जी डी पी के फर्जी नामे पर नितीश सरकार के साथ मीडिया बना भोंपू, हकीकत पर डाला पर्दा.

सोमवार, 11 जनवरी 2010

बिहार इनदिनों आर्थिक संवर्धन (इकानामिक ग्रोथ) को लेकर खासे चर्चा में है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी आंकड़े में बिहार का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) काफी बढ़ गया है। आंकड़े के अनुसार 2004से 2009 के बीच राज्य के जीडीपी में औसतन 11.03 प्रतिशत का सालाना इजाफा हुआ है। यह राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। पूरे देश में सिर्फ गुजरात के जीडीपी के ग्रोथ रेट का औसत बिहार से थोड़ा अधिक 11.06 प्रतिशत है। 


इस खबर के आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनावी वर्ष में एक बड़ा हथियार मिल गया है। साथ ही उनकी मुरीद मीडिया को सुशासन का भोंपू और तेजी से बजाने का मौका हाथ लग गया है। दोनों इस अवसर को लेकर इतने मदांध हैं कि उन्हें सही-गलत और असलियत को जानने-समझने या समझाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। इसी का नतीजा है कि इकाॅनामिक ग्रोथ को आर्थिक विकास ( इकानामिक डेवलपमेंट) बताने की मुहिम छेड़ दी गई है। दोनों शब्दों (इकानामिक ग्रोथ और इकानामिक डेवलपमेंट) को पर्यायवाची बना कर परोसा जा रहा है। 
जबकि इकानामिक ग्रोथ और इकानामिक डेवलपमेंट दो अलग-अलग चीजें हैं।
सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि को इंगित करने के लिए इकानामिक ग्रोथ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इस इकानामिक ग्रोथ को सकल घरेलू उत्पाद में होने वाले बदलाव की दर के आधार पर मापा जाता है। इकाॅनामिक ग्रोथ अपने आप में इकानामिक डेवलपमेंट नहीं है। इकाॅनामिक ग्रोथ या सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर विकास को नहीं आंका जा सकता। दरअसल, इकाॅनामिक ग्रोथ सिर्फ उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के परिमाण को बताता है। इनका उत्पादन किस तरह हुआ , इसके बारे में यह कुछ नहीं बताता। इसके विपरीत आर्थिक विकास ( इकानामिक डेवलपमेंट) वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के तरीके में होने वाले बदलावों को बताता है। सकारात्मक आर्थिक विकास के लिए ज्यादा कुशल या उत्पादक तकनीक या सामाजिक संगठन की जरूरत पड़ती है। 
इसी तरह प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद देश या राज्य के औसत आय को बताता है। इससे इस बात का पता नहीं चलता कि आय को किस तरह बांटा गया है या आय को किस तरह खर्च किया गया है। इस कारण प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अधिक होने के बावजूद आम जनता के विकास का सूचकांक नीचे रह सकता है। उदाहरण के लिए ओमान में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत अधिक है, लेकिन वहां शिक्षा का स्तर काफी नीचे है । इसके कारण उरग्वे की तुलना में ओमान का ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (एचडीआइ) नीचे है जबकि उरग्वे का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद  ओमान की तुलना में आधा है। 
हकीकत तो यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत का तीव्र इकाॅनामिक ग्रोथ हुआ है। इसके बावजूद देश के समक्ष गंभीर समस्याएं बनी हुई हैं। हालिया ग्रोथ ने आर्थिक विषमता को और ज्यादा चैड़ा किया है। इकाॅनामिक ग्रोथ का दर ऊंचा रहने के बावजूद देश की करीब 80 प्रतिशत आबादी बदहाली की जिंदगी जीने को विवश है। बिहार के तीन साल से कम उम्र के 56 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं। बिहार की आधी से अधिक आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन वसर करने को मजबूर है।
यह सही है कि गरीबी उन्मूलन के साथ सकारात्मक विकास के लिए एक सीमा का इकाॅनामिक ग्रोथ जरूरी है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इकाॅनामिक ग्रोथ होने से विकास हो ही जाएगा। इकाॅनामिक ग्रोथ इस बात की कोई गारंटी नहीं देता कि सभी लोगों को समान रूप से लाभ मिलेगा। यह ग्रोथ गरीब और हाशिए पर रहने वालों की अनदेखी कर सकता है। इसके कारण विषमता बढ़ सकती है। आर्थिक विषमता बढ़ने पर गरीबी उन्मूलन का दर घटेगा और अंततः इकाॅनामिक ग्रोथ भी घटेगा। राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक सौहार्द पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिए विषमता को पाटना विकास नीति की प्रमुख चुनौती बनी हुई है और यही कारण है कि हाल के वर्षों में सम्मिलित संवर्धन (इनक्लूसिव ग्रोथ) पर जोर दिया जा रहा है। जिस ग्रोथ के तहत सामाजिक अवसर बढ़ेगे उसे इनक्लूसिव ग्रोथ कहा जाएगा। यह सामाजिक अवसर दो बातों, आबादी को उपलब्ध औसत अवसर और इस अवसर को आबादी के बीच किस तरह बांटा गया, पर निर्भर करता है। 
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ग्रोथ को लेकर स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर के जिस लेख की चर्चा बार-बार कर रहें हैं उसमें बिहार, केरल , ओड़िसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के ऊंचे ग्रोथ रेट का उल्लेख तो किया गया है, लेकिन इसका श्रेय केंद्र सरकार को श्रेय नहीं दिया गया है। लेख में कहा गया है कि 1980 के दशक और फिर 1991 से उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद केंद्र की नीतियों का लाभ तो इन राज्यों को मिला लेकिन हाल के वर्षों में इनका जो ग्रोथ बढ़ा है वह पूरी तरह राज्य सरकार की करामात है। लेकिन इस करामात को साबित करने के लिए स्वामीनाथन उसी लेख में बताते हैं कि इसके कारण ग्रामीण इलाकों में मोटर साइकिलों और ब्रांडेड उत्पादों की बिक्री बढ़ी है। उनके अनुसार ग्रोथ रेट बढ़ने का इससे भी बड़ा सबूत सेलफोन की क्रांति है। प्रति माह लगभग सवा करोड़( 12-15 मिलियन) सेलफोन की बिक्री हो रही है। बिहार और झारखंड में सेलफोन की बिक्री में 99.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन स्वामीनाथन साहब पहले टाइम्स आफ इंडिया ( 3 जनवरी, 2010) और फिर इकाॅनामिक टाइम्स (6 जनवरी, 2010) के अपने पूरे लेख में इससे अधिक और कोई सबूत नहीं दे पाए हैं, जो साबित करे कि सचमुच में विकास हो रहा है। 

