खाये पिये बौराए लोग
रविवार, 8 नवंबर 2009
भारत के संविधान की धारा 21 में जीवन रक्षा को बुनियादी अधिकार माना गया है लेकिन जिस देश में आम आदमी को भरपेट भोजन हासिल होने की सुविधा न प्राप्त हो वहां संविधान की यह धारा अपने आप महत्वहीन हो जाती है. बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन न हो पाने के चलते यदि प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता नहीं होती तो मंहगाई का भस्मासुर आम आदमी की पेट की आग को जलाता रहेगा. अंतरराष्ट्रीय एजंसी यूनेस्को कहती है कि भारत दुनिया का सबसे कुपोषित देश है.
इण्डिया की ग्रोथ और अद्भुद भारत का नारा लगानेवाले भूल जाते हैं कि इस देश में प्रतिदिन पौने छह हजार बच्चे भूख और कुपोषण से मर जाते हैं. हमारे प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं विकास दर 9 प्रतिशत से नीचे नहीं आने देंगे. यह कैसे संभव होगा? देश में प्रति वर्ष जनसंख्या में 1.9 प्रतिशत की दर से वार्षिक वृद्धि दर्ज हो रही है लेकिन पिछले दो दशक में खाद्यान्न उत्पादन 1.2 फीसदी तक गिर चुकी है. देश में अमीर आदमी अपनी तोंद को स्लिम रखने के चक्कर में जितना परेशान है, आम आदमी उससे ज्यादा परेशान अपने पेट को भरने में है. 1990 में जब देश आर्थिक सुधार की दहलीज पर खड़ा था तो देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की खपत 468 ग्राम हुआ करती थी. इसके बाद देश में आर्थिक सुधारीकरण हुआ. लगभग अठारह साल तक जिस आर्थिक नव उदारवाद का ढोल पीटा गया उसके बाद 2007-08 का आंकड़ा देखिए. भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान की उपलब्धता घट गयी और यह 407 ग्राम रह गयी. सबसे बुरा असर आम आदमी की पौष्टिकता पर हुआ. पौष्टिकता के नाम पर सहज ही अगर कुछ उपलब्ध है तो वह है दालें. 1990 में अगर प्रति व्यक्ति 42 ग्राम दाल उपलब्ध थी तो 2007-2008 में यह घटकर 28 ग्राम रह गयी. यह राष्ट्रीय औसत है जिसमें गरीब का हिस्सा और अमीर का भोग दोनो शामिल है. आम आदमी की थाली में प्रति व्यक्ति 10 ग्राम दाल भी आती होगी, इसमें पूरा पूरा संदेह किया जा सकता है. अगर भरे पेट समाज को अलग कर दें तो शायद इस देश की मेहनतकश जनता को 100 ग्राम अनाज भी प्रतिदिन नसीब नहीं होता होगा.
फिर भी राहुल गांधी रोज किसी न किसी दलित की झोपड़ी में दाल रोटी की खोज में पहुंच जाते हैं. पता नहीं राहुल गांधी को किसी गरीब की झोपड़ी में 28 ग्राम दाल खाने को मिली या नहीं लेकिन हकीकत तो यही है कि पौष्टिकता के सबसे बड़े माध्यम दालों ने आम आदमी की थाली में चटनी का स्थान ले लिया है. अर्जुन सेनगुप्ता आयोग ने कह ही दिया है कि देश के 77 फीसदी लोग 20 रूपये से भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं. अब इस बीस रूपये कमानेवाले परिवार में अगर पांच सदस्य हों और प्रतिदिन सबकी क्षुधा पूर्ति के सवा दो किलो अनाज की जरूरत हो तो वह कहां से लायेगा? गेहूं 15 से 30 रूपये किलो के बीच बिक रहा है. इस लिहाज से वह बीस रूपये में बमुश्किल एक किलो आटा ही खरीद पायेगा, वह भी तब जब देश के किसी ऐसे हिस्से में रहता हो जहां खाद्यान्न सस्ता हो. जिस देश के परिवार में एक किलो आटा खरीदने की शक्ति न हो वह भला राहुल गांधी के झोपड़ी प्रवास से क्या पायेगा?
