लो क सं घ र्ष !: आयातित कार्यपालिका

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

भारतीय संस्कार, गरिमा, नैतिक मूल्यों की बात करते हैं उच्च पदस्थ लोग इन सारे चीजों से वंचित होकर पदीय दायित्व का निर्वाहन करते हैं. व्यवहार में अगर ऊपर लिखे गए शब्दों का बोध जरा सा भी इन लोगों में जाए तो बहुत सारी समस्याएं जो इनके द्वारा प्रतिदिन पैदा की जाती हैं वह समाप्त हो जाएँयह समस्याओं का समाधान नहीं खोजते हैं अपितु खोज के नाम पर एक बड़ी समस्या खड़ी कर देते हैंविधि का निर्माण करने वाली संस्थाएं लगभग तीन दशकों से इन्ही उच्च पदस्थ लोगों द्वारा निर्धारित प्रारूप पर लिखी गई बात को कानून बना दिया है जिसके कारण व्यवहार में आए दिन दिक्कतें या समस्याएं पैदा होती रहती हैं देश के अन्दर ऐसे कानूनों का निर्माण इनके कुशल दिशा-निर्देशन में हो चुका है कि उसके ऊपर एक छोटी सी कहानी लिखना ही उचित होगा वह कहानी यह है कि जंगल के राजा ने आदेश किया कि सभी शैतान बंदरों को पकड़ लोइस उद्घोषणा के बाद जंगल के ऊंट भी भागने लगे एक ने ऊंट को रोक कर पूछा कि आप क्यों भाग रहे हैंबंदरों के लिए आदेश हुआ है, ऊंट ने कहा कि अगर मुझे निरुद्ध कर दिया गया पूरी जिंदगी यह साबित करने में लग जाएगी कि मैं ऊंट हूँ . इसलिए भाग रहा हूँ
भारतीय वर्तमान व्यवस्था में इसी तरह विधि का निर्माण हो रहा है और उसको लागू करने वाली कार्यपालिका का हाल भी यही है कई बार व्यक्ति के जिन्दा रहने के बावजूद उसी व्यक्ति की हत्या के आरोप में लोगों को आजीवन कारावास तक की सजा हो चुकी है न्यायलय वारंट जारी नहीं करते हैं और अभियुक्त जो बराबर पेशी पर रहा होता हैपुलिस वारंट के नाम पर पकड़ कर अदालत के समक्ष पेश भी कर देती हैपत्रावली देखने पर मालूम होता है कि न्यायलय ने वारंट जारी ही नहीं किया हैअगर हमारी कार्यपालिका के प्रमुखों में इस देश के प्रति जरा भी ईमानदारी, नैतिकता का बोध हो तो ये समस्याएं सामान्य तरीके से हल हो सकती हैं एक छोटा सा उदहारण लिख रहा हूँ कि जिला मजिस्टेट चरित्र प्रमाण पत्र जारी करते हैंप्रार्थना पत्र के साथ सम्बंधित लिपिक को मात्र सौ रुपये देना तुरंत अनिवार्य हैइसके पश्चात प्रार्थना पत्र की कांपी पुलिस अधीक्षक कार्यालय जाती है, वहां पर सरकारी फीस 20 रुपये जमा करने के लिए 100 रुपये देना होता हैवहां से प्रार्थना पत्र सम्बंधित थाने को जाता हैथाने वाले कम से कम 1000 रुपये प्रार्थना पत्र पर रिपोर्ट लगाने के लिए लेते हैं और जब यह रिपोर्ट लौट कर पुलिस अधीक्षक कार्यालय लौट कर आती है तो मालूम चलता है कि थानाध्यक्ष ने रिपोर्ट निर्धारित प्रोफार्मे पर प्रेषित नहीं की है और फिर थाने पर उतने ही रुपये खर्च कर निर्धारित प्रोफार्मे पर रिपोर्ट पुलिस अधीक्षक कार्यालय आती हैपुलिस फिर लोकल इंटेलीज़ेंस यूनिट से रिपोर्ट मांगी जाती हैवहां भी लगभग 500 रुपये अवैध रूप से देने पड़ेंगे वर्ना वे कभी रिपोर्ट नहीं लगायेंगेप्रार्थना पत्र अपराध नियंत्रण ब्यूरो जाता है जहाँ पर अवैध रूप से आपने रुपया नहीं दिया तो जनपद के समस्त थानों से रिपोर्ट नहीं लग पाती हैइतना सब करने में लगभग 2000 रुपये और एक महीने बराबर भाग दौड़ के बाद पुलिस अधीक्षक चरित्र प्रमाण पत्र के लिए जिला मजिस्टेट को संस्तुति करते हैंइसके पश्चात जिला मजिस्टेट के यहाँ कोई कोई कामा. फूल्स्टॉप लगा कर पुलिस अधीक्षक को वापस भेज दिया जाता हैफिर वह कमी 15 दिन में ठीक कराकर जिला मजिस्टेट कार्यालय भेजवाइये तब वहां एक अच्छी खासी रकम दीजिये तब जाकर जिला मजिस्टेट से चरित्र प्रमाण पत्र प्राप्त होगाअगर इस कार्यवाही में 6 माह से अधिक लग गए तो पुनः यही प्रक्रिया अपनाई जाएगीहमारी कार्यपालिका में इच्छा शक्ति का अभाव है या कभी कभी ऐसा महसूस होता है की कार्यपालिका हमारे देश की होकर आयातित कार्यपालिका है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

2 टिप्पणियाँ:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

जंगल के राजा ने आदेश किया कि सभी शैतान बंदरों को पकड़ लो । इस उद्घोषणा के बाद जंगल के ऊंट भी भागने लगे एक ने ऊंट को रोक कर पूछा कि आप क्यों भाग रहे हैं । बंदरों के लिए आदेश हुआ है, ऊंट ने कहा कि अगर मुझे निरुद्ध कर दिया गया पूरी जिंदगी यह साबित करने में लग जाएगी कि मैं ऊंट हूँ . इसलिए भाग रहा हूँ ।
भाई ये कहानी तो कमाल की है(कमाल खान की नहीं) साबित किसके आगे करना है अंधी व्यवस्थापन की प्रणाली के आगे या सूरदास राजा के आगे। ध्वस्त व्यवस्था है जहां ऊंट भी खुद को बंदर साबित करने में पूरी जिंदगी बिता दे अगर किसी अंधे कार्यपालिका के अधिकारी ने ऊंट को बंदर कह कर बंद कर दिया तो न्यायपालिका इतनी मोतियाबिन्द से ग्रस्त है कि उसे ऊंट के भलभलाने और बंदर को खौंखियाने में अंतर न समझ आएगा, सुबूत... तारीख पर तारीख.... खेल है बाबू खेल है...। क्या इस कहानी में सिर्फ़ कार्यपालिका दोषी दिख रही है ऊंट की पीड़ा के पीछे??????? इसके बाद हजारों प्रश्नवाचक चिन्ह भी कम हैं
जय जय भड़ास

मनोज द्विवेदी ने कहा…

SAB KAR KARAKE KISE SANTUSHT KIYA JA RAHA HAI....KANOON KI DEVI KO JO DEKHTI HI NAHI BAS SUNTI HAIN..AUR NIYAM YE PADHAYA JATA HAI KI SUNI-SUNAYI BAT PAR VISHWASH NAHI KARNA CHAHIYE...AB IN PRIMARI SCHOOL WALON KO KOUN SAMJHAYE KI JO PADHA WAHI SACH NAHI HAI?

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