डिप्रेशन का सौफ़्टवेयर

रविवार, 10 जनवरी 2010

दो दिनों से गहरे अवसाद का नाटक करने की कोशिश कर रहा था। डिप्रेस होने का अमीराना नाटक सफल भी हो जाता लेकिन भड़ास का दर्शन नसों में रक्त के साथ बह रहा है तो शो फ़ुस्स होना ही था। भड़ासियों की किस्मत की हार्ड डिस्क की किसी भी ड्राइव में दुनिया बनाने वाले ने डिप्रेशन का सौफ़्टवेयर डाला ही नहीं इसीलिये कितनी भी हाइपर लिंक चिपकाए रहो कुछ नहीं होता। रोजाना की तरह चीपों-चीपों करते घूम कर आ जाते हैं इसी पन्ने पर जबरन ठूंसे को उगलने के लिये। भाई जे.पी.नारायण "बेहया" नाम का एक ब्लाग चलाया करते थे लेकिन किसी समस्या या दबाव के चलते भाई ने उसे हटा दिया, आजकल भाई क्या कर रहे हैं कहां है किसी को खबर हो तो बताएं। ऐसे अघोषित भड़ासी को हमारा सैल्यूट। आप सब जरा भाई की महाभड़ासी कविता का तेज़ाबी स्वाद चखें। जिन जगहों पर भाई ने बिन्दुओं(........) को लगा रखा है उन्हें आप प्रचलित शब्दों को प्रयोग करके रदीफ़ काफ़िया आदि समझ लीजिये।

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ढाई बजे रात को

खाता हूं पीता हूं ढाई बजे रात को।

जो जीवन जीता हूं ढाई बजे रात को।

परवरिश घर-परिवार की,

नौकरी अखबार की,

बनिया-बक्काल की,

सत्ता के दलाल दमड़ीलाल की,

धूर्त, चापलूस, चुगलखोर हैं संघाती,

घाती-प्रतिघाती,

उनके ऊपर बैठे हिटलर के नाती,

नौकरी जाये किसी की तो मुस्कराते हैं,

ठहाके लगाते हैं, तालियां बजाते हैं,

मालिक की खाते हैं,

मालिक की गाते हैं,

मालिक को देखते ही

खूब दुम हिलाते हैं,

बड़े-बड़े पत्रकार,

हू-ब-हू रंगे सियार,

इन्हीं के बीच कटी जा रही जिंदगी,

सरसों-सी छिंटी-बंटी जा रही जिंदगी,

अपनी गरीबी और मैं,

चार बच्चे, बीवी और मैं,

महंगाई में कैसे जीऊं,

वही पैबंदी कैसे सीऊं,

रोज-रोज सीता हूं ढाई बजे रात को।

खाता हूं, पीता हूं ढाई बजे रात को।

बैठा है कमीशन तनख्वाह बढ़ाएगा,

सात साल हो गए

लगता है फिर मालिक पट्टी पढ़ा़एगा,

दो सौ किलो मीटर प्रतिघंटा महंगाई की चाल,

जेब ठनठन गोपाल।

मकान का किराया

और दुकान की उधारी,

रूखी-सूखी सब्जी

और रोटी की मारामारी,

साल भर से एक किलो दूध का तकादा,

इसी में फट गया कुर्ता हरामजादा,

दिमाग में गोबर, आंख में रोशनाई

फूटी कौड़ी नहीं, आज सब्जी कैसे आई,

सोचता सुभीता हूं, ढाई बजे रात को।

खाता हूं, पीता हूं, ढाई बजे रात को।

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