विकास के लिए ‘गरीबों को हटाना’
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
शिरीष खरे/सूरत से
एक जमाने में विकास के लिए ‘गरीबी हटाओ’ एक घोषित नारा था। मगर आज आलम यह है कि विकास के रास्ते से ‘गरीबों को हटाना’ एक अघोषित एंजेडा बन चुका है। बतौर एक शहर, सूरत के उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि ‘गरीबी की बजाय गरीबों को हटाने’ का यह व्यंग्यात्मक मुहावरा किस तरह से गंभीर हकीकत में तब्दील हुआ है।
सैकड़ों झोपड़ियों की तरह, झोपड़पट्टी तोड़ने वाले जब जलाराम नगर के 40 वर्षीय लक्ष्मण चंद्राकार उर्फ संतोष की झोपड़ी को तोड़ने लगे तो उसने केरोसिन डालकर अपनेआप को मौत के हवाले करना चाहा। इसके बाद उसे एक एम्बुलेंस से न्यू सिविल हास्पिटल भेजा गया। वहां पहुंचते-पहुंचते उसके शरीर का 75 प्रतिशत हिस्सा जल गया। उधर डाक्टरों ने संतोष की हालत को बेहद गंभीर बताया। इधर सूरत महानगर पालिका ने शाम होते-होते ताप्ती नदी के किनारे से तीन बस्तियों के कई बच्चे, बूढ़े और औरतों को खुली सड़क पर ला खड़ा किया। यह एक नजारा अब का है जब सूरत के गरीबों को न तो साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ रहा है, न ही बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं को ही सहना पड़ रहा है। इतना सब तो उन्हें सूरत को 0 स्लम बनाने वाली आपदा के चलते झेलना पड़ रहा है।
2 दिसम्बर, 2009 को सूरत महानगर पालिका ने सुबह 10 से शाम के 6 तक : सूरत को 0 स्लम बनाने के लक्ष्य का पीछा करते हुए जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर से कुल 502 झोपड़ियों को तोड़ने का रिकार्ड दर्ज किया। दोपहर होते-होते अगर स्थिति तनावपूर्ण न हो जाती तो महानगर पालिका के कुल स्कोर में और अधिक बढ़ोतरी हो जाती। वैसे पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीचोंबीच, तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में बनाए रखते हुए- 4000 से अधिक रहवासियों से उनका पता ठिकाना छीन लिया गया। कुल मिलाकर ताप्ती नदी के आजू-बाजू कई दशक पुरानी इन तीन बस्तियों से 1700 से अधिक झोपड़ियों को साफ किया जाना है। अर्थात्- 14000 से अधिक रहवासियों से उनका पता ठिकाना छीना जाना है। जैसा कि महानगर पालिका के बस्ती उन्नयन विभाग से सी वाय भट्ट कहते भी हैं कि ‘‘नदी और खाड़ी के इर्द-गिर्द जमा झोपड़ियों को साफ करने के लिए डेमोलेशन की कार्रवाई जारी रहेगी।’’ डेमोलेशन की यह कार्रवाई अगले रोज भी जारी रही। मगर सूरत के बाकी इलाकों को तोड़े जाने के अगले चरणों और उनकी तारीखों के सवालों पर खामोशी का आलम है।
2 दिसम्बर, 2009 को सूरत महानगर पालिका ने सुबह 10 से शाम के 6 तक : सूरत को 0 स्लम बनाने के लक्ष्य का पीछा करते हुए जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर से कुल 502 झोपड़ियों को तोड़ने का रिकार्ड दर्ज किया। दोपहर होते-होते अगर स्थिति तनावपूर्ण न हो जाती तो महानगर पालिका के कुल स्कोर में और अधिक बढ़ोतरी हो जाती। वैसे पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीचोंबीच, तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में बनाए रखते हुए- 4000 से अधिक रहवासियों से उनका पता ठिकाना छीन लिया गया। कुल मिलाकर ताप्ती नदी के आजू-बाजू कई दशक पुरानी इन तीन बस्तियों से 1700 से अधिक झोपड़ियों को साफ किया जाना है। अर्थात्- 14000 से अधिक रहवासियों से उनका पता ठिकाना छीना जाना है। जैसा कि महानगर पालिका के बस्ती उन्नयन विभाग से सी वाय भट्ट कहते भी हैं कि ‘‘नदी और खाड़ी के इर्द-गिर्द जमा झोपड़ियों को साफ करने के लिए डेमोलेशन की कार्रवाई जारी रहेगी।’’ डेमोलेशन की यह कार्रवाई अगले रोज भी जारी रही। मगर सूरत के बाकी इलाकों को तोड़े जाने के अगले चरणों और उनकी तारीखों के सवालों पर खामोशी का आलम है।
सुबह-सुबह, कोई सूचना दिए बगैर, एकाएक और अपने पूरे दल-बल के साथ झुग्गी बस्तियों को नेस्तानाबूत करने की प्रशासनिक रणनीति को सूरतवासी अब बाखूबी जानते हैं। रविवार की ठण्डी सुबह में भी प्रशासन की तरफ से इसी रणनीति को दोहराया जाने लगा। पुलिस ने शनिवार रात को ही उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लिया था जो महानगर पालिका की गरीबों को शहर से हटाए जाने वाली मुहिम के विरोधी हैं। इधर जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर के रहवासी यह कहने लगे कि घर के बदले घर दिए बगैर हमारे घरों को कैसे उजाड़ा जा रहा है ? उधर प्रशासन के लिए यह कोई नया सवाल नहीं था। उनका ध्यान तो झोपड़पट्टी तोड़ने के दौरान ‘अधिकतम नुकसान पहुंचाने’ के सिद्धांत पर टिका था। अंधियारा छाने के बहुत पहले ही बस्ती वालों के असंतोष ने आग पकड़ ली। देखते ही देखते एक भारी भीड़ पथराव करते हुए आगे बढ़ने लगी। हर एक के हाथों में उनके दुख, दर्द, उनकी आशंकाओं और हताशाओं से भरी भावनाओं में डूबे जनसैलाब के सिवाय कुछ न था। इसके बाद मुस्तैद पुलिस वाले आगे आएं और उन्होंने बस्तियों की तरह उनके जनसैलाब को भी लाठीचार्ज के जरिए कुचल डाला। उसके ऊपर आंसू गैस के दो गोले भी छोड़े गए।
सूरत में कुल 1 लाख से अधिक झोपड़ियों को तोड़ा जाना है। सरकारी कागजों पर पुनर्वास के लिए केवल 42 हजार घर बनाए जाने की बात है। जाहिर है करीब 56 हजार झोपड़ों का सवाल हवा में झूल रहा है। एक तरफ झोपड़ियों को तोड़े जाने का सिलसिला थम नहीं रहा है और दूसरी तरफ इतना भी सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है कि घर मिलेंगे भी तो किन्हें, कैसे और कब तक। जबकि 2009 के पहले-पहले सूरत के सभी झोपड़पट्टी के परिवारों को नए घरों में स्थानांतरित करने का लक्ष्य रखा गया था। जबकि समय के छोटे-छोटे अन्तराल से शहर की बाकी झोपड़ियों की तरह रेलवे मेनलाइन की झोपड़ियों को तोड़कर गिराया जा रहा है और इस बात की जिम्मेवारी कोई नहीं ले रहा है कि किसने झोपड़ियां तोड़ी हैं ? इस सवाल का जवाब सब जगह से एक-सा आता है- ‘हमने नहीं उसने’. महापालिका के पास भी यही जवाब है और रेलवे के पास भी। जबकि आमतौर पर ऐसी बस्तियों के लोग नहीं जानते कि एक दिन उनके घर टूटेंगे। एक दिन उनसे यहां रहने के सबूत मांगे जाएंगे। इसलिए वह कागजों को इकट्ठा नहीं कर पाते। ऐसी बस्तियों के लोग किस कागज के टुकड़े का क्या मतलब है, यह भी नहीं जानते। सभी बस्तियों में रहने वाले लोगों का भी यही हाल है। अफसरों को जो कागज चाहिए उनमें से कुछ कागज यहां के ज्यादातर रहवासियों के पास नहीं हैं। यह रहवासी अफसरों को अपनी झुग्गी दिखाना चाहते हैं। लेकिन अफसरों को तो झुग्गी में रहने का कागज ही देखना