स्वामीनाथन ने ग्रोथ के जो प्रमाण दिए हैं उससे हाल में एशियाई विकास बैंक के द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को ही बल मिलता है। एशियाई विकास बैंक के एक अध्ययन दल ने रिपोर्ट दी थी कि ग्रोथ की मौजूदा प्रक्रिया ऐसे नए आर्थिक अवसरों को सृजित करती है जिनका बंटवारा असमान तरीके से होता है। आम तौर पर इन अवसरों से गरीब वंचित रह जाते हैं। साथ ही बाजार का प्रभाव उन्हें इन अवसरों का लाभ नहीं लेने देता। नतीजा होता है कि गैर गरीबों की तुलना में गरीबों को ग्रोथ का लाभ कम मिल पाता है। ऐसे में अगर ग्रोथ को पूरी तरह बाजार के हाथों में छोड़ दिया जाएगा तो इसका लाभ गरीबों को नहीं मिल पाएगा। ऐसी स्थिति नहीं बने इसके लिए सरकार को सजग रहना होगा और ऐसी नीतियां बनानी होगी जिसमें गरीबों की हिस्सेदारी बढ़े। ऐसा होने पर ही इनक्लूसिव ग्रोथ हो पाएगा। लेकिन बिहार सरकार की नीतिगत कार्रवाइयां इन पैमानों पर सकारात्मक नहीं दिखतीं। बिहार की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। इसके बावजूद राज्य में भूमि सुधार के लिए गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से सरकार ने साफ तौर पर इंकार कर दिया है। तमाम दावों के बावजूद मात्र एक हजार करोड़ से कुछ ज्यादा का कुल निवेश पिछले चार साल में हुआ है। शिक्षण संस्थानों में तीस से चालीस प्रतिशत पद रिक्त हैं। राज्य में बिजली की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। अगले पांच साल तक कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है।

अभी बिहार में जो ग्रोथ हुआ है, उसमें क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता नजर आ रहा है। विश्व बैंक अगर कहता है कि व्यापार करने के लिए दिल्ली के बाद पटना देश का सबसे उपयुक्त जगह है तो हमें इससे गौरवान्वित नहीं होना चाहिए। हम ग्रोथ के उस पैटर्न पर चल रहे हैं जिसमें ऐसी ही स्थिति उभरेगी। पैसा पटना में संकेद्रित हो रहा है। पटना में फ्लैटों के दाम एनसीआर के बराबर हो गए हैं। पटना में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का औसत दिल्ली के बराबर है। हवाई यात्रा करने वालों की संख्या पटना में दिल्ली के बराबर हो रही है। राज्य के अंदर ही विषमता बढ़ रही है। लेकिन उत्तर बिहार, पूर्वी बिहार बदहाल है। आधी आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे है। 