निरंतर हलकी होती थाली से देश में भुखमरी की जो स्थिति उत्पन्न हुई है वह कोई अचानक आसमान से नहीं टपकी है. अगर आप इमानदारी से विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि इसके लिए देश की उत्पादन प्रणाली से ज्यादा देश की खाद्यान्न वितरण प्रणाली जिम्मेदारी है. उधार के उदारीकरण के बाद तो सरकारों का सारा ध्यान सूचकांक को टिकाये रखने और विकास दर को बनाये रखने में अटक गया. अब ये सूचकांक और आंकड़े कैसे तैयार होते हैं इसे हर कोई जानता है. देश का व्यापार जितना संगठित और केन्द्रित होगा देश के सूचकांक और आंकड़े उतनी ही मजबूत गवाही देंगे. पिछले बीस सालों में दो विरोधाभासी बातें एकसाथ हुई हैं. विकास दर के आंकड़ें और भूख के आंकड़ें दोनों एक साथ ही ऊपर उठे हैं. सरकारी आंकड़ों में विकास दर ने सुपर हाइवे की रफ्तार पकड़ ली लेकिन इस रफ्तार ने गरीबी, भुखमरी, कुपोषण की समस्याओं को सुलझाने की बजाय उन्हें और उलझा दिया. कृषि क्षेत्र में निवेश को सरकार ने दो दशक तक अटका दिया. देश की अर्थव्यवस्था भले ही आठ नौ फीसदी की दर से बढ़ी हो लेकिन कृषि का विकास दो से ढाई प्रतिशत पर ही अटक गया. शहरों में जिस मात्रा में चकाचौंध बढ़ी उसी मात्रा में गांवों में अंधियारा फैला.
भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि कृषि क्षेत्र के लिए ऋण बढ़ा है। रिजर्व बैंक के पास बैंकों के आंकड़े हैं। लेकिन इन बढ़े हुए आंकड़ों का क्या फायदा हुआ? देश में साहूकार प्रथा के कारण जो कष्ट थे वे बैंकों द्वारा कर्ज दिये जाने के बाद और बढ़ गये. अब ऐसे कई अध्ययन आ चुके हैं जो बताते हैं कि देश में किसानों ने जो आत्महत्याएं की उसमें कर्ज सबसे बड़ा कारण रहा है. जो लोग खेती किसानी में थे उन्होंने भी परंपरागत खाद्यान्न उत्पादन को पीछे छोड़ दिया. अब जिस देश में 82 प्रतिशत किसान छोटी जोत के हों उस देश में बड़ी योजनाओं का क्या लाभ मिल सकता है? और योजनाएं भी ऐसी जो सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित रह जाती हैं. पिछले साढ़े पांच साल से देश के कृषि मंत्री शरद पवार के अपने इलाके विदर्भ ने जैसी त्रासदी देखी है वह किसी से छिपी नहीं है. अकेले विदर्भ में आज सात हजार किसान विधवाएं हैं जो चीख चीख कर केन्द्रीय और राज्य सरकार की योजनाओं का बखान कर रही हैं. किसी गरीब की झोपड़ी में जाने का जरूर स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन गरीब की झोपड़ी में जाने, खाने और सोने के बाद उसको उसकी ही हाल पर छोड़ देने को क्या कहें? क्या हम विकास के इसी माडल को आगे बढ़ाते रहेंगे? खाये पीये बौराए लोगों और उनके आकाओं को क्या अपनी नीतियों पर दोबारा विचार नहीं करना चाहिए? अगर वे विचार नहीं करते हैं तो आम आदमी उनके बारे में क्यों फिकर करे? सवाल सबके लिए है, जवाब भी सबको मिलकर ही देना होगा. ये विचार यहाँ से साभार लिए गए है
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