मानसिकता में पुरुष के श्रेष्ठ होने का कारण उसके शरीर में उसका लिंग का होना है।
इसी मानसिक बनावट के कारण हमारे समाज में पुरुषत्व एक सत्ता है और यह सत्ता कई दूसरी सत्ताओं से कहीं ज्यादा ताकतवर तथा गहरे जड़ जमाए है। इसलिए पितृसत्ता के ढाचे से मुकाबला बड़ा ही जटिल काम है।
इस पुरुषप्रधान समाज में पुरुषत्व को हर स्तर पर हर संभव श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया जाता है। आखिर पितृसत्ता अपनी सत्ता स्थापित कैसे करती है? उसे कायम रखने के लिए एक मानस तैयार करना जरूरी था। आप पाएंगे कि यदि किसी पुरुष को धिक्कारना हो तो उसकी काबलियत को नहीं पुरुषत्व को चुनौती दी जाती है। उसे नीचा दिखाने के लिए 'स्त्रीत्व' का इस्तेमाल होता हैं। जैसे, 'चूड़िया पहन लो' का जुमला या राजस्थान में कहते हैं 'घागरा पहन लो'।
अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होने परवेज मुशर्रफ को ललकारा था कि 'भारतवासियों ने चूड़िया नहीं पहन रखी हैं।' गौर करें कि स्त्रियों, हिजड़ो या जाति-धर्म के आधार पर कैसे हेय समझने की मानसिकता तैयार की गई है।
कानूनी स्तर पर बराबरी की लड़ाई लड़ना एक बात है और वह भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे देश ने तो आज के जमाने में भी, जबकि यह हक स्वत: ही मिलना चाहिए था, उसमें भी देने में इतना देर लगाया और अभी भी आधे-अधूरे रूप में ही माना जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ पूरे समाज की धारणा बदलना और खुद इस समुदाय की अपने बारे में धारणा बदलना कठिन, मगर जरूरी काम है।
समाज तो उन्हें गाने-बजाने वालों का निठल्ला समुदाय मानता ही है, वे स्वयं भी अपने बारे में यही धारणा रखते हैं। वे मजाक का पात्र बनकर अपना गुजारा चलाते हैं। मात्र एक प्राकृतिक काम में [वंशवृद्धि] अक्षम होने के कारण वह क्यों अन्य हजारों गतिविधियों से दूर हो गए, इसका जबाब न तो किन्नरों ने खुद ढूंढ़ा, न समाज और सरकार को इसकी पड़ताल करने की जरूरत पड़ी।
अपवादस्वरूप वह चाहे राजनीति में चुनकर नेता बन जाए या इक्का-दुक्का अन्य सफल प्रयास रहा हो, लेकिन पूरे समुदाय के लिए न्याय और बराबरी की राजनीति और सामाजिक स्तरों पर व्यापक बदलाव की जरूरत है। मानवीय गरिमा को स्थापित करने की लड़ाई अभी बाकी है।
इस पूरे समुदाय में अपराधीकरण की जो पैठ बनी है, उसने भी उनके विकास की राह में रोड़ा अटकाया है। चूंकि सिर्फ उद्धार करने का काम नहीं है, इसलिए इसका राजनीतिक हल तलाशना प्राथमिकता होनी चाहिए।
साथ में यह भी जरूरी होगा कि इस समुदाय में आंतरिक सुधार का भी प्रयास चले, क्योंकि परिस्थितियों का शिकार होते-होते इनमें खुद भी आपराधिक प्रवृत्तियां पैदा हो गई हैं। अक्सर इलाके के बंटवारे को लेकर इनमें खूनी संघर्ष की खबरें भी आती हैं।
कुछ गलत धारणाओं का इतने लंबे समय से प्रचार हुआ है कि वह बातें आम जन में सहजबोध यानी कामनसेंस का हिस्सा बन गई हैं। मसलन, उनके अंदर भावनाएं या प्यार आदि मायने नहीं रखते या वे मागने-खाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
इस पूरी समस्या से मुक्ति के लिए और जनमानस को दुरुस्त करने के लिए सरकार को चाहिए कि वह एफर्मेटिव एक्शन ले। यह हमें नहीं भूलना चाहिए कि दूसरे देशों की तुलना में यहा इस समुदाय के लोग काफी ज्यादा हैं, क्योंकि यह ज्ञातव्य है कि हमारे देश में 'नार्मल' लोगों का वंध्याकरण करके उन्हें तीसरे लिंग की श्रेणी में शामिल किया जाता है। अर्थात यह प्राकृतिक, जैव-वैज्ञानिक मामला नहीं है, बल्कि सामाजिक मसला है।
कुछ समय पहले एक टीवी चैनल ने किन्नर समुदाय पर एक स्टोरी भी की थी, जिसके मुताबिक हर साल 50 हजार नए किन्नर 'बनाए' जाते हैं। आज की तारीख में इनकी आबादी 25 लाख है, जिसमें हर साल 40 से 50 हजार की बढ़ोतरी हो रही है। चैनल के मुताबिक एटा [ उत्तर प्रदेश] के थाने में 50 से अधिक ऐसे मामले दर्ज हैं, जो जबरन किन्नर बनाए जाने के अपराध से संबंधित हैं।
अगर कोशिशें की जाएं तो चीजें कैसे बदली जा सकती हैं, इसकी मिसालें भी अब सामने आ रही हैं। पंजाब के फाजिल्का कस्बे की एक खबर आई थी कि पुनीत ने कैसे 'ठुमके को ठेंगा दिखा दिया'। वे फाजिल्का के एमआर कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं और सक्षम तथा सफल अध्यापक हैं।
इसी तरह तमिलनाडु की एक स्वयंसेवी संस्था ने किन्नरों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाकर उन्हें नौकरी दिलाने में मदद की।
साभार :- दैनिक जागरण
3 टिप्पणियाँ:
भाई सामाजिक बदलावों की गति बहुत धीमी होती है ये तो हम सब महसूस करते ही हैं मनीषा दीदी के संदर्भ में। सफलता है आगे देखिये क्या-क्या होता है। लेकिन अभी भी इन्हें इंसान न मान कर किन्नर, वानर या मानवेतर कुछ अलग ही माना जा रहा है
जय जय भड़ास
Yeh ek bahot hi positive kadam hai. Bharat ka samvidhan sabko barabari ka adhikar deta hai to phir kinnaro ko isse vanchit kyun rakkha jaye?
Jaha tak pitrisattatmak samaj ka sawal hai, main bass itna kehna chahti hu ke jo purush apne se physically weaker female ya kinnaro ko neecha dikhata hai wo basically ek kamjor insaan hai.
Doosro ke adhikaro ka samman karne mein hi gaurav hai. kisi pe atyachar karne ya kisi ka nidarad karne mein nahi.
गुरुदेव धीमी ही सही शुरुआत तो है और ये आगाज है तो हम अंजाम तक जरूर जायेंगे,
वैसे आपका कहना सही है कि इन्हें इंसान न मान कर किन्नर, वानर या मानवेतर कुछ अलग ही माना जा रहा है और इसके लिए भी हमें लड़ना होगा.
युद्ध जारी रहेगा
जय जय भड़ास
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