तरुणाई के पार्

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

उस

तरूणाई के अंतिम पहर

जब मैने उसे

ठठाते-उछलते-कूदते-धप-धड़ाम

गिरते उठते देखा था

मगर

सरलता के अवसान

की उस घड़ी

के साथ ही

वह लड़का अब बड़ा-सा दिखता है

शबल पृष्ठों से भरी मेगज़िन को वह

बेहिचक पीछे से पलट

सस्मित देखता है
प्रणव सक्सेना " अमित्रघात "

1 टिप्पणियाँ:

मनोज द्विवेदी ने कहा…

ISKO PADHANE KA BHI ALAG MAZA MILA..DHANYABAD

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