इस तरह स्वामीनाथन हों या विश्व बैंक, उदारीकरण के हथियार से पूंजीवाद का साम्राज्य फैलाने की जुगत में लगे हर व्यक्ति और संस्था के लिए विकास का मानक यही, यानी उपभोक्तावाद और विषमता है। बिहार सरकार अपने कामकाज के पक्ष में बार-बार विश्व बैंक के प्रमाण पत्र का हवाला दे रही है, लेकिन वह भूल जाती है और लोगों से यह कहने की हिम्मत नहीं करती कि देश की गुलाम बनाने में ईस्ट इंडिया कंपनी की जो भूमिका थी वही भूमिका आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को दुनिया पर लादने में विश्व बैंक अदा कर रहा है। इसलिए विश्व बैंक के प्रमाणपत्र पर आज बिहार या नीतीश जी को इठलाने की जरूरत नहीं , बल्कि चैकस होने की जरूरत है। लेकिन मुख्यमंत्री शायद चैकस नहीं हो पाएंगे। अभी तो वे कारपोरेट सेक्टर के हीरो  बने हुए हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए, एक समय में इसी कारपोरेट सेक्टर, विश्व बैंक और मीडिया के हीरो अटल बिहारी वाजपेई से लेकर चंद्राबाबू नायडू, दिग्गविजय सिंह और राम कृष्ण हेगड़े तक थे। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह हर कोई बखूबी जानता है। 

जीडीपी के ग्रोथ को लेकर इतना हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं। इसे लेकर सुशासन की ढाल बजाने जैसी कोई स्थिति नहीं बनती। ध्यान देने की बात है कि जिन आंकड़ों का हवाला दिया जा रहा है, उसी के अनुसार सभी पिछड़े राज्यों में जीडीपी का ग्रोथ रेट बढ़ा है। यहां तक कि झारखंड जैसे राजनीतिक रूप से अस्थिर और कुशासित राज्य में भी यह ग्रोथ रेट बढ़ा है। सवाल उठता है कि अगर बिहार में सुशासन और मुख्यमंत्री के कुशल नेतृत्व के कारण ग्रोथ रेट बढ़ गया तो आखिर झारखंड का ग्रोथ रेट कैसे बढ़ा। 
हकीकत तो यह है कि हाल के वर्षों में प्रायः सभी राज्यों में केंद्र प्रायोजित योजनाएं बड़े पैमाने पर शुरू की गई हैं। पिछड़े राज्यों का ग्रोथ रेट बढ़ने में उसका बड़ा योगदान है। फिर इसमें लो बेस इफेक्ट का भी योगदान है।  राज्य सरकार का कामकाज पहले की अपेक्षा ठीक हुआ है, उसका भी निश्चित तौर पर योगदान है, लेकिन यह सिर्फ उसी का नतीजा नहीं है। क्योंकि सरकारी कामकाज में सुधार का जितना प्रचार मीडिया में तथाकथित विशेषज्ञों के द्वारा किया जा रहा है वह हकीकत नहीं है। हकीकत का पता लगाना है तो कोई दूरदराज की बात छोड़िए, पटना मुफस्सिल अंचल कार्यालय में जाकर कोई व्यक्ति निधार्रित समय के अंदर मामूली आय प्रमाण पत्र या निवास या जाति प्रमाण बनवा लें और फिर यह बात कहे तो मैं सुशासन की बात  स्वीकार करने को तैयार हूं। 

और अंत मेंः एक सवाल और है। बिहार के ग्रोथ से अति उत्साहित मुख्यमंत्री और उनकी हमदर्द मीडिया गलतबयानी क्यों कर रहे हैं। इनके द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि जीडीपी का जो ग्रोथ रेट सामने आया है वह पूरी तरह प्रामाणिक है, क्योंकि इसे केंद्रीय संगठन सीएसओ ने तैयार किया है। क्या मुख्यमंत्री और मीडिया वालों को यह पता नहीं कि सीएसओ राज्यों के जीडीपी का आकंड़ा नहीं तैयार करता। राज्यों के जीडीपी का आंकड़ा संबंधित राज्य सरकार खुद तैयार करती हैं और उसे जारी करने के लिए सीएसओ को सौंप देती है। सीएसओ सभी राज्यों के इस आंकड़े को जारी भर करता है, वह इसे सत्यापित नहीं करता। 
इस संबंध में भारत सरकार के मुख्य सांख्यिकीविद् और केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के सचिव प्रणब सेन का बयान भी आया है कि , ‘‘ सीएसओ राज्यों के जीडीपी का डाटा नहीं उपलब्ध कराता है। सीएसओ और राज्यों के बीच एक व्यवस्था बनी हुई है जिसके तहत राज्य सरकारें खुद अपने जीडीपी का अनुमानित डाटा सीएसओ को देती हैं और सीएसओ उसे जारी करता है। इन डाटा को सीएसओ सत्यापित नहीं करता है। इसलिए इसे सीएसओ का डाटा कहना उचित नहीं है। ’’

इस संबंध में सही जानकारी के लिए भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम मंत्रालय की साइट  
http://www.mospi.nic.in/State-wise_SDP_1999-2000_20nov09.pdf   को देखा जा सकता है, जहां से इस डाटा को जारी किया गया है। राज्यवार डाटा के नीचे स्पष्ट तौर पर स्रोत अंकित है। इसमें लिखा हुआ है कि राज्यों के आंकड़े संबंधित राज्य के वित्त एवं सांख्यिकी निदेशालय के हैं, जबकि राष्ट्रीय आंकड़े सीएसओ के हैं। 




साभार :- हरपक्ष
लेखक :-  विपेंद्र

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