है। फिलहाल लोगों के घर का हक सरकारी फाइलों से काफी दूर है। इस तरह पूरी कार्यप्रणाली आफिस-आफिस के खेल में उलझ चुकी है। जबकि सरकार लोगों से तो शहर में रहने के सबूत मांग रही है और खुद डेमोलेशन के लिए गैरकानूनी तरीके अपना रही है। जैसे कि डेमोलेशन के दौरान यूनाईटेड नेशन’ की गाईडलाईन निभानी जरूरी थी। जिन्हें उखाड़ना था, उनके साथ बैठकर पुनर्वास और राहत की बातें की जानी थी। गाईडलाईन कहती है कि विकलांग, बुजुर्ग और एसटी-एससी को उनके रोजगार के मुताबिक और पुराने झोपड़े के पास ही बसाया जाए। पीड़ित आदमी को पहले पुनर्वास वाली जगह दिखाई जाए, इसके बाद अगर वह मांग करता है तो उसे कोर्ट में जाने का हक भी है। इसके लिए कम से कम 90 दिनों का समय भी दिया जाए। लेकिन महानगर पालिका ने तो एक भी कायदा नहीं निभाया। जबकि महानगर पालिका के भीतर अनियमितताओं की कई हैरतंगेज कहानियां हैं। जैसे कि 1992 को टीना बेन 14 साल की थी, तब उन्हें घर के सामने खड़ा करके एक स्लेट पर उनका नाम, एनके परिवार वालों का नाम लिखवाकर फोटो ले लिया गया। 2005 को याने ठीक 12 साल बाद जब वह दो बच्चों की मां बनी तो भी उन्हें 1992 की फोटो के हिसाब से घर का मुआवजा मिला। समय के इतने बड़े अंतराल में घर तो क्या बस्ती की पूरी दुनिया ही बदल जाती है, लेकिन नहीं बदलती है तो मगनगर पालिका की मानसिकता।
माटी में मिली बस्तियों से जो ज्वंलत सवाल उठे हैं वो ‘रहने’ के अलावा ‘रोजीरोटी’ और ‘बुनियादी जरूरतों’ से भी जुड़े हैं। जैसे कि अगर यहां के कुछ विस्थापितों का पुनर्वास हुआ भी तो वह कोसाठ जैसी जगह में होगा, जो विस्थापितों की जगह से ‘12-15 किलोमीटर दूर’ और शहर की हदों को छूता ‘बाढ़ प्रभावित इलाका’ है। ऐसे में जो विस्थापित कोसाठ जैसी जगहों पर आएंगे भी है तो अपने साथ बेकारी भी लाएंगे। क्योंकि उन्हें शहर के भीतर 150 रूपए दिन की दिहाड़ी मजदूरी मिलती रही है। मगर शहर के बाहर तो कोई काम नहीं मिलेगा और काम ढ़ूढ़ने के लिए उन्हें रोजाना 40 रूपए तक खर्च करके शहर जाना पड़ेगा। इसके साथ-साथ जो औरतें चाय की दुकानें चलाती हैं या फिर घरेलू काम के लिए आसपास की सोसाइटी में जाती हैं, उन्हें कोसाठ जैसी जगहों में आकर हाथ पर हाथ रखे बैठना होगा। इन सबसे ऊपर यह सवाल भी है कि शहर के बाहर का यह हिस्सा जब बरसात के मौसम में बाढ़ के पानी से भरेगा तो यहां के रहवासी कहां जाएंगे ?
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शिरीष खरे ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘संचार-विभाग’ से जुड़े हैं।
संपर्क : shirish2410@gmail.com
ब्लॉग : crykedost.tk
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Shirish Khare
C/0- Child Rights and You
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I believe that every Indian child must be guaranteed equal rights to survival, protection, development and participation.
As a part of CRY, I dedicate myself to mobilising all sections of society to ensure justice for children.
1 टिप्पणियाँ:
भाई शिरीष की तःत्यों को दर्शाने वाली लेख एकदम सटीक होती है मगर ये सारी बातें मीडिया के लिए अनछुई रहती है.
भाई को बधाई.
जय जय भड़ास
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