मुर्गा
रविवार, 10 जनवरी 2010
मुर्गा हर एक जन्मदिन पर मेरे मुर्गा कटता है। उसकी गर्दन पर आहिस्ता-आहिस्ता फिरती छुरी को महसूस किया जाता है अक्सर खाना खाने के फौरन बाद और मर्सिया गाता है पूरा परिवार; फिर उसकी चबी हड्डियों को बचे चावल को और गंधाती प्याज को फेंक देते हैं पालतू कुत्ते के सामने लप-लप खाने के लिये; रात भर जी भर के आती हैं डकारे और सपने में दिखता है मुर्गे का तड़पना... और .....सुबह होते ही जुट जाते हैं हम सब बचा हुआ मुर्गा खाने के लिये क्योंकि सीज जाता है वह तब तक..।
प्रणव सक्सेना "amitraghat.blogspot.com" |
1 टिप्पणियाँ:
भयंकर जन्मदिन है भाई मुर्गे की मौत ने रीढ़ की हड्डी कंपा दी। अपुन जरा फट्टू टाइप के आदमी हैं
जय जय भड़ास
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