भड़ास बनाम भड़ास blog -प्रथम भाग

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हिंदी ब्लागिंग के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था कि एक ही नाम के दो ब्लाग साइबर स्पेस में दिख रहे हों। भड़ास ने वह इतिहास भी रच डाला और ये हुआ दो विचारधारों के टकराव से। पहली विचारधारा यशवंत सिंह की रही जो कि पत्रकारिता को मात्र रोटी कमाने का साधन मानते हैं और समाचार व विचार को एक बिकाऊ उत्पाद, यानि कि पूरी तरह से बाजारवाद के समर्थक जो ये मानते हैं कि आजकल व्यक्ति के जीवन की दिशा को बाजार नियंत्रित करता है। दूसरी तरफ एक ठोस सोच लिए अति उच्च शिक्षित डा.रूपेश श्रीवास्तव जो कि पत्रकारिता को हमेशा से आदर की स्थिति में पहुंचाने के प्रयास में रहे कि एक कप चाय के लिये न्यूज़ बनाने वाले पत्रकारों को इस मनोस्थिति से बाहर लाकर उन्हें उनकी कलम की असल ताकत से परिचित करा सकें, पत्रकारों की इस लिजलिजी हो चुकी जमात को ये समझा सकें कि अतीत में पत्रकारिता ने समाज, देश और बाजार को दिशाबोध दिया है। यदि कोई भी डा.रूपेश श्रीवास्तव की इस बात को लेखनी की क्रान्ति शंखनाद माने तो कोई हर्ज़ नहीं है। वे पत्रकारिता में मरणासन्न सी हो चुकी संस्था "संपादक" को ललकार कर पुनः जीवित करने का स्वप्न देखते हैं और उस स्वप्न को सत्य में बदलने के लिये प्रयास भी करते हैं। धीरे-धीरे भड़ास पर डा.रूपेश श्रीवास्तव का आकार विशाल होता चला गया और उनके सिद्धांत भड़ास से जुड़ने वाले लोगों को पसंद आने लगे, उनके साथ उनकी एक टीम खुद ही विकसित होने लगी जिसमें कि बेहद बाग़ी किस्म के लेखक रहे जैसे कि मुनव्वर सुल्ताना, मोहम्मद उमर रफ़ाई, रजनीश के.झा और हिंदी ब्लाग जगत की पहली लैंगिक विकलांग ब्लागर यानि कि मैं स्वयं मनीषा नारायण।
आगे जारी.......
जय जय भड़ास

2 टिप्पणियाँ:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

न तो किसी को दिलचस्पी है और न ही कोई जानना चाहता है आप व्यर्थ ही भाई-पुराण खोले बैठी हैं। जो हमारे और आपके बीच की बात है उसमें किसी को क्यों दिलचस्पी होगी? लेकिन अगर मन में भड़ास है तो जरूर निकाल दीजिये मन हल्का हो जाएगा, मैं देख रहा हूं कि आप अपने चिट्ठे "अर्धसत्य" पर एक अरसे से कुछ नहीं लिख रही हैं
जय जय भड़ास

बेनामी ने कहा…

emm.. good